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Brihdaranyak Upnishad (बृहदारण्यक उपनिषद्) – 3

Brihdaranyak Upnishad (बृहदारण्यक उपनिषद्) – 3

PANCHKOSH SADHNA नवरात्रि साधना सत्र – Online Global Class – 19 Oct 2020 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram – प्रशिक्षक Shri Lal Bihari Singh

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: बृहदारण्यक उपनिषद्-3

Broadcasting. आ॰ नितिन आहुजा जी

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

विदेहराज जनक – ब्रह्मज्ञानी/ ब्रह्मनिष्ठ/ जीवन-मुक्त थे। ऋषि-मुनि, त्रिदेव, देवतागण आदि सपत्नीक हैं। अतः गृहस्थ जीवन अध्यात्मिकता में बाधक नहीं है। सद्गृहस्थ परम सन्यासी हो सकते हैं।
साधना से जो सिद्धि (सफलता) मिलती है उससे चिपकाव ही आत्मसाक्षात्कार में बाधक बनते हैं। “आयुः, प्राणं, प्रजां, पशुं, कीर्तिं, द्रविणं” – आदि का उपयोग धरा को स्वर्ग (पदार्थ जगत) बनाने में किया जाता है। ‘ब्रह्मवर्चसं’ – आध्यात्मिक उपलब्धि है।
अश्वमेध – अश्व अर्थात् फुलाना/ विस्तार, मेध @ मेधा अर्थात् ज्ञान। अश्वमेध का एक अर्थ ज्ञान का विस्तार होता है। हमें अपने घर में library की व्यवस्था जरूर रखनी चाहिए।

बृहदारण्यक उपनिषद्. तृतीय अध्याय में 9 ब्राह्मण हैं। इसमें विदेह राजा जनक (ब्रह्मवेत्ता) के ज्ञान-यज्ञ में विभिन्न तत्त्ववेत्ताओं द्वारा पूछे गए प्रश्न का ऋषि याज्ञवल्क्य जी ने उत्तर दिया है। इसे भारतीय तत्त्व दर्शन का सार (निचोड़) भी कह सकते हैं।
विदेहराज जनक ने प्रजा में ब्रह्म ज्ञान के विस्तार हेतु – 1000 स्वस्थ गायों के सीगों में लगभग 100 ग्राम स्वर्ण बंधवा दिया और सभी यज्ञ में सम्मिलित विद्वानों को कहा कि जो भी सर्वाधिक ब्रह्मनिष्ठ हैं, वह इन गायों को ले जाये। किसी का भी साहस नहीं हुआ, तो महर्षि याज्ञवल्क्य जी ने अपने एक शिष्य सामश्रवा से उन गायों को हांक ले जाने के लिए कहा।
इससे अन्य विद्वान क्रोधित हो चीखने – चिल्लाने लगे कि यह हमसे सर्वश्रेष्ठ कैसे है? तब उनके मध्य शास्त्रार्थ हुआ।

प्रथम ब्राह्मण. सर्वप्रथम याज्ञवल्क्य जी ने यज्ञ-होता अश्वल जी के प्रश्नों के उत्तर दिये।
होता‘ – वाणी द्वारा मन्त्रों व यज्ञ अग्नि द्वारा परम ‘ब्रह्म’ का ध्यान से ‘नाद-ध्वनि’ उत्पन्न करता है, वह उस नाद-ध्वनि (नाद-ब्रह्म) द्वारा अमरता को प्राप्त करता है। ‘होता’ यज्ञ का पुरोहित होता है, वह यज्ञ में वाणी द्वारा ‘अक्षर ब्रह्म’ (ॐ) की ही साधना करता है।
साधक – मन की आंखों से ‘इड़ा’ (चन्द्र) व पिंगला (सूर्य) नाड़ियों का भेदन करके सुषुम्ना में लीन होकर – जीवन्मुक्त हो जाता है। उसे रात का अन्धकार व दिन का प्रकाश एक समान ही प्रतीत होता है। गुरूदेव ने कहा “जीवित वही है जिसका मस्तिष्क – ठंडा व रक्त – गर्म है।
यज्ञ की 3 आहुति ‘उपासना, साधना व अराधना‘ हैं।
साधक – प्राणायाम के अभ्यास से श्वास को जीत लेता है, फलस्वरूप समस्त भौतिक विकार नष्ट; इन विकारों का नष्ट होना ही अमरता है।

