Benefits of Bandh and Mudra
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 09 Jan 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: बन्ध व मुद्रा के लाभ
Broadcasting: आ॰ अमन जी
आ॰ लोकेश चौधरी जी (प्रतापगढ़, राजस्थान)
‘प्राणायाम, बन्ध व मुद्रा‘ – प्राणमयकोश साधना के अंतर्गत आते हैं। यह पिछले अन्नमयकोश को और भी उज्जवल व आगे के कोश मनोमय, विज्ञानमय व आनंदमयकोश की आधारशिला तैयार करते हैं।
तीन बन्ध – ‘मूल बन्ध, उड्डीयान बन्ध व जालंधर बन्ध’ व इनका समन्वित रूप चौथा बन्ध ‘महाबन्ध’। 10 प्रमुख मुद्रायें हैं।
१. मूल बन्ध. क्रिया – गुदा (anus) के छिद्र को खींच कर उपर रखना, भावना – कामोत्तेजना केन्द्र ‘मूलाधार’ से प्राण मेरूदण्ड मार्ग से उपर रेंगते हुए मस्तिष्क मध्य अवस्थित ‘सहस्रार’ चक्र तक पहुंच रहा है। मूल बन्ध के दो आधार – प्रथम मल मुत्र छिद्र के मध्य स्थान (शिवनी) पर एड़ी से हल्का दबाव बनाना, दुसरा गुदा संकोचन के साथ मुत्रेन्द्रिय (जननांगों) के नाड़ियों को उपर की ओर खींचना। आकुंचन व प्रकुंचन अर्थात् सिकोड़ने व छोड़ने के क्रम को हम जब लगातार करते हैं तो यह ‘अश्वनि मुद्रा’ व ‘व्रजोली’ मुद्रा का क्रम बन जाता है। लाभ – आंतें बलवान, मलावरोध दूर, अपान व कुर्म दोनों पर प्रभाव पड़ने से संकुचन प्रक्रिया के माध्यम से बिखराव एक केन्द्र में केन्द्रित होता है।
२. उड्डीयान बन्ध. क्रिया – पेट को उपर की ओर खींच कर पीछे पीठ की ओर चिपकाएं। लाभ – नाभि स्थित समान व कृकल प्राणों में स्थिरता, आंतों की निष्क्रियता दूर, यकृत वृद्धि व बहुमुत्र सरीखे बीमारी दूर होते हैं।
३. जालंधर बन्ध. क्रिया – ठोड़ी को कण्ठ कूप अथवा छाती में लगाना। लाभ – श्वास – प्रश्वास पर नियंत्रण, ज्ञान तन्तु जागरण, विशुद्धि चक्र जागरण।
४. महाबंध. तीनों बन्ध एक साथ लगाने का क्रम।
Demonstration. मूलबंध, उड्डीयान बंध, जालंधर बंध, महाबंध, अश्वनी मुद्रा व वज्रोली मुद्रा।
‘ज्ञान‘ व ‘क्रिया‘ के समन्वय बात से बनती हैं। ‘क्रिया’ के अच्छे प्रभाव हेतु उसके concept का ‘ज्ञान’ होना आवश्यक है। दुसरी तरफ ‘ज्ञान’ की सार्थकता ‘क्रियान्वयन’ में है।
आ॰ शरद निगम जी (चित्तौड़, राजस्थान)
‘वीर भोग्या वसुंधरा‘ व संसार ‘शक्ति’ की विभिन्न धाराओं की पूजा करते हैं। प्राणों का जागरण महा जागरण है। प्राणों के नियंत्रण, परिशोधन व अभिवर्धन – संवर्धन से बात बनती हैं।
‘कर्तव्यपालन‘ के क्रम में भैया सुदुर प्रांतों में जीवनयापन के क्रम में अन्नमयकोश की साधना – ‘आसन, उपवास, तत्त्व-शुद्धि व तपश्चर्या’ प्राणमयकोश – ‘प्राणायाम, बन्ध व मुद्रा’ तन्मात्रा साधना के सधने का क्रम व इनसे कार्य करने के तरीके शानदार (योगः कर्मषु कौशलं) बनने के अनुभवों को समक्ष रखा है।
विष्णु आनन्द (कटिहार, बिहार)
यदि जीवन में ‘प्राणों‘ की दीवार मजबूत/अभेद्य है तो कोई भी रोग/ शोक/ कलह/ क्लेश प्रवेश नहीं कर सकता। हमारे जीवन में ‘प्राण’ का स्थूल स्वरूप – श्वास (Breath) है। Breathing से ही शरीर में ‘प्राण’ प्रवेश करते हैं और अंग प्रत्यंग में विचरण करते हैं। आसन, प्राणायाम, बंध, मुद्रा आदि के अभ्यास में प्राणों पर नियंत्रण स्थापित कर उनका संवर्द्धन, परिशोधन व विकास किया जाता है। पंचकोश साधना में प्राण पांचों कोश में रूपांतरित होते जाते हैं।
प्रश्नोत्तरी सेशन विद् श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी
‘प्रगति‘ सुक्ष्म भी हो तो आनंद का विषय है अर्थात् ‘निराश’ होने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर कण कण में घुले हैं। प्रयासरत रहें और सायुज्यता का क्रम जारी रखें @ तत्सवितुर्वरेण्यं।
‘मस्ती‘/ आनंद को nector कहते हैं और जब यह unconditional हो जाए stable हो जाए तब बात बनती हैं।
हर एक कोश के अपने ‘प्राणायाम‘ हैं। अर्थात् प्राण को आयाम ‘सीमित’ को ‘असीम’ बनाने की यात्रा है।
‘शरीर‘ (body) का कोई अंग चोटिल/operated/ under treatment है तो चिकित्सक की सलाह महत्वपूर्ण हैं। ‘योगाभ्यास’ में उस चोटिल अंग पर कोई असहज pressure नहीं दिया जाए अर्थात् वहां ‘क्रिया’ के जगह ‘भावना’ परक अभ्यास को प्रमुखता दी जाये। योगाभ्यास में सहजता, सजगता व सायुज्यता आदि अनिवार्य पक्ष हैं।
प्राणाकर्षण प्राणायाम के प्रभाव बहुत लाभकारी हैं। ‘महामुद्रा + महाबंध + महावेध’ के समन्वित क्रम से असाध्य रोगों को दूर करने का आत्म अनुभव व परिजनों का अनुभव है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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