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Brihdaranyak Upnishad (बृहदारण्यक उपनिषद्) – 5

Brihdaranyak Upnishad (बृहदारण्यक उपनिषद्) – 5

PANCHKOSH SADHNA नवरात्रि साधना सत्र – Online Global Class – 21 Oct 2020 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram – प्रशिक्षक Shri Lal Bihari Singh

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: बृहदारण्यक उपनिषद्-5

Broadcasting. आ॰ नितिन आहुजा जी

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

गायत्री वा इदं सर्वं‘ यह संपूर्ण सृष्टि प्राण स्वरूप हैं। विश्व के सारे मंत्र, विभूतियां/ ऋद्धि – सिद्धि गायत्री साधना से लभ्य हैं।

कठोपनिषद. यमाचार्य आत्म-साधक नचिकेता जी से कहते हैं – “नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम्॥२३॥
यह आत्मा न प्रवचन से, न बुद्धि से और न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है । जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । उसके प्रति वह आत्मा अपने स्वरुप को प्रकट कर देता है ॥२३॥
Note: अध्ययन – जानकारी मात्र ना रहे वरन् स्वाध्याय (चिंतन-मनन + निदिध्यासन) के माध्यम से आपके बोधत्व/ आचरण में उतरे – “उपासना – साधना – अराधना” @ “Approached – Digested – Applied”. क्योंकि आत्मा के प्रकाश में ही आत्मा का अनावरण होता है और आत्मा स्वमेव प्रकाशित हैं। हम बस आत्मा के पंच आवरण – पंचकोश के कालिमा युक्त होने से आत्मा के प्रकाश से वंचित हैं। Cleaning कर transparent बना लें तो बात बने।
सभी तरह के तप – योग साधना आदि का एक मात्र लक्ष्य आत्म – परमात्म साक्षात्कार/ बोधत्व है।

बृहदारण्यक उपनिषद्. पंचम अध्याय में 15 ब्राह्मण हैं। ‘ब्रह्म’ की विविध रूपों में उपासना, मनोमय ‘पुरुष’ व ‘वाणी’ की उपासना, मृत्यु के उपरान्त ऊर्ध्वगति एवं ‘अन्न’ व ‘प्राण’ के विविध रूपों की उपासना-विधि समझाई गयी है। इसके अतिरिक्त ‘गायत्री उपासना’ में जप करने योग्य तीन चरणों के साथ चौथे ‘दर्शन’ पद का भी विवरण है।

प्रथम ब्राह्मण. ‘ब्रह्म’ के सम्पूर्ण रूप का विवेचन:-
वह पूर्ण है व यह पूर्ण है । यह पूर्ण पूर्ण से ही उत्पन्न होता है। इस पूर्ण का पूर्ण निकाल लेने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है।
अक्षर से सम्बोधित अनन्त आकाश/ परम व्योम – ब्रह्म ही है। यह आकाश सनातन परमात्म स्वरूप है। यह ओंकार स्वरूप ब्रह्म ही वेद है।
विज्ञानमयकोश की साधना में ‘सोऽहम‘ साधना को प्रथम प्राथमिकता दी गई है। ‘अहं ब्रह्मास्मि‘ कहने भर से बात नहीं बनेगी प्रत्युत ‘जानने – समझने व जीने’ से बात बनती है। ‘चरित्र – चिंतन – व्यवहार‘ के धनी बनें।

द्वितीय ब्राह्मण. प्रजापति-पुत्र ‘देवता, असुर व मनुष्य’ ब्रह्मचर्य व्रत को धारण कर प्रजापति से उपदेश लेने जाते हैं।
प्रजापति उन सभी को ‘द’ अक्षर का उपदेश दिया एवं उनसे पूछा की आप लोगों ने क्या ग्रहण किया?
देवताओं ने ‘द’ का अर्थ ‘दमन‘ समझा। चित्त, इन्द्रियों आदि को संयमित कर दुरूपयोग (misuse) को रोकें व सदुपयोग (good use) करें @ सत्प्रवृत्ति संवर्द्धनाय – दुष्प्रवृत्ति उन्मूलनाय
जब-जब देवता इन्द्रिय लिप्साओं के वशीभूत हो अमर्यादित आचरण में संलिप्त हुए तब-तब असुरत्व ने उन्हें अपने अधीन कर लिया।
असुरों ने ‘द’ अर्थ ‘दया‘ समझा। वे अपनी हिंसात्मक गतिविधियों को छोड़ दया करना सीखें।
असुर शक्तिशाली किंतु आक्रामक स्वभाव के हैं। उनके पराक्रम पर विवेक बुद्धि/ प्रज्ञा/ सजन्नता का नियंत्रण नहीं है। पदार्थ विज्ञान पर चेतना/ अध्यात्म विज्ञान का नियंत्रण ना हो तो विज्ञान विनाशकारी/ विभीषिका का माध्यम बन जाती हैं।
मनुष्यों ने ‘द’ अर्थ ‘दान‘ समझा। स्वार्थ का रूपांतरण परमार्थ में करें।
प्रजापति के उपदेश/ अनुशासन ‘दम, दानदया‘ को हम जीवन में धारण करें उसे आचरण में उतारें।

