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Brihdaranyak Upnishad (बृहदारण्यक उपनिषद्) – 2

Brihdaranyak Upnishad (बृहदारण्यक उपनिषद्) – 2

PANCHKOSH SADHNA नवरात्रि साधना सत्र – Online Global Class – 18 Oct 2020 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram – प्रशिक्षक Shri Lal Bihari Singh

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ. बृहदारण्यक उपनिषद् -2

Broadcasting. आ॰ नितिन आहुजा जी

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

बृहदारण्यक का एक अर्थ उपनिषदों में सबसे बड़ा है। उपनिषदों में सभी स्तर के मानवों हेतु कल्याणकारी भाव हैं। विज्ञानमयकोश की साधना हमें ‘प्रतिकूलता में अनुकूलता” ढुंढना है।

अध्ययनशील बनें किंतु शास्त्र वासना अर्थात् मान्यताओं के जाल में ना फंसें। स्वाध्याय – सुलझने का माध्यम है ना कि उलझने का अर्थात् अध्ययन से विधेयात्मक/ सकारात्मक चिंतन का विकास करें।

ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय॥ ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः॥ (बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28)
अर्थ: मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो॥

वेद – ईश्वर से उत्पन्न हुआ और ऋषियों ने सुनकर संग्रह किया, इसलिए इसे स्रुति भी कहा जाता है।

बृहदारण्यक उपनिषद्. द्वितीय अध्याय में 6 ब्राह्मण हैं:-

प्रथम ब्राह्मण. गार्ग्य बालाकि ऋषि व विद्वान् राजा अजातशत्रु (पद – जनक) के बीच संवादों द्वारा ब्रह्म व आत्मतत्त्व को स्पष्ट किया गया है।
ब्रह्मज्ञान का उपदेश देने हेतु गार्ग बालाकि ऋषि वेद प्रवक्ता काशी नरेश अजातशत्रु के दरबार में अहंकारपूर्ण वाणी में ब्रह्मज्ञान का उपदेश देने की बात करते हैं। इस पर विद्वान् अजातशत्रु बदले में उन्हें 1000 गाय देने को कहते हैं, परन्तु बालाकि मुनि अजातशत्रु को सन्तुष्ट नहीं कर पाते।
ब्रह्म को मानना किंतु जानना – समझना नहीं अर्थात् ईश्वरत्व को धारण नहीं किया – जिया नहीं तो वह ज्ञान हमें मान्यताओं के बंधन में डाल देता है और इस ज्ञान के धारक को ब्रह्म-ज्ञानी नहीं कहे जा सकते।
आत्मा व प्रकृति के अनुशासन को धारण करने वाले सच्चे शिष्य हैं।

द्वितीय ब्राह्मण. यहाँ विराट ब्रह्माण्ड व मानव की समानता का बोध कराया गया है।
यद् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे‘ – जो ब्राह्मण्ड में है, वही मानव शरीर में विद्यमान है।
यहाँ ‘प्राण’ को शिशु का रूप बताया गया है। यह शिशु @ ‘प्राण’ – मानव शरीर का आधार हैं। शीर्ष अर्थात् 5 ज्ञानेन्द्रियां (आंख, कान, नाक, जिह्वा व मन) – प्रत्याधान हैं। श्वास की स्थूणा है और दाम ‘अन्न’ है।
प्राण तत्त्व के बिना शरीर की सक्रियता/ गतिशीलता की कल्पना ही नहीं की जा सकतीं, अतः इसे शरीर का आधार माना गया है।
‘शीर्ष’ ही समस्त ज्ञानेन्द्रियों का नियन्त्रण करता है व ‘श्वास’ ही प्राण की स्थूणा शक्ति है। प्राण का आधार अन्न है।
शिशु की ऊपरी पलक – द्युलोक व निचली पलक – पृथ्वीलोक, पलकों का झपकना – रात-दिन, आंखों के लाल डोरे – रुद्र/अग्नि तत्त्व, नेत्रों का गीलापन – जल तत्त्व, सफ़ेद भाग – आकाश तत्त्व, काली पुतली – पृथ्वी तत्त्व व पुतली के मध्य स्थित तारा – सूर्य, आंखों के छिद्र – वायु तत्त्व हैं।
हृदय रूपी आकाश/ प्राण रूपी तट पर – सप्त ऋषि विद्यमान हैं। 2 कान (गौतम व भारद्वाज ऋषि) + 2 नेत्र (विश्वामित्र व जमदग्नि ऋषि) + 2 नासिका छिद्र (वसिष्ठ व कश्यप ऋषि) + 1 रसना (अत्रि ऋषि) = ये सप्त ऋषि हैं। इनके साथ संवाद करने वाली आठवीं – वाणी है। जो ऐसा जानता है, वह समस्त अन्न भोगों का स्वामी होता है।

