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Chhandagyopnishad – 2

Chhandagyopnishad – 2

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 07 Mar 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: छान्दोग्योपनिषद् – 2

Broadcasting: आ॰ अंकुर जी

आ॰ चन्दन प्रियदर्शी जी

तृतीय अध्याय

1-5 खण्ड – ‘आदित्य’ ही परब्रह्म है। आदित्य के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर व उर्ध्व में स्थित रसों को मधुमक्खियों (bees) के छत्ते (bee-hive) के द्वारा प्रतीकात्मक (रूपक) समझाया गया है। सूर्य के समस्त दृश्य, स्थूल रंगों (7 रंग) के साथ सूक्ष्म चेतना प्रवाह से जुड़े हैं। ओंकार ‘ॐ’ रूप यह आदित्य ही देवों का ‘मधु’ (honey) है। ‘ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद व अथर्वेवेद’ की ‘ऋचाएं’ ही मधुमक्खियां हैं, ब्रह्म ‘पुष्प’ हैं और ‘सोम’ ही अमृत-रूप ‘जल’ है। इस ब्रह्माण्ड में आदित्य की जो दृश्य प्रक्रिया (Visual process) चल रही है, उसके पीछे ‘चैतन्य’ का संकल्प अथवा आदेश ही कार्य कर रहा है।

6-10 खण्ड –  ‘सूर्य’ के अमृत-प्रवाहों के प्रकट होने व उन प्रवाहों का वर्णन है। वसुओं (प्राणों – प्राणानां वसु:) द्वारा प्रवाहित अमृत तत्त्व को साधकों के मन में स्थित वसु (वसुणां रूद्रः) ही जान पाते हैं। विराट चेतना में स्थित देवों के अंश मनुष्य के भीतर भी स्थित हैं @ ‘यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे’।
अत: वे अपने समानधर्मी  प्रवाहों से साधना द्वारा सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं और अमृत का पान करते हैं @ सायुज्यता / सहधर्मिता। पंचकोशी क्रियायोग उपकरण हैं इस सायुज्यता हेतु।
‘देवगण’ न तो खाते हैं, न पीते हैं वरन् केवल इस अमृत को देखकर ही तृप्त हो जाते हैं। Sunrise & Sunset में विभिन्न दिशाओं से विशिष्ट अमृत-प्रवाहों (प्राणाग्नि, जीवाग्नि, योगाग्नि, आत्माग्नि व ब्रह्माग्नि) के प्रकट होने की बात कही गयी है। यह अमृत-प्रवाह सूर्य की रश्मियों द्वारा साधक के अन्तर्मन तक प्रवाहित होता है और साधक उस परम सत्ता के ज्योतिर्मय स्वरूप को आत्मसात करता है।
संकल्प की शक्ति ‘अग्नि’ है। दिव्य/ श्रेष्ठ कर्म ‘यज्ञ’ हैं। पंचकोश अग्नि कुण्ड हैं। क्रियायोग से पंचाग्नि प्रदीप्त होती हैं। पंचाग्नि विद्या द्वारा क्रमशः एक एक अग्नि कुण्ड को प्रज्वलित करने अर्थात ‘पंचकोश’ के अनावरण से लक्ष्य का वरण होता है भटकाव नहीं बन पड़ता। सुक्ष्मातिसुक्ष्म अहंता को तिरोहित करना होता है अतः क्रमशः
अन्नमयकोश –  अन्नो वै ब्रह्म – तप (आसन, उपवास, तत्त्व-शुद्धि व तपश्चर्या)।
प्राणमयकोश – प्राणो वै ब्रह्म – तप (प्राणायाम, बंध व मुद्रा) – अन्नमयकोश की आत्मा प्राणमयकोश।
मनोमयकोश – मनो वै ब्रह्म – तप (ध्यान, त्राटक, जप व तन्मात्रा साधना) – प्राणमयकोश की आत्मा मनोमयकोश।
विज्ञानमयकोश – विज्ञानो वै ब्रह्म – तप (सोऽहं साधना, आत्मानुभूति योग, स्वर संयम व ग्रंथि भेदन) – मनोमयकोश की आत्मा विज्ञानमयकोश।
आनंदमयकोश – आनंदो वै ब्रह्म – तप (नाद साधना, बिंदु साधना, कला साधना व तुरीय स्थिति) – विज्ञानमयकोश की आत्मा आनंदमयकोश।
आनंदमयकोश की आत्मा – ‘आत्मा’।
‘आत्मा’ की आत्मा – ‘परमात्मा’।

