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Brihdaranyak Upnishad (बृहदारण्यक उपनिषद्) – 4

Brihdaranyak Upnishad (बृहदारण्यक उपनिषद्) – 4

PANCHKOSH SADHNA नवरात्रि साधना सत्र – Online Global Class – 20 Oct 2020 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram – प्रशिक्षक Shri Lal Bihari Singh

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: बृहदारण्यक उपनिषद्-4

Broadcasting. आ॰ नितिन आहुजा जी

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

“एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति” फिर यह सब पसारा क्या है? – ‘एकोऽहमबहुस्याम्’।
संत नानक जी कहते हैं – “अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत के सब बंदे एक नूर तेसब जग उपज्या, कौन भले को मंदे”। एक नाम ओंकार – ‘ॐ’ – अक्षर ब्रह्म/ नाद ब्रह्म। परमात्मा का एक नाम सत्य भी है। सत् पुरूषों की संगति/ सामीप्य को सत्संग कहते हैं।
दारा शिकोह – उपनिषद् स्वाध्याय के बाद गजब की मस्ती में रहते थे। सत्य के बोधत्व के बाद उन्होंने कहा की किसी में कोई फर्क (भिन्नता) नहीं है। उन्होंने कौमी एकता पर बल दिया।

याज्ञवल्क्य जी – यज्ञोपैथी के जनक कहे जाते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य व विदेहराज जनक के संवाद में गुरू-शिष्य परंपरा व इसमें सन्निहित मैत्री भाव भी झलकता है। शिक्षण में प्रश्नोत्तरी के महत्व को दर्शाता है।

रागों (आसक्ति/ कामनाएं) के बीच रह कर भी जो वीतरागी (अनासक्त) हैं वो वैरागी हैं। सद्गृहस्थ परम सन्यासी हैं।

जिस शक्ति से दुर्गति को दूर किया जा सके वो दुर्गा हैं।

वाणी (वाक्) – नाप तौल कर बोलें। “ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोए, औरन को शीतल करे और आपहु शीतल होते।” जिसके मन – मंदिर में गायत्री मंत्र प्रतिष्ठित हैं उनकी वाणी सदैव कल्याणकारी होती है।

प्राणात् श्रद्धा …. -16 कलायें प्राण से ही उत्पन्न हैं।

चक्षु‘ @ दृष्टि – Angle of vision शाश्वत‌ दर्शन‌ का हो तो सर्वत्र सत्य/ ब्रह्म के ही दर्शन होते हैं। इस हेतु प्रज्ञा/ विवेक बुद्धि/ Third eye को जाग्रत करना होता है।

श्रोत्र/ दिशायें – शब्द ही ब्रह्म हैं। संसार के सारे शब्द ॐ के ही fluctuations हैं। Be a good listener.

बृहदारण्यक उपनिषद्. तृतीय अध्याय में 6 ब्राह्मण हैं। “महर्षि याज्ञवल्क्य जी एवं विदेहराज जनक” & “याज्ञवल्क्य जी एवं मैत्रेयी” के मध्य संवादों का विवरण है।

प्रथम ब्राह्मण. विदेहराज जनक जी महर्षि याज्ञवल्क्य जी को ‘ब्रह्म’ के विशिष्ट स्वरूपों के बारे में बताते हैं।
जनक जी ने कहा “शिलिन-पुत्र शैलिनी जी ‘ब्रह्म’ को ‘वाक्‘ (वाणी) रूप, शुल्ब-पुत्र उदंक जी ने ‘प्राण‘ रूप, वृष्ण-पुत्र बर्कु जी ने ‘चक्षु‘ रूप, भारद्वाज गोत्र उत्पन्न गर्दभीवीपीत ने ‘श्रोत्र‘ रूप, जबाला-पुत्र सत्यकाम ने ‘मन‘ रूप, विदग्ध शाकल्य ने ‘हृदय‘ को – ब्रह्म रूप माना है।
महर्षि याज्ञवल्क्य जी ने ब्रह्म के सभी रूपों का समर्थन किया साथ ही उनके आयतन (वाक्, प्राण‌, चक्षु, श्रोत्र, मन व हृदय) व प्रतिष्ठा (आकाश) को भी समझाया।
वाक् ही प्रज्ञता, प्राण ही प्रियता, चक्षु ही सत्यता, श्रोत्र (दिशाएँ) ही अनन्तता हैं, मन ही आनन्दता व हृदय ही स्थितता हैं।

द्वितीय ब्राह्मण. विदेहराज जनक महर्षि याज्ञवल्क्य से उपदेश हेतु निवेदन करते हैं।
याज्ञवल्क्य जी कहते हैं – “पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, उपर व नीचे – संपूर्ण दिशाएँ – संपूर्ण प्राण हैं। वह ‘नेति-नेति’ रूप से वर्णित आत्मा – ‘अग्रह्य’ (ग्रहण नहीं किया जाता), ‘अशीर्य’ (नष्ट नहीं होता), ‘असंग’ (उसका संग नहीं होता), ‘अबद्ध’ (व्यथित व क्षीण नहीं होता) है। हे जनक ! आप अभय हैं।