तृतीय ब्राह्मण. ब्रह्म‌ के‌ 2 रूप – मूर्त व अमूर्त अर्थात् व्यक्त व अव्यक्त स्वरूपों का वर्णन है।
जो मूर्त/व्यक्त है, वह स्थिर, जड़ व नाशवान है, मरणधर्मा है। जो अमूर्त/अव्यक्त है, वह सूक्ष्म, अविनाशी व सतत गतिशील है।
विद्यांं च अविद्यां च/ संभुति व असंभुति/ परा व अपरा/ पदार्थ विज्ञान व अध्यात्मिकी – दोनों को एक साथ जानें @ जीवन के दो महान उद्देश्य – स्वयं को जानना (आध्यात्मिकी) व धरती को स्वर्ग बनाना (भौतिकी)। सुत्र/अभ्यास – ईश्वरीय अनुशासन में ईश्वर के सहचर बन ईश्वर के पसारे इस संसार के विधि व्यवस्था में सहयोगी बनें
ब्रह्म के लिए सर्वोत्तम उपदेश ‘नेति-नेति’ है, अर्थात् उस परब्रह्म के यथार्थ रूप को पूर्ण रूप से कोई भी आज तक नहीं जान सका। उसे ‘सत्य’ नाम से जाना जाता हैं; यह प्राण ही निश्चय रूप से ‘सत्य’ है व वही ‘ब्रह्म’ का सूक्ष्म रूप हैं इसी में समस्त ब्रह्माण्ड समाया हुआ है।

चतुर्थ ब्राह्मण. महर्षि याज्ञवल्क्य जी व उनकी धर्मपत्नी मैत्रेयी के बीच आत्म तत्त्व संवाद है।
महर्षि याज्ञवल्क्य जी ने वानप्रस्थ आश्रम में जाने की इच्छा व्यक्त करते हुए अपनी पत्नी मैत्रेयी से कहा कि वे अपना सब कुछ उसमें व अपनी दूसरी पत्नी कात्यायनी में बांट देना चाहते हैं।

प्रश्न – इस पर मैत्रेयी ने उनसे पूछा कि क्या इस धन-सम्पत्ति से अमृत्व की आशा की जा सकती है? क्या वे उसे अमृत्व-प्राप्ति का उपाय बतायेंगे?
उत्तर – महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा-‘हे देवी! धन-सम्पत्ति से अमृत्व प्राप्त नहीं किया जा सकता। अमृत्व के लिए आत्मज्ञान होना अनिवार्य; क्योंकि आत्मा द्वारा ही आत्मा को ग्रहण किया जा सकता है।
पति की आकांक्षा पूर्ति के लिए – पति को पत्नी प्रिय होती, पिता की आकांक्षा के लिए पुत्रों की, स्वार्थ के लिए धन की, ज्ञान की, शक्ति की, देवताओं की, लोकों की व परिजनों की आवश्यकता होती है।
इसी प्रकार, ‘आत्म-दर्शन‘ के लिए श्रवण, मनन व ज्ञान की आवश्यकता होती है @ आत्मा वाऽरे ज्ञातव्यः, आत्मा वाऽरे श्रोतव्यः, आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः। । कोई किसी को आत्म-दर्शन नहीं करा सकता। इसका अनुभव स्वयं ही अपनी आत्मा में करना होता है।’
जिस प्रकार जल का आश्रय समुद्र, स्पर्श का त्वचा, गन्ध का नासिका, रस का जिह्वा, रूपों का चक्षु, शब्द का श्रोत्र, संकल्पों का मन, विद्याओं का हृदय, कर्मों का हाथ, आनन्द का उपस्थ (इन्द्रिय) है, ‘विसर्जन’ का पायु (गुदा), मार्गों का चरण, व वेदों का आश्रय वाणी है, उसी प्रकार सभी ‘आत्माओं’ का आश्रय – परमात्मा है।’
सुंदरता/ कुरूपता हमारे दृष्टिकोण (angle of vision) पर निर्भर करता है। ‘सत्यं शिवम् सुंदरम‘ – में कुरूपता कहां!?? अतः तन्मात्रा (शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श) साधना में हमें उस सत्य/ शिव/ सुंदर/ ईश/ ब्रह्म (तत् सवितु🙂 … को धारण (वरेण्यं) करना है।
जब तक ‘द्वैत‘ का भाव बना रहता है, तब तक वह परमात्मा दूरी बनाये रखता है, किन्तु ‘अद्वैत‘ भाव के आते ही आत्मा, परमात्मा में लीन हो जाता है, अर्थात् उसे अपनी आत्मा से ही जानने का प्रयत्न करो।