तृतीय व चतुर्थ ब्राह्मण. ‘हृदय’ व ‘सत्य’ का विश्लेषण है। हृदय प्रजापति है। ‘हृ‘ का अर्थ समर्पण/ श्रद्धा से है। ‘‘ अर्थात् दान से है व ‘यम्‘ अक्षर का अर्थ गति से हैं यह जानने वाला स्वर्ग (अखंडानंद) का अधिकारी है। यह हृदय ही सत्य स्वरूप ‘ब्रह्म’ है।

पंचम से द्वादश ब्राह्मण. ‘सत्य’ ही आदित्य रूप ब्रह्म हैं। वह “मनोमय पुरुष, विद्युत वाक्, गाय, अग्नि, मरणोत्तर ऊर्ध्व गति, अन्न व प्राण-रूप” में उपास्य हैं।

त्रयोदश ब्राह्मण. ‘उक्थ’ की उपासना प्राण स्वरूप में करें। क्योंकि प्राण ही हमें ऊपर उठाता है। प्राण की उपासना योग (यजु:) के रूप में करें। प्राण ही यजु:, सामबल है।

चतुर्दश ब्राह्मण. ‘गायत्री‘ के तत्त्वज्ञान व माहात्म्य का वर्णन है। गायत्री का चौथा चरण – ‘दर्शत्‘ है जो अनुभूतिगम्य है। यह पद सत्य में स्थित है। गायत्री प्राण में स्थित हैं। गायत्री – गयों (प्राणों) का त्राण करती हैं अतः ‘गायत्री’ कहलाती हैं। गायत्री महाशक्ति का मुख ‘अग्नि‘ है। गायत्री साधक के समस्त पाप भस्म हो जाते हैं एवं वह शुद्ध, पवित्र व अजर-अमर हो जाता है।

पंचदश ब्राह्मण. विश्वदेव से सन्मार्ग पर चलने की प्रार्थना की गयी है @ धियो यो नः प्रचोदयात्

शव यात्रा में यजुर्वेद के ४० वें अध्याय के निम्नांकित मंत्रों को पढ़ते हैं:-
वायुरनिलममृतमथे दं भस्मान्तं शरीरम। ओ३म क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतं स्मर॥१५॥
भावार्थ
: यह जीवन (अस्तित्व) वायु-अग्नि आदि (पंचभूतों) तथा अमृत (सनातन आत्म चेतना) के संयोग से बना है। शरीर तो अंततः भस्म हो जाने वाला है। हे संकल्पकर्ता ! तुम परमात्मा का स्मरण करो, अपनी सामर्थ्य का स्मरण करो और जो कर्म कर चुके हो, उसका स्मरण करो॥
“राम नाम सत्य है” @ ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ @ सृष्टि के हर परिवर्तनशील शील सत्ता में एक अपरिवर्तनशील चैतन्य सत्ता विद्यमान है – वह (तत्) शाश्वत सत्य है।
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यास्मज्जु हुराणमेनो भूयिष्ठां ते नमऽ उक्तिं विधेम॥१६॥
भावार्थ: हे अग्ने (यज्ञ प्रभु) ! आप हमें श्रेष्ठ मार्ग से ऐश्वर्य की ओर ले चलें। हे विश्व के अधिष्ठाता देव, आप कर्म मार्गों के श्रेष्ठ ज्ञाता हैं। हमें कुटिल पापकर्मों से बचाएँ। हम बहुशः नमन करते हुए आप से विनय करते हैं॥

प्रश्नोत्तरी सेशन

उक्थ‘ अर्थात् उर्ध्व (upward), ‘दर्शत्’ अर्थात् तुरीयावस्था, गायत्री का मुख ‘अग्नि’ अर्थात् ब्रह्माग्नि।

आत्मा – जीव शरीर (लिंग/खोल/ आवरण/ layers) में जीवात्मा के रूप में परिभाषित होता है। आवरण हटा तो जन्म – मरण के बंधन से मुक्त। इस हेतु “वासना, तृष्णा व अहंता” का रूपांतरण आनंदमय चैतन्यता में करें।
उदाहरणार्थ: ‘धान’ रोपाई से फसल जन्म लेती है। आवरण हटा दें और तो ‘चावल’ को कितना भी रोपाई करें – फसल नहीं होगी। यहां धान – ‘जीव‘ संज्ञक व चावल – ‘आत्मा‘ संज्ञक हैं। आत्मा जन्म – मरण से परे – अजर, अमर, शांत …. हैं।

चिदाकाश को ‘सुषुम्ना‘ कहते हैं। चिदाकाशवाकाश वाऽहं भजेऽहम – शिव कल्याणकारी हैं।

त्रिगुणात्मक संतुलन अर्थात् त्रिगुण (सत्व,रज व तम) शक्तियों का सदुपयोग करते हुए निर्लिप्त (अनासक्त/ निष्काम/ अकाम/ आप्तकाम/ आत्मकाम/ विदेह/ जीवन-मुक्त) रहना। मान्यताओं से परे होने के बाद ही हम ‘सुषुम्ना’ में जीते हैं।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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