Chhandagyopnishad – 1
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 28 Feb 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
Please refer to the video uploaded on youtube.
sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: छान्दोग्योपनिषद् – 1
Broadcasting: आ॰ अंकुर जी
आ॰ चन्दन प्रियदर्शी भैया
‘नाम‘ के अनुरूप इस उपनिषद् का आधार ‘छन्द:’ है। सनातन सत्य को यहां ‘छन्द’ या ‘साम’ या ‘उद्गीथ’ के रूप में व्यक्त किया गया है
प्रथम अध्याय
उद्गीथ साधना की व्याख्या की गई है। ॐ को सभी रसों में सर्वोत्तम बताया गया है।
देवासुर संग्राम। पदार्थ – प्रति पदार्थ (मैटर – एन्टी मैटर), सर्जक – मारक, सत्प्रवृत्ति – दुष्प्रवृत्ति। ये संग्राम चलता रहता है। यह सृष्टि की गतिशीलता को बनाये रखता है। साम्यावस्था ही प्रलय है। आसुरी प्रभाव से बचने के लिए उद्गीथ साधना का विधान है।
‘कर्म‘ से चित्त की शुद्धि होती है। ‘भक्ति’ भाव से हमें कर्म करनी चाहिए। अंत में ‘कर्म’ का ही ‘ज्ञान’ में लय हो जाता है।
सब भूतों में एक ही ‘प्राण’ है। मानव शरीर में ‘प्राण’ ही मन की इच्छाओं को अन्नमय शरीर से ‘कार्य’ में परिणत करता है। अतः जो मनुष्य जैसा सोचता है वैसा करता है और जैसा करता है वैसा बन जाता है।
तृतीय खण्ड में ‘उद्गीथ’ के अर्थ की व्याख्या की गई है।
‘देवों‘ ने वेद त्रयी का आश्रय लिया अर्थात् वेदाचार को व्यवहार में लाया जिससे उनकी चित्त की शुद्धि हुयी।
द्वितीय अध्याय
‘ॐ‘ ही उद्गीथ @ आदित्य @ मुख्य प्राण हैं इसी रूप में इनकी उपासना, साधना व अराधना करनी चाहिए।
‘सामगान‘ – सोद्देश्य के लिए किया गया श्रेष्ठ गान।
पंचविध व सप्तविध साम उपासना का वर्णन है।
‘धर्म‘ के तीन स्कन्ध – यज्ञ, अध्ययन व दान। इन तीनों की परिणिति अर्थात् सार्थकता ‘अद्वैत’ ब्रह्मलीन होने में है।
श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी
‘उपनिषद्‘ में ‘उप’ और ‘नि’ उपसर्ग हैं। ‘सद्’ धातु गति के अर्थ में प्रयुक्त होती है। ‘गति’ शब्द का उपयोग ज्ञान, गमन और प्राप्ति इन तीन संदर्भो में होता है। यहाँ प्राप्ति अर्थ अधिक उपयुक्त है। उप – सामीप्येन, नि – नितरां, प्राम्नुवन्ति परं ब्रह्म यया विद्यया सा उपनिषद अर्थात् जिस ‘विद्या’ के द्वारा ‘परब्रह्म’ का सामीप्य एवं तादात्म्य प्राप्त किया जाता है, वह ‘उपनिषद्’ है।
सभी साधक ‘उपनिषद्’ स्वाध्याय करें। जो तथ्य अपने अंतः करण को छूते हैं उन्हें डायरी में लिखा जा सकता है।
‘ॐ‘ ही उद्गीथ है। उद्गीथ साधना से प्राण का उर्ध्वगमन होता है।
‘इन्द्रियों‘ की स्थूल शक्ति सीमित हैं। अतः ‘चेतना’ की वृत्तियां अंतःकरण चतुष्टय को अंतर्मुखी कर ‘ॐ’ उद्गीथ साधना की जाती हैं।
‘ॐ‘ ही आदित्य है। संसार में गतिशीलता के पीछे की शक्ति ‘ॐ’ है।
पंचविध साधना – ‘पृथ्वी’ हिंकार है, शुभेच्छा हिंकार है, अन्नमयकोश की साधना हिंकार है। ‘अग्नि’ प्रस्ताव है – प्राणमयकोश साधना है। ‘अन्तरिक्ष’ उद्गीथ है – मनोमयकोश की साधना। ‘आदित्य’ प्रतिकार है – विज्ञानमयकोश की साधना। ‘द्युलोक’ निधन है – आनंदमयकोश की साधना। फिर अधोमुख। प्रसवन व प्रतिप्रसवन की क्रिया से समझा जा सकता है।
‘सुषुम्ना‘/ मुख्य प्राण में रहकर किये गये कार्य (इड़ा/पिंगला) बंधन का कारण नहीं बनते। सुषुम्ना में आत्म-भाव जाग्रत रहता है।
वेदो वै अनंताः – शब्द के अनंत अर्थ होते हैं। जिस अर्थ के साथ साधक सहजता संग उर्ध्वगमन करता है वो उसके लिए परम सत्य है। ‘जड़’ व ‘चेतन’ को साथ लेकर चलें@ विद्यां च अविद्यां च।
प्रश्नोत्तरी सेशन
प्रणाम/ अभिवादन/ नमन – वंदन में ‘ॐ’ का प्रयोग और इसके अर्थ का भाव ‘चिंतन – मनन – मंथन’ अद्भुत रूप से सकारात्मकता का समावेश, विधेयात्मक चिंतन का विकास, मौन की सार्थकता व शब्दातीतं ‘अद्वैत’ तक का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है।
साधो! सहज समाधि भली।
गुरु प्रताप भयो जा दिन से सुरति न अनंत चली॥
आँखन मूँदूँ कानन रुँदूँ, काया कष्ट न धारुँ।
खुले नयन से हँस-हँस देखूँ सुन्दर रुप निहारुँ॥
कहूँ सोई नाम, सुनूँ सोई सुमिरन, खाउँ पीउँ सोई पूजा गृह उद्यान एक सम लेखूँ भाव मिटाउँ दूजा॥
जहाँ-जहाँ जाऊँ सोई परिक्रमा जो कछु करूं सो सेवा। जब सोउँ तब करूं दंडवत, पूजूँ और न देवा॥
शब्द निरंतर मनुआ राता, मलिन बासना त्यागी।
बैठत उठत कबहूँ न विसरै, ऐसी ताड़ी लागी॥
कहै कबीर यह उन मनि रहनी सोई प्रकट कर गाई। दुख सुख के एक परे परम सुख, तेहि सुख रहा समाई॥
जड़-चेतन दोनों का मिश्रण यह चराचर जगत है। देवासुर संग्राम में देवों का विजय आत्मिकी का पदार्थ जगत पर नियंत्रण है। दोनों शक्तियां – सृष्टि की गतिशीलता हेतु आवश्यक हैं। ‘आसक्ति’ (लोभ, मोह व अहंकार) असुरत्व को तो ‘अनासक्त’ देवत्त्व का संवर्धन करती हैं।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
No Comments