तृतीय ब्राह्मण. विदेहराज जनक व महर्षि याज्ञवल्क्य जी मध्य ‘आत्मा‘ के स्वरूप को लेकर गहन संवाद है।
याज्ञवल्क्य जी राजा जनक जी के प्रश्न‌ के उत्तर में – ज्योति – ‘आदित्य’ (सूर्य) से ही आती है; सूर्य के अस्त होने पर ‘चन्द्रमा’ के प्रकाश से, चन्द्रमा के अस्त (कृष्ण पक्ष) होने पर ‘अग्नि’ के सहारे, अग्नि भी शान्त पड़ जाये तो वाणी से प्रकाश प्राप्त कर मानव देखता – सुनता कर्म करता है। किंतु जब ‘सूर्य, चन्द्र, अग्नि व वाणी’ ये चारों भी न हों, तो वह आत्म-ज्योति @ आत्मा के प्रकाश @ अखण्ड ज्योति से देखता – सुनता व कर्म करता है।

चतुर्थ ब्राह्मण. शरीर छोड़ने से पहले ‘आत्मा’ व ‘शरीर’ की क्या स्थिति होती है, उसका वर्णन है।
स वा अयमात्मा ब्रह्म …” – वह यह आत्मा ब्रह्म है। वह “विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय, चक्षुर्मय, श्रोत्रमय, पृथ्वीमय, जलमय, वायुमय, आकाशमय, तेजोमय, अतेजोमय, काममय, अकाममय, क्रोधमय, अक्रोधमय, धर्ममय, अधर्ममय व सर्वमय (omnipresent)” है।
लिंग अर्थात मन जिसमेंं अत्यन्त आसक्त होता है, उसी फल की अभिलाषा से कर्म करने वाले कर्मफल प्राप्त कर उस लोक से कर्म करने के लिए पुनः इस लोक में आ जाता है @ गहणाकर्मणोगति
अब जो कामना न करनेवाला पुरुष है, जो ‘अकाम, निष्काम, आप्तकाम व आत्मकाम’ होता है, उसके प्राणों का उत्क्रमण नहीं होता, वह ब्रह्म ही रहकर ब्रह्म को प्राप्त होता है।

पंचम ब्राह्मण. याज्ञवल्क्य व मैत्रेयी संवाद:-
द्वैत‘ (duality) भाव में – अन्य अन्य को सूँघता (smells), देखता (sees), सुनता (hears), रसास्वादन (tastes), अभिवादन (salutes) जानता (knows), मनन (thinks) व स्पर्श (touches) – करता है।
किन्तु जहाँ ‘अद्वैत‘ (oneness) है, जिसके लिए सब आत्मा (self) ही हो गया है – वहाँ किसके द्वारा – “किसे सूँघे, किसे देखे, किसे सुने, किसका रसास्वादन, किसका अभिवादन, किसका मनन, किसका स्पर्श, एवं किसे जाने”?
जिसके द्वारा इस सबको जानता है, उसे किसके द्वारा जाने? वह यह ‘नेति-नेति’ रूप से वर्णन किया हुआ आत्माअग्रह्य (imperceptible) ‘अशीर्य‘ (undecaying),’असंग‘ (unattached), ‘अबद्ध‘ (unfettered) है।
हे मैत्रेयी! विज्ञाता (Knower) को किसके द्वारा जाने? इस प्रकार तुझे उपदेश कर दिया गया। अरी! मैत्रेयी निश्चय जान, इतना ही अमृतत्व (immortality) है, एसा कहकर याज्ञवल्क्य जी परिव्राजक हो गये।

षष्ठ ब्राह्मण. गुरु-शिष्य परम्परा का अद्भुत अप्रतिम वर्णन है। कौशिक, शाण्डिल्य, गौतम, उद्दालक, जाबालि, पराशर, आत्रेय, गालव, अश्विनीकुमार व दधीचि आदि ऋषियों का विशेष वर्णन है।

प्रश्नोत्तरी सेशन

आकाश infinite है उसकी कोई सीमा नहीं है। हम अपनी पहुंच तक उसे limitations दे देते हैं।

केवल अविद्या (सांसारिकी/ भौतिकी) अथवा केवल विद्या (आत्मिकी) – दोनों अंधेरे के गर्त में जाते हैं। अतः दोनों “विद्यां च अविद्यां च” को एक साथ जानें अर्थात् स्वयं को जानें व धरती को स्वर्ग बनायें।
अकाम, निष्काम, आप्तकामआत्मकाम” अर्थात् Dutiful रहते हुए आत्म स्वरूप (अग्रह्य, अशीर्य, असंग, अबद्ध) का स्मरण रखें। गीताकार कहते हैं “हे अर्जुन! आप युद्ध भी करो व मेरा स्मरण भी”।

ईश्वर – चेतनात्मक हैं तो सृष्टि भी ईश्वरीय पसारा है; अतः अध्यात्म व विज्ञान दोनों को साथ लेकर चलने से ही ईश्वर की सर्वव्यापकता का बोधत्व होता है। विज्ञानमयकोश में ग्रंथि का भेदन अर्थात् त्रिगुणात्मक (सत्व, रज व तम) संतुलन बनाना होता है।

आकाश means अनन्त, ब्रह्म भी अनंत हैं। सब ब्रह्म रूप हैं अतः आकाश सबकी प्रतिष्ठा हैं।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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