Brahmopnishad
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 09 Jan 2022 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
SUBJECT: ब्रह्मोपनिषद्
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
भावार्थ वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)
श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (सासाराम, बिहार)
वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद् यतयः शुद्धसत्त्वाः । ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ॥ (मुण्डकोपनिषद् III-ii-6) ।। भावार्थ: वेदान्त विज्ञान के सुनिश्चित अर्थ को जानकर जिन्होंने संन्यास और योग के यत्न से अन्तःकरण को शुद्ध कर लिया है, वे देहत्याग के समय ब्रह्मलोक में परम अमृतत्व को प्राप्त कर सर्वथा मुक्त हो जाते हैं ॥
ब्रह्मविद्योपनिषद्
आत्मा के 4 स्थान:-
1. नाभि (स्थूल शरीर)
2. हृदय (सुक्ष्म शरीर)
3. कण्ठ
4. ब्रह्मरन्ध्र
आत्मा की 4 अवस्थाएं:-
1. जाग्रत
2. स्वप्न
3. सुषुप्ति
4. तुरीय
ध्यान (meditation) की गहराई में जाने पर (प्रतिप्रसवन/ उर्ध्वगमन) सब स्पष्ट होता जाता है । चेतना की कोई निश्चित anatomy नहीं होती है @ असीमित अपरीमित अथाह अनंत … ।
शाश्वत सत्य – अद्वैत (एकत्व) । ब्रह्म सदैव एक निर्वाण स्वरूप एवं प्रकाश स्वरूप है ।
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्रयं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ।।5।। भावार्थ: वह परम पवित्र यज्ञोपवीत सर्वप्रथम प्रजापति के साथ ही सहज प्रादुर्भूत हुआ । यह दीर्घायुष्य प्रदान करने वाला है । ऐसा जानवर तुम उत्तम और शुभ्र यज्ञोपवीत धारण करो । यह यज्ञोपवीत तुम्हारे लिए बल एवं तेज़ प्रदान करने वाला हो ।
यज्ञोपवीत – गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा । http://literature.awgp.org/book/Gayatri_Aur_Yagyopavit/v2.3
अविनाशी ब्रह्म में यह संपूर्ण जगत गुंथा हुआ है, इसलिए इसे ‘सूत्र’ कहा गया है । तत्त्वज्ञानी एवं योग में निष्णात मनुष्यों को इस सूत्र रूप ब्रह्म को हृदय में प्रतिष्ठित करना चाहिए ।
जो मनुष्य ज्ञानरूप शिखा वाले, ज्ञान में ही निष्ठा रखने वाले और ज्ञानरूपी यज्ञोपवीत को धारण करने वाले हैं, ऐसे उन श्रेष्ठ व्यक्तियों को ज्ञान ही परम पवित्र बना देता है ।।11।।
एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ।।१६।। भावार्थ: एक ही परमात्मा समस्त भूत प्राणियों में विद्यमान है, सर्वव्यापी है । समस्त भूतों का अन्तरात्मा है, सभी के कर्मों को नियंत्रित रखने वाला है, सभी भूतों का अधिवास है, साक्षी रूप, चैतन्य स्वरूप, पवित्र एवं निर्गुण है ।
‘श्रद्धा, प्रज्ञा व निष्ठा‘ युक्त अभ्यास अर्थात् ‘उपासना, साधना व अराधना’ @ ‘approached, realised & digested’ @ ‘सत्य एवं तप’ के द्वारा ‘बोधत्व’ किया जा सकता है ।
जिज्ञासा समाधान
प्रकाश का अभाव अंधकार @ ज्ञान का अभाव अज्ञान । जहां भी हम प्रकाश को देखने (अनुभव) में समर्थ नहीं होते तो हम अंधकार कह देते हैं । आत्मविस्मृति – अंधकार तो आत्मस्थिति – प्रकाश @ आत्मा वाऽरे ज्ञातव्यः … श्रोतव्यः … द्रष्टव्यः ।
“योगः कर्मषु कौशलम् ।” (अनासक्त) कर्मयोग उद्देश्य रहित नहीं प्रत्युत् आसक्ति रहित (सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा) होते हैं । इसमें कार्य करने की कुशलता (skill development = theory + practical) पर ध्यान दिया जाता है । skilled होने के उपरांत परमार्थ (भक्तियोग) ।
‘ज्ञान, कर्म व भक्ति‘ के त्रिवेणी संगम में डुबकी लगाने (जीने) से हम पाप मुक्त होते हैं अर्थात् ‘चरित्र, चिंतन व व्यवहार’ के धनी (उत्कृष्ट चिंतन, आदर्श चरित्र व शालीन व्यवहार के धारक) बनते हैं ।
सूर्योपासना का ज्ञान-विज्ञान – http://literature.awgp.org/book/suryopasna_ka_gyan_vigyan/v1.6
‘होश‘ अर्थात् विवेकशीलता ।
यज्ञोपवीत धारण करना अर्थात् गायत्री महामंत्र के दर्शन को जीना (स्वयं में रचाना, पचाना व बसाना) । गायत्री साधक दीर्घायु (जीवन के हर एक क्षण का सदुपयोग करने वाले) होते हैं ।
आत्मसाक्षात्कार (बोधत्व) उपरांत आत्मविस्मृति (भुलक्कड़ी) नहीं होती ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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