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Brihdaranyak Upnishad (बृहदारण्यक उपनिषद्) – 6

Brihdaranyak Upnishad (बृहदारण्यक उपनिषद्) – 6

PANCHKOSH SADHNA नवरात्रि साधना सत्र – Online Global Class – 22 Oct 2020 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram – प्रशिक्षक Shri Lal Bihari Singh

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: बृहदारण्यक उपनिषद्-6

Broadcasting. आ॰ नितिन आहुजा जी

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

भारत ‘सद्गृहस्थों’ का देश है। सद्गृहस्थों के देवता ‘शिव‘ हैं। कैलाश का चित्रण आदर्श पारिवारिक व्यवस्था का चित्रण है।
‘सत्यं शिवं सुन्दरं’ – ‘शिव’ तत्व समस्त प्राणियों के देवता हैं। प्राणी उत्पन्न होते हैं, जीवन धारण करते हैं, सबका पोषण होता है एवं अंततः शिव तत्व में ही विलीन हो – शांति प्राप्त करते है। शिव – सत्य हैं, कल्याणकारी हैं व सुंदर हैं।

बृहदारण्यक उपनिषद्. षष्ठ अध्याय में 5 ब्राह्मण हैं। ‘प्राण’ की सर्वश्रेष्ठता, ‘पंचाग्नि विद्या’, ‘मन्थ-विद्या’ का उपदेश एवं ‘सन्तान उत्पत्ति – विज्ञान’ का अद्भुत विवरण है।

प्रथम ब्राह्मण. ‘प्राण’ ही ज्येष्ठ व श्रेष्ठ है। ‘वाक्’ ही वसिष्ठ है। ‘चक्षु’ ही प्रतिष्ठा है। ‘श्रोत्र’ ही सम्पदा है। ‘मन’ आयतन है। ‘रेतस’ ही प्रजापति है।
‘प्राण’ से ही वाक्, चक्षु, श्रोत्र, मन व रेतस् का अस्तित्व है। गुरुदेव कहते हैं – प्राण का जागरण महा जागरण है। प्राण को ‘गय’ भी कहते हैं और जो ‘गयों’ (प्राण) का ‘त्राण’ (रक्षा) करती हैं वो ‘गायत्री’ हैं @ ‘गायत्री वा इदं सर्वं’।
सृष्टि निर्माण के क्रम में सर्वप्रथम ‘प्राण – तत्त्व’ की उत्पत्ति हुई। प्राण – जड़ व चेतन का मिश्रण है @ अर्द्ध नारीश्वर। जड़ से पदार्थ जगत व चेतन से जीवात्मा।
अवधूत दत्तात्रेय जी के 24 गुरू में – ‘मकड़ी’ से सीखा कि जैसे एक मकड़ी स्वयं जाल बनाती है, उसमें विचरण करती है और अंत में पूरे जाल को खुद ही निगल लेती हैं। ठीक वैसे ही ईश्वर भी माया से सृष्टि की रचना करते हैं और अंत में उसे समेट लेते हैं।
विद्वान कौन? जिसने ज्ञान को केवल जानकारी में नहीं रखा है प्रत्युत् उसे जीया है। इसे ‘Approached, Digested & Applied’ @ ‘उपासना, साधना व अराधना’ से समझें। हम ‘चरित्र, चिंतन व व्यवहार’ के धनी बनें।
अच्छे ‘श्रोता’ ही अच्छे ‘वक्ता’ होते हैं।

द्वितीय ब्राह्मण. ‘पंचाग्नि विद्या’ का विवरण है। आरूणि उद्दालक पुत्र – ‘श्वेतकेतु’ व जीवल पुत्र – ‘प्रवाहण’ के संवादों से ‘पंचाग्नि विद्या’ की गति बतायी गयी है।
ज्ञानार्जन – शिष्य भाव से होता है। ‘शिष्यत्व’ में श्रद्धा/ समर्पण होता है अभिमान नहीं।
यज्ञ ही भगवान विष्णु हैं। हम हर एक कर्म यज्ञीय भाव से करें। श्रेष्ठ कर्म ही यज्ञ हैं। यज्ञीय प्रक्रिया को ”द्युलोक, मेघ, लोक, पुरूष व स्त्री” को अग्नि स्वरूप मानते हुए उनकी समिधा आदि का विवरण है।