11 खण्ड – ब्रह्मज्ञान किसे देना चाहिए? ‘ब्रह्मज्ञान’ को सुयोग्य शिष्य (eligible) को ही प्रदान करने की बात कहते हैं। जो साधक ‘ब्रह्मज्ञान’ के निकट पहुंच चुका है अथवा उसमें आत्मसात हो चुका है, उसके लिए सूर्य/ब्रह्म न तो उदित होता है, न अस्त होता है। वह तो सदा दिन के प्रकाश की भांति जगमगाता रहता है और साधक उसी में मगन रहता है।

12 खण्ड – ‘गायत्री वा इदं सर्वं’। गायत्री विद्या द्वारा ब्रह्म की उपासना, साधना व अराधना। जो प्राणों का त्राण दे वो महाप्राण ‘गायत्री’ हैं।  जगत् में जो कुछ भी प्रत्यक्ष दृश्यमान है, वह गायत्री ही है। ‘वाणी’ ही गायत्री है और वाणी ही सम्पूर्ण भूत-रूप है। गायत्री ही सब भूतों का गान करती है और उनकी रक्षा करती है। गायत्री ही पृथ्वी है, इसी में सब भूत अवस्थित हैं। यह पृथ्वी भी ‘प्राण-रूप’ गायत्री है, जो पुरुष के शरीर में समाहित है। ये प्राण पुरुष के अन्त:हृदय में स्थित हैं। गायत्री के रूप में व्यक्त परब्रह्म ही वेदों में वर्णित मन्त्रों में स्थित है।

वह जो विराट ब्रह्म है, वह पुरुष के बहिरंग आकाश रूप में स्थित है और वही पुरुष के अन्त:हृदय के आकाश में स्थित है। यह अन्तरंग आकाश सर्वदा पूर्ण, अपरिवर्तनीय, अर्थात् नित्य है। जो साधक इस प्रकार उस ब्रह्म-स्वरूप को जान लेता है, वह सर्वदा पूर्ण, नित्य और दैवीय सम्पदाएं (विभूतियां) प्राप्त करता है।

13 -19 खण्ड – ‘आदित्य’ को ही ‘ब्रह्म’ स्वीकार किया गया है और उसकी परमज्योति को ही ब्रह्म-दर्शन माना गया है। इस ज्योति-दर्शन के पांच विभाग भी बताये गये हैं। यह ब्रह्म-दर्शन मनुष्य अपने हृदय में ही कर पाता है। उस अन्त:हृदय के 5 देवों से सम्बन्धित 5 विभाग हैं:-
पूर्ववर्ती विभाग – प्राण, चक्षु, आदित्य, तेजस् व अन्न।
दक्षिणावर्ती विभाग – व्यान, श्रोत्र, चन्द्रमा, श्रीसम्पदा व यश।
पश्चिमी विभाग – अपान, वाणी, अग्नि, ब्रह्मतेज व अन्न।
उत्तरी विभाग – समान, मन, पर्जन्य, कीर्ति व व्युष्टि (शारीरिक आकर्षण)।
ऊर्ध्व विभाग – उदान, वायु, आकाश, ओज व मह: (आनन्द तेज)।
जो साधक इस प्रकार जानकर इनकी उपासना करता है, वह ओजस्वी और महान् तेजस्वी होता है। स्वर्गलोक के ऊपर जो ज्योति प्रकाशित होती है, वही सम्पूर्ण विश्व में सबके ऊपर प्रकाशित होती है, वही पुरुष की अन्त:ज्योति है, अन्तश्चेतना है। यह सम्पूर्ण जगत् निश्चय ही ब्रह्मस्वरूप है। यह उसी से उत्पन्न होता है और उसी में लय हो जाता है तथा उसी के द्वारा संचालित होता है। राग-द्वेष से रहित होकर ही शान्त भाव से इसकी उपासना करनी चाहिए। यह पुरुष् ही यज्ञ है और प्राण ही वायु हैं। ये सभी को आवास देने वाले हैं। जो भोगों में लिप्त नहीं होता, वही उसकी दीक्षा है।

