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Chhandagyopnishad – 4

Chhandagyopnishad – 4

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 21 Mar 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: छान्दोग्योपनिषद् – 4

Broadcasting: आ॰ अंकुर जी

आ॰ चन्दन प्रियदर्शी जी

सप्तम अध्याय

इस अध्याय में ऋषि (भगवान) सनत्कुमार देवर्षि नारद जी को ‘प्राण’ के सत्य स्वरूप का ज्ञान कराते हैं।

खण्ड 1-15 – देवर्षि नारद जी शिष्य समर्पण भाव से भगवान सनत्कुमार के पास आत्मज्ञान हेतु प्रस्तुत हैं।
सनत्कुमार जी नारद जी से – विद्यां च अविद्या च, परा व अपरा, संभूति च असंभूतिं च ब्रह्म मान उपासना करो।
‘नाम’ के उपर ‘वाणी’ है क्योंकि वाणी के द्वारा ही नाम का उच्चारण होता है। ‘वाणी’ को ‘ब्रह्म’ रूप माना जा सकता है। वाणी के उपर ‘संकल्प’ है क्योंकि संकल्प से ही ‘मन’ प्रेरित होता है। ‘संकल्प’ से उपर ‘चित्त’ है क्योंकि चित्त ही संकल्प की प्रेरणा देता है। ‘संकल्प’ से उपर ध्यान है क्योंकि ध्यानस्थ चित्त संकल्प की प्रेरणा देता है। ‘ध्यान’ से उपर ‘विज्ञान’ है इससे हमें सत्य व असत्य का ज्ञान होता है।
‘विज्ञान’ से श्रेष्ठ ‘बल’, बल से श्रेष्ठ ‘अन्न’, अन्न से श्रेष्ठ ‘जल’, जल से श्रेष्ठ ‘तेज’, तेज से श्रेष्ठ ‘आकाश’, आकाश से श्रेष्ठ ‘स्मरण’, स्मरण से श्रेष्ठ ‘आशा’ व आशा से श्रेष्ठ ‘प्राण’ हैं क्योंकि ‘प्राण’ से ‘जीवन’ है। 

खण्ड 16-26 – ‘सत्य’ को जानने के लिए ‘विज्ञान’ व ‘विज्ञान’ को जानने के लिए ‘प्रज्ञा बुद्धि’ का उपयोग करना चाहिए। प्रज्ञा बुद्धि के लिए ‘श्रद्धा’ अनिवार्य है @ श्रद्धावान लभते ज्ञानं। व श्रद्धया सत्यमाप्यते। ‘निष्ठा’ से श्रद्धा का जन्म होता है। निष्ठा हेतु ‘कृति’ (work) आवश्यक है। 
निष्ठापूर्वक श्रद्धा संग प्रज्ञा बुद्धि से वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर ‘सत्य’ का बोधत्व किया जाता है @ पंचकोश साधना।
भूमा अर्थात् अहं जगद्वा सकलं शुन्यं व्योमं समं सदा …।

अष्टम अध्याय

खण्ड 1-6 – भौतिक शरीर में स्थित ‘आत्मा’ का वर्णन है। ‘हृदय’ व ‘आकाश’ का तात्विक विवेचन है। यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे @ आत्म-साक्षात्कार से परमात्म-साक्षात्कार किया जा सकता है।

खण्ड 7-15 – देवराज-इन्द्र व असुर-राज विरोचन, आत्म व ब्रह्म ज्ञान की इच्छा से  प्रजापति ब्रह्मा के पास जाते हैं।
विरोचन‘ जी नश्वर शरीर को ही ब्रह्म (आत्मा) स्वरूप मानकर अपनी यात्रा (जिज्ञासा) को विराम दे देते हैं। 
‘इन्द्र’ जी निरंतर चिंतन मनन करते हुए ‘सत्य’ के बोधत्व हेतु ‘पुरूषार्थ’ करते हैं और शिष्य समर्पण भाव से लक्ष्य का वरण करते हैं।

प्रश्नोत्तरी सेशन श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

छान्दोग्य उपनिषद चेतनात्मक उन्नयन की यात्रा है @ न च पुनरावर्तते। संकीर्णता से विस्तृत होने की यात्रा है। विस्तृत अर्थात् अनंत (infinite) की journey है अतः यात्रा अनवरत जारी रखी जाती है @ चरैवेति चरैवेति शुभंकर मंत्र है अपना।
ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय @ आत्मीयता की खेती करें।

एकांगी प्रगति से संतुष्ट नहीं हो जानी चाहिए वरन् यात्रा अनवरत जारी रखी जाती है। ‘सन्तोषं परमं सुखं’ से प्रगति रूक जाए तो आलस्य/ प्रमाद की जननी बन जाती है फलतः ‘सन्तोषं परमं दुःखं’ संतोष दुःख का भी माध्यम बन सकती है।

सर्व खल्विदं ब्रह्म‘ अतः साधक के ‘रणछोड़’ बनने से बात नहीं बनती वरन् साधना/ संघर्ष (सुषुम्ना) द्वारा ‘रणजीत’ (आत्मवत् सर्वभूतेषु) बनने से बात बनती है। 

जीवन‘ साधनामय होने का अर्थ है जीवन-देवता की ‘उपासना, साधना व अराधना’। फलतः ‘दिनचर्या’ की हर एक ‘कृति’ (work) योग @ क्रिया-योग @ कर्म-योग बन जाते हैं।  योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।
श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा व श्रमशीलता के समन्वय से कर्म, बन्धन के नहीं वरन् मुक्ति का माध्यम बनते हैं। मानव जीवन के