पंचम ब्राह्मण. मधुविद्या अर्थात् आत्मविद्या का वर्णन है।
वह परमात्मा एक होते हुए भी माया के कारण अनेक रूपों वाला प्रतिभासित होता है।
समस्त वायु, आदित्य, दिशाएं, चन्द्रमा, विद्युत, मेघ, आकाश, धर्म, सत्य व मनुष्य मधु रूप अर्थात् आत्म रूप हैं। सभी में वह विनाशरहित, तेजस्वी आत्मा (परमात्मा का सूक्ष्म अंश) विद्यमान है। यह ‘आत्मा’ समस्त जीवों का मधु है व जीव इस आत्मा के मधु हैं। इसी में वह तेजस्वी वर अविनाशी पुरुष ‘परब्रह्म’ के रूप में स्थित है। वह ब्रह्म – कारण विहीन, कार्य विहीन, अन्तर और बाहर से विहीन, अमूर्त रूप है। इसी ब्रह्म स्वरूप आत्मा को जानने अथवा इसके साथ साक्षात्कार करने का उपदेश सभी वेदान्त देते हैं अत: मधुप – उस आत्मा का चिन्तन करके ही, परमात्मा तक पहुंचना चाहिए।

षष्ठम ब्राह्मण. मधुकाण्ड की गुरु-शिष्य परम्परा का वर्णन किया गया है।
उस सर्वशक्तिमान परमात्मा की जिस-जिस ने अनुभूति की, उसे उसने उसी प्रकार अपने शिष्य को दे दिया। किसी ने भी उस पर एकाधिकार करने का प्रयत्न नहीं किया।
ऋषि गौपवन, कौशिक, गौतम, शाण्डिल्य, पराशर, भारद्वाज, आंगिरस, आथर्वण, अश्विनी कुमार आदि का उल्लेख है।

प्रश्नोत्तरी सेशन

जब तक द्वैत का भाव रहता है तब तक आत्मा को ही आत्मा के द्वारा जाना जाता है। अद्वैत भाव उदित होने पर – ‘एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’ अर्थात् आत्म भाव परमात्म भाव में परिणत/लीन हो जाता है।

ऋषि याज्ञवल्क्य जी के दो पत्नियां/ शक्ति स्वरूपा – मैत्रेयी व कात्यायनी – परा व अपरा विद्या का सुचक हैं।

मैत्रेयी जी की जिज्ञासा व याज्ञवल्क्य जी का समाधान – गुरू-शिष्य संवाद द्वारा ज्ञान का प्रकाश सर्व सुलभ है। उपनिषदों में इसी प्रश्नोत्तरी क्रम के द्वारा आत्म ज्ञान/ ब्रह्म ज्ञान का प्रकाश सभी हेतु उपलब्ध किया गया है।

कर्म के अनुसार जीवात्मा – कलेवर (आवरण) को धारण करती हैं @ गहणाकर्मणोगति। आत्मा – परमात्मा का सुक्ष्म अंश होने के कारण परमात्म स्वरूप ही हैं।

साधक का उद्देश्य प्रत्येक स्थिति में आत्म/ परमात्म भाव में रहना है जिसका सुत्र गीताकार देते हैं – हे अर्जुन! आप युद्ध भी करो और मेरा स्मरण भी।

महिषासुर – वे व्यक्तित्व हैं जो अंदर से कुछ हैं व बाहर से कुछ अर्थात् ‘मनसा, वाचेण कर्मणा’ – एकरूपता नहीं है।
चामर – वे व्यक्तित्व हैं जो जीव के केवल बाह्य कलेवर शरीर को देखकर आचरण करते हैं उनकी पहूंच आत्म तत्त्व तक नहीं होती है।
सहयोगी/ सुघर/ परमार्थी – सुर/ देवता हैं तो असहयोगी/ अस्त-व्यस्त/ स्वार्थी – असुर हैं। हम संतुलन का माध्यम बनें – इस तथ्य का स्मरण बनाये रखना है।

हम युग परिवर्तन में प्रेरणाओं‌ को धारण करें और प्रसार का माध्यम बनने हेतु प्रयासरत (dutiful) रहें। ‘हम बदलेंगे – युग बदलेगा’/ ‘हम सुधरेंगे – युग सुधरेगा’ @ “आत्मसुधार ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है।”

एक ही ब्रह्म हैं किंतु सब देवों के आवाह्न का अर्थ ब्रह्म की अनंत शक्तियों/ गुणों/ आदर्शों से है।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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