द्वितीय ब्राह्मण. जरत्कारू के पुत्र आर्तभाग जी व ऋषि याज्ञवल्क्य जी के मध्य हुए शास्त्रार्थ का वर्णन है।
8 ग्रह व 8 ही अतिग्रह – ‘प्राण- ग्रह व अपान – अतिग्रह’, ‘वाक् शक्ति – ग्रह व नाम – अतिग्रह’, ‘रसना – ग्रह व रस – अतिग्रह’, ‘नेत्र – ग्रह व कामना – अतिग्रह’, ‘हाथ – ग्रह व कर्म – अतिग्रह’, ‘त्वचा – ग्रह व स्पर्श – अतिग्रह’।” ये एक-दूसरे के पूरक हैं। तन्मात्रा साधना से इन तथ्यों का बोधत्व किया जा सकता है।
अग्नि ही मृत्यु है और वह जल का भोजन है। इस तथ्य को जानने वाला मृत्यु पर विजय (अमरता) प्राप्त कर लेता है।’
मृत्यु के बाद भी ‘नाम’ पुरुष को नहीं छोड़ता। नाम उसके शुभ या अशुभ कर्मों से जुड़ा रहता है @ गहणाकर्मणोगति।

तृतीय ब्राह्मण. ऋषि याज्ञवल्क्य जी लाह्य के पुत्र भुज्यु जी के प्रश्नों के उत्तर देते हैं।

चतुर्थ ब्राह्मण. ऋषि याज्ञवल्क्य जी चक्र-पुत्र उषस्त जी के प्रश्नों के उत्तर देते हैं।
आत्मा ही सभी जीवों के भीतर है। प्राण से जीवन प्रक्रिया है, वही प्रत्यक्ष ब्रह्म का स्वरूप ‘आत्मा’ है। ‘आत्मा’ ही सर्वान्तर ब्रह्म है और शेष सब कुछ नाशवान है।’

पंचम ब्राह्मण. कहोल ऋषि व याज्ञवल्क्य जी के मध्य शास्त्रार्थ का विवरण है।
‘आत्मा’ ही सर्वान्तर में प्रतिष्ठित, ‘भूख, प्यास, जरा, मृत्यु, शोक व मोह’ से परे है। आत्म बोधत्व के बाद कोई इच्छा शेष नहीं रहती i.e. मोक्ष
परमेश्वरस्तुतिर्मौनं” – आत्म-साधक वाणी का दुरूपयोग नहीं करते हैं। बड़बोलापन शक्ति का अपव्यय मात्र है।

षष्ठम ब्राह्मण. वचक्रु – सुता (पुत्री) गार्गी व ऋषि याज्ञवल्क्य जी के मध्य प्रश्नोत्तर है।
‘जल – वायु में, वायु – अन्तरिक्ष लोक में, अन्तरिक्ष – गन्धर्व लोक में, गन्धर्व लोक – आदित्य लोकों में, आदित्य लोक – चन्द्र लोकों में, चन्द्र लोक – नक्षत्र लोकों में, नक्षत्र लोक – देव लोकों में, देव लोक – इन्द्र लोक में, इन्द्र लोक – प्रजापति लोक में व प्रजापति लोक – ब्रह्म लोक में ओत-प्रोत है।’