तृतीय ब्राह्मण. इस ब्राह्मण में ‘मन्थ विद्या’ का वर्णन हैं। इसके ज्ञान से सर्व मनोकामना पूर्ण होती है।

चतुर्थ ब्राह्मण. मन्त्र द्वारा ‘गर्भाधान’, ‘गर्भ-निरोध’ व स्त्री प्रसंग – यज्ञीय प्रक्रिया के रूप में वर्णित है। इसमें कहीं भी/ कोई भी अश्लीलता नहीं है। सृष्टि के सृजन व उसके विकास की प्रक्रियाओं को ‘शुद्ध, पवित्र व नैसर्गिक’ माना गया है।
पंचभूतों का रस ‘पृथ्वी’, पृथ्वी का रस ‘जल’, जल का रस ‘औषधियां’, औषधियों का रस ‘पुष्प’, पुष्पों का रस ‘फल’, फलों का रस ‘पुरुष’ एवं पुरुष का सार तत्त्व ‘वीर्य’ है।
नारी (प्रकृति) की योनि – यज्ञ वेदी है। जो व्यक्ति प्रजनन की इच्छा से, उसकी समस्त मर्यादाओं को भली प्रकार समझते हुए रति-क्रिया में प्रवृत्त होता है, उसे प्रजनन यज्ञ का पुण्य अवश्य प्राप्त होता है।
वेद का आदेश है तेजस्वी व संस्कारी संतति को उत्पन्न करें। सद्गृहस्थ को ‘आध्यात्मिक काम विज्ञान’ की जानकारी अवश्य होनी चाहिए। यहाँ ‘काम’ का अमर्यादित आवेग नहीं है। ऐसी अमर्यादित रति-क्रिया करने से पुण्यों को क्षय होना माना गया है। ऐसे लोग सुकृतहीन होकर परलोक से पतित हो जाते हैं।

पांचवां ब्राह्मण. इस ब्राह्मण में गुरु-शिष्य परम्परा का वर्णन मात्र है।

प्रश्नोत्तरी सेशन

अन्नो वै ब्रह्म“। ब्रह्म ही ब्रह्म को खाता है। ब्रह्मज्ञानी/ ब्रह्मनिष्ठ स्तर के ऋषि, मुनि, तपस्वी/ साधक के क्रियाकलाप आसक्ति परक नहीं वरन् उद्देश्यपूर्ण होते हैं। विश्वामित्र जी का चांडाल के यहां कुत्ते के मांस को खाना इस तरह समझा जा सकता है। यह वहां की स्थिति है जहां सारे भेद मिट जाते हैं – ‘अभेद दर्शन ज्ञानं’। जब तक वह उच्चतम स्थिति ना आ जाए तब तक ‘ऋतभोक्, मितभोक् व हितभोक्’ का ख्याल रखा जा सकता है।

यदि हम ‘रति-क्रिया‘ (sex) भोग बुद्धि से करते हैं तो वह अमर्यादित/ प्राण-क्षरण हैं और योग बुद्धि से करें तो मर्यादित। क्रिया वही है बस भावनाओं का फर्क है।
गांव गांव में शिवलिंग की स्थापना/ प्राण प्रतिष्ठा का संदेश है की प्रजनन ऐसा हो की कार्तिकेय व गणेश जैसे पुत्र उत्पन्न हों।

सृष्टि क्रम को बनाए रखने हेतु ‘प्रजनन यज्ञ‘ आवश्यक है। संसार के सारे ब्रह्मवेत्ता भी माता-पिता की संतति रहे हैं।
जगतगुरु शंकराचार्य को भी मंडन मिश्र की पत्नी भारती देवी ने ‘काम विज्ञान’ पर निरूत्तर कर दिया। फिर शंकराचार्य जी ने परकाया गमन द्वारा मृत राजा के शरीर में प्रवेश कर ‘काम विज्ञान’ को जाना।
ऋषि-मुनि, त्रिदेव, देवता सपत्नीक रहे हैं। कर्म बन्धन नहीं हैं वरन् हमारी मान्यतायें बन्धनकारी होते हैं।
सृष्टि की उत्पत्ति का मूल ही ‘आनन्द’ है। विषयानंद का अखंडानंद में रूपांतरण हेतु सदुपयोग (good use) करें व दुरूपयोग (misuse) से बचें।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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