Bindu Sadhna – 2
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 23 May 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: बिन्दु साधना – 2
Broadcasting: आ॰ अंकुर जी
श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी
‘अन्नमयकोश’ में बिन्दु का अर्थ ‘वीर्य’ होता है। ‘प्राणमय कोश’ में ‘जीवनी शक्ति’ है। ‘मनोमय कोश’ में मनोभावों का नियंत्रण अर्थात् नियंत्रित मन / ‘सद्विचार’ है। ‘विज्ञानमय कोश’ में ‘सद्भावना’ @ ‘ज्ञान’ है।
“मरणं बिन्दु पातेन जीवनं बिन्दु धारणात्” – वीर्य का धारण ही जीवन है और बिन्दु का पात ही मरण है। ‘प्राण’ का common flow निम्नगामी सहस्रार से मूलाधार ‘एकोऽहम बहुस्याम’ होता है। ‘अद्वैत’ की यात्रा में ‘प्राण’ का उर्ध्वगमन ‘मूलाधार से सहस्रार’ की ओर होती है।
‘अध्यात्म’ में ‘कर्म’ वे कहे जाते हैं जो ‘बंधनकारी’ ना हों और ये संभव बन पड़ता है जब “योगस्थः कुरू कर्मणि”।
हमें जिस भी ‘चक्र – उपचक्र’ का उत्थान करना हो हम करें … प्रज्ञा बुद्धि के संग (आज्ञा चक्र में स्थित होकर)।
‘आनन्दमयकोश’ में ‘बिन्दु’ का अर्थ ‘परमात्मा’ @ ‘ब्रह्म’ है। “साधो सहज समाधि भली”।
‘आत्मसाधक’ को ‘पंचकोश’ से भी परे जाना होता है। न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः न वा सप्तधातु: न वा पञ्चकोशः| न वाक्पाणिपादौ न च उपस्थ पायु चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||2||
पंचकोशी 19 क्रियायोग साधन का इस्तेमाल ना करना हो …. ना करें। अपनी जिज्ञासा, जुनून बन जाए तो ‘अभीप्सा’ बन जाती है। जिससे हर एक सामान्य दिखने वाली क्रिया शोध का विषय बन सकती है। फलतः शाश्वत सत्य की खोज उस परम तत्त्व का साक्षात्कार का माध्यम बन सकती हैं।
विद्यां च अविद्यां च। संभूति च असंभूति च। इसका उद्देश्य है “भिन्नता का रूपांतरण अभिन्नता में @ अद्वैत @ सर्व खल्विदं ब्रह्म”।
‘आत्मसाधना’ की journey में ‘मन’ को best friend बनाना नितांत आवश्यक है। अनियंत्रित मन – परम शत्रु तो नियंत्रित मन – परम मित्र। जिसमें ‘तन्मात्रा साधना’ की भूमिका महती है। ‘तन्मात्राएं’ (शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श) जीव और प्रकृति के attachment का medium है और ‘संसार’ की गतिविधियों के लिए आवश्यक है। बस यह समझें की ‘सदुपयोग’ (good use) से बात बनती है और ‘दुरूपयोग’ (misuse) से बात बिगड़ती है।
समझदार बनने के लिए मन को ज्ञानात्मा ‘बुद्धि’ में लीन करें। अतः अहरह स्वाध्याय (अध्ययन + चिंतन-मनन + निदिध्यासन) में भगवद्गीता व उपनिषद् को प्राथमिकता दी जा सकती है।
‘कार्य’ के छोटे बड़े की दुविधा से उपर उठकर हर एक duty को शानदार तरीके (great ways) से करें @ योगः कर्मषु कौशलं। ‘कर्म’ में कुशलता हेतु ‘ज्ञान’ की अनिवार्यता है। सद्ज्ञान + सत्कर्म = सद्भावना।
“अद्वैत @ अभिन्नता” की इस यात्रा में साधक इस बात को समझें की पंचतत्त्व स्व प्रकृति व हर एक ‘जीव’ अपने पंचकोशात्मक स्थिति के अनुरूप ‘आचरण’ (गुण, धर्म व स्वभाव) परिलक्षित करता है। उसकी bombarding से बचने व बचाने के लिए “तत्सवितुर्वरेण्यं” को सिद्ध करना होता है। आत्मनिर्माणी ही विश्वनिर्माणी होते हैं। आत्म साक्षात्कार से ही परमात्म साक्षात्कार लभ्य होता है। इसकी शुरुआत “आत्म-सुधार ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है” से की जा सकती है।
जिज्ञासा समाधान
‘बिन्दु’ @ परमात्मा से ‘नाद’ की उत्पत्ति हुई है। आंतरिक ध्वनियों में peace & bliss अनाहत नाद है और बाह्य ध्वनियों में peace & bliss आहत नाद है।
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥ आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥1॥ ‘सोऽहमस्मि’ (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत कभी न टूटने वाली) वृत्ति है, वही (उस ज्ञानदीपक की) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) है। (इस प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है॥
युग निर्माण सत्संकल्प – दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करें जैसा खुद का साथ चाहतें हैं। अर्थात् हमारी पसंद और नापसंद भी हमें शिक्षित करती है।
‘प्रज्ञोपनिषद्’ वर्तमान में युगगीता कही जाती हैं अर्थात् इसमें आज के सारे अर्जुनों के ज्ञिज्ञासाओं का समाधान है।
‘मूर्तियां’ सर्वसाधारण जनमानस हेतु सर्वसुलभ श्रद्धा युक्त खुली पाठ्य पुस्तकें हैं। इनके तत्त्व दर्शन को जानने, समझने और आचरण में लाने से बात बनती हैं।
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय। ‘रहिमन’ मूलहि सींचिबो, फूलहि फलहि अघाय॥ श्रद्धा पूर्वक प्रज्ञा बुद्धि से एक निष्ठ होकर श्रमशीलता, सफलता का मार्ग प्रशस्त करती हैं।
मूल तत्त्व – आत्मा @ ईश्वर @ परमात्मा @ ब्रह्म की उंगली अर्थात् उनका साथ कभी नहीं छोड़ा जाए। संसार रूपी मेले में वही खोते हैं जो ‘संरक्षक’ (guardian) का साथ छोड़ देते हैं @ योगस्थः कुरू कर्मणि।
‘आत्मीयता’ @ सर्वे भवन्तु सुखिनःसर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्ती मां कश् चिद् दुख भाग भवेत्।। की भावना को सदैव अंतःकरण को दैदीप्यमान रखें। यही आत्मीयता लोकमान्य और लोकप्रियता की जननी बन जाती है।
‘त्रिगुणात्मक’ प्रकृति में सभी के व्यक्तित्व विकास हेतु सब कुछ उपलब्ध कराया गया है। ईश्वर का वरिष्ठतम राजकुमार “मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं प्रत्युत् अपने भाग्य का निर्माता, नियंत्रणकर्ता व स्वामी है।”
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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