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Brahmvidyopnishad-2

Brahmvidyopnishad-2

ब्रह्मविद्योपनिषद् – 2

PANCHKOSH SADHNA –  Online Global Class –  19 Dec 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT:  ब्रह्मविद्योपनिषद् – 2 (श्लोक ४१-८०)

Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी

भावार्थ वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)

श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (सासाराम, बिहार)

Excess of everything is bad. अति हर्यत् वर्ज्यते । संतुलन से बात बनती है । खाया उतना ही जाए जितना पचाया जा सके । अपच समस्या का कारण बन सकती है ।  ‘अध्ययन’ उतना ही किया जाए जितना चिंतन मनन मंथन‌ व निदिध्यासन किया जा सके ।

समस्या‘ तब तक पीछा नहीं छोड़ती जब तक उसका ‘समाधान‘ नहीं कर लिया जाए । उलझनें, सुलझने से ही खत्म होती हैं ।

ज्ञानेन मुक्ति ।” ज्ञान (योग) से चिपकाव (आसक्ति) छूटती है । आत्मसाधक नित्य उपनिषद् स्वाध्याय का क्रम बनाये रखें । भेद दृष्टिकोण का रूपांतरण एकत्व/ अद्वैत में किया जाए ।
एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ॥6-11।। (श्वेताश्वतर उपनिषद्) सम्पूर्ण प्राणियों में वह एक देव स्थित है । वह सर्वव्यापक, समस्त भूतों का अन्तरात्मा, कर्मों का अधिष्ठाता, समस्त प्राणियों में बस हुआ, सबका साक्षी, पूर्ण चैतन्य, शुद्ध और निर्गुण है ॥

आत्मसाधक, साधनात्मक प्रक्रियाओं से गुजरते हुए जब विज्ञानमयकोश की स्थिति में पहुँचते हैं तो उसे अपने भीतर तीन कठोर, गठीली, चमकदार गांठें दिखती हैं । इन तीन महा ग्रन्थियों के दो सहायक ग्रंथियां भी होती हैं, जो मेरुदंड (Spine) स्थित सुषुम्ना नाड़ी के मध्य में रहने वाली ब्रह्म नाड़ी के भीतर रहती हैं। इन्हें हीं ‘चक्र’ भी कहते हैं:-
1. रूद्र ग्रंथि – स्थान (प्रजनन क्षेत्र) – महाकाली, शाखा ग्रंथियां – मूलाधार चक्र और स्वधिष्ठान चक्र ।
2. विष्णु ग्रंथि – स्थान (अमाशय के उपरी भाग) – महालक्ष्मी, शाखा ग्रंथियां – मणिपुर चक्र व अनाहत चक्र ।
3. ब्रह्म ग्रंथि – स्थान (मस्तिष्क के मध्य केंद्र में)– महासरस्वती, शाखा ग्रंथियां – विशुद्धि चक्र एवं आज्ञा चक्र ।

पात्रताअर्जित/विकसित करनी होती है । फोकट में कुछ भी नहीं मिलता । सुपात्र (eligible persons)जहां साधनों (resources) का सदुपयोग करते हैं तो वहीं कुपात्र (non eligible persons) साधनों का दुरूपयोग (misuse) अथवा अतिउपयोग (overuse) ‌।

क्रिया-शक्ति‘ व ‘ज्ञान-शक्ति‘ के सम्मिश्रण से ‘क्रियायोग‘ की पूर्णता संभव बन पड़ती है ।

सोऽहम प्राणायाम (हंस योग) ।

अणोरणीयान् महतो महीयानात्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोःतमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमानमीशम् ॥ III-20 ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्) भावार्थ: अणु से भी अणु है और महान् से भी महान् वह आत्मा इस जीव की हृदय गुहा में छिपा हुआ है । सबकी रचना करने वाले विधाता की कृपा से उस संकल्प रहित ईश्वर और उसकी महिमा को जो देख लेता है, वह शोकरहित हो जाता है ॥

गुरू-कृपा‘ – गुरू कार्य में सहभागिता से सुलभ होती हैं । गुरूदेव, प्रज्ञा पुत्र/ पुत्रियों को सर्वप्रथम योग्य बनने अर्थात् पात्रता विकसित (आत्मपरिष्कार) का दिशानिर्देश देते हैं । तदुपरांत प्रेरणा प्रसारण ।

मूल‘ (root) को साथ लिए बिना सफलता सुनिश्चित नहीं की जा सकती ।

5 प्राण (boss) + 5 कर्मेंद्रियां (colleagues) = प्राणमयकोश ।
मन (boss) + 5 ज्ञानेन्द्रियां (colleagues) = मनोमयकोश  ।
बुद्धि (boss) + 5 ज्ञानेन्द्रियां (colleagues) = विज्ञानमयकोश ।

जिज्ञासा समाधान

शीर्षासन (विपरीतकर्णी मुद्रा) में प्राण का flow उल्टा हो स्वतः मुख्यालय (सहस्रार) की ओर हो जाता है। मूलबंध व उड्डियान बंध स्वतः लगते हैं । अनाहत चक्र में vital capacity बढ़ती है । षट्-चक्र (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि व आज्ञा चक्र) व उनके बीज मंत्र/ मातृकाएं (लं, वं, रं, यं, हं, ॐ) का ध्यान किया जा सकता है । स्वाध्याय के तथ्यों को नया आयाम मिलता है ।  चेतनात्मक उन्नयन से आनंद में उत्तरोत्तर वृद्धि (स्थायित्व) आता है ।

गृहस्थ जीवन का भी प्राण – आत्मीयता (प्रेम, सम्मान, सज्जनता, सहकारिता, सहृदयता, सौहार्द आदि) है। गृहस्थ योग में दिन की शुरुआत – “आत्मबोध, ऊषापान + स्वाध्याय/ सत्संग, पंचकोशी क्रियायोग, Dutiful (योगः कर्मषु कौशलम्), परमार्थ, Recreation आदि व अंत रात्रि में तत्त्वबोध कर योगनिद्रा” में जाया जा सकता है @ हर सुबह नया जन्म व हर रात नई मौत।

Power-bank  fully charged हों तभी अन्य यंत्रों को charge कर सकता है । प्राणवान (श्रद्धावान् + प्रज्ञावान) व्यक्तित्व प्राणिक हीलिंग कर सकते हैं । प्रेरणास्रोत बन प्रेरणा-प्रसार का माध्यम बना जाता है ।

आकांक्षा, विचारणा व क्रिया” । गायत्री त्रिपदा (ज्ञान, कर्म व भक्ति) हैं ।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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