सप्तम ब्राह्मण. आरुणि पुत्र उद्दालक ऋषि व महर्षि याज्ञवल्क्य के बीच शास्त्रार्थ का विवरण है।
‘आत्मा’ – अविनाशी, अन्तर्यामी व ‘नेति नेति’ है। वह “जल, अग्नि, अन्तरिक्ष, वायु, द्युलोक, आदित्य, समस्त दिशाओं, चन्द्र, तारों, आकाश, अन्धकार, प्रकाश, समस्त भूतों, प्राण, वाणी, नेत्रों, कानों, मन, त्वचा, विज्ञान व वीर्य के सूक्ष्म रूप” – में निवास करता है। केवल ‘आत्मा’ द्वारा ही उस अन्तर्यामी व अविनाशी ‘ब्रह्म’ को साक्षात्कार किया जा सकता है।
अगर साधक के अंदर दोष – दृष्टि है वह अध्यात्मिकता के नर्सरी से भी अछूता है क्योंकि ईश्वरीय पसारे इस सृष्टि/ ब्रह्माण्ड में सबका मूल अविनाशी तत्त्व – ईश/ आत्मा/ परमात्मा ही है।
दृष्टि में तेरे दोष है – दुनिया निहारती रे प्राणी। ममता का अंजन आंज लो बस हो गया भजन – भजन।

अष्टम ब्राह्मण. वाचक्रवी गार्गी द्वारा ऋषि याज्ञवल्क्य जी से पुनः पूछे गए दो प्रश्नोत्तरी का वर्णन है।
‘अक्षर ब्रह्म’ को न जानकर, जो इस लोक में यज्ञादि कर्मकाण्ड करते हैं, हज़ारों वर्षों तक तप करके पुण्य अर्जित करते हैं, वे सभी नाशवान हैं। इस अक्षर ब्रह्म को नहीं जानने वाले – ‘कृपण‘ व जानने वाले – ‘ब्राह्मण‘ हैं।
अक्षर ब्रह्म‘ – स्वयं दृष्टि का विषय नहीं वरन् द्रष्टा है। वह सबकी सुनता है, सबका ज्ञाता है। इसी ‘अक्षरब्रह्म’ में यह आकाश तत्त्व ओत-प्रोत है।’

नवम ब्राह्मण. ऋषि याज्ञवल्क्य जी द्वारा शाकल्य विदग्ध के प्रश्नों‌ के उत्तर का विवरण है।

प्रश्नोत्तरी सेशन

सियाराम मय सब जग जानी‘, ‘ईशाविस्यं इदं सर्वं’, ‘एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’ @ आत्म दर्शन @ आत्म प्रकाश का बोधत्व नहीं होने का मूल कारण – आत्मा के 5 आवरण (चादर) @ पंचकोश का उज्जवल नहीं होना है।
आत्मा स्वयं में ही प्रकाशित हैं। हम बस cleaning (तप/ साधना) से भागते हैं जिस वजह से आत्म दर्शन दुरूह जान पड़ता है।
ऋषि मुनि यति तपस्वी योगी आर्त अर्थी चिंतित भोगी। जो जो शरण तुम्हारी आवें सो सो मनोवांछित फल पावें।।” It depends upon us what we want – विषयानंद (variable) or अखंडानंद (invariable)

आत्मा – षड् ऊर्मि {बुभुक्षा (भूख), पिपासा (प्यास), शोक (दुःख), मोह (सुख), जरा (बुढ़ापा), मृत्यु} से परे हैं। अतः आत्म-साधक षड्-उर्मि से परे होने हेतु ‘तप-योग‘ का अभ्यास करते हैं।

आत्म-परमात्म साक्षात्कार/ दर्शन/ बोधत्व के बाद साधक नहीं गिरता अर्थात् पाप-पुण्य में लिप्त नहीं होता है क्योंकि आत्मा – असंग/ निर्लिप्त हैं।

परिवार निर्माण – सद्गृहस्थ योग हैं। एक सद्गृहस्थ की उपमा 1000 संतों के बराबर से की गई है। प्रज्ञोपनिषद् का अध्ययन किया जा सकता है।

षड् भाव विकार – “जन्म, अस्तित्व, परिणाम, वर्धन, क्षय व नाश” हैं, जब तक जीव इन विकारों के अधीन रहते हैं तब तक आत्म-दर्शन अर्थात् आत्मा के प्रकाश से वंचित रहते हैं।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand (विष्णु आनन्द)

 

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