चतुर्थ अध्याय

एक बार प्रसिद्ध राजा जनश्रुति के महल के ऊपर से 2 हंस बातें करते हुए उड़े जा रहे थे। यद्यपि राजा के महल से ‘ब्रह्मज्ञान’ का तेज प्रकट हो रहा था, तथापि हंसों की दृष्टि में वह तेज इतना तीव्र नहीं था, जितना कि गाड़ीवान ‘रैक्व’ का था। राजा ने हंसों की बातें सुनी, तो रैक्व की तलाश करायी गयी। बड़ी कठिनाई से रैक्व मिला। राजा अनेक उपहार लेकर उसके पास गया, पर उसने ‘ब्रह्मज्ञान’ देने से मना कर दिया। राजा दूसरी बार अपनी राजकुमारी को लेकर रैक्व के पास गया। रैक्व ने राजकन्या का आदर रखने के लिए राजा को ‘ब्रह्मज्ञान’ दिया।

जाबाल-पुत्र सत्यकाम की कथा है। एक बार सत्यकाम ने अपनी माता जाबाला से कहा- ‘माता! मैं ब्रह्मचारी बनकर गुरुकुल में रहना चाहता हूं। मुझे बतायें कि मेरा गोत्र क्या है?’
माता ने उत्तर दिया- ‘मैं युवावस्था में विभिन्न घरों में सेविका का कार्य करती थी। वहां किसके संसर्ग से तुम्हारा जन्म हुआ, मैं नहीं जानती, परन्तु मेरा नाम जाबाला है और तुम्हारा नाम सत्यकाम है। ‘अत: तू सत्यकाम जाबाला के नाम से जाना जायेगा।’ सत्यकाम ने हारिद्रुमत गौतम के पास जाकर कहा- ‘हे भगवन! मैं आपके पास ब्रह्मचर्यपूर्वक शिक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ।’ गौतम ने जब उससे उसका गोत्र पूछा, तो उसने अपने जन्म की साफ-साफ कथा बता दी। गौतम उसके सत्य से प्रसन्न हो उठे। उन्होंने उसे अपना शिष्य बना लिया।

आ॰ भैया ने युग (सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलिकाल आदि) की व्याख्या से समझाया है की हम कैसे ‘मुक्त’ से ‘बंधक’ बन गये।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम्॥२३॥
1-II-23 यह ‘आत्मा’ न प्रवचन से, न बुद्धि से और न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है। जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। उसके प्रति वह आत्मा अपने स्वरुप को प्रकट कर देता है॥

प्रश्नोत्तरी सेशन

ज्ञानार्थ आयें – सेवार्थ जायें‘ ~ ‘ज्ञानार्थ’ की सार्थकता ‘सेवार्थ’ है। जब हम स्वतः अर्थात निःस्वार्थ सेवार्थ भाव में रहते हैं – ‘सतयुग’। जब हमारी ‘भावना’ स्वार्थ/ ‘आसक्ति’ (लोभ, मोह व अहंकार)  से आबद्ध होने लगती है अर्थात ‘चेतना’ अपरीमित/असीमित (infinite) से सीमित (finite/ narrow) होने लगती है तब संकीर्णता के  अनुरूप हम त्रेता, द्वापर व कलिकाल में प्रवेश करने लगते हैं।

ईश्वरीय अनुशासन (साधना) में ईश्वरीय सहचर (उपासना) बन कर्तव्यवान (अराधना) रहें। ‘प्राण’ (5 प्राण व 5 उपप्राण) शरीर से आबद्ध है। ‘चेतना’ अनंत आयामों की यात्रा करती हैं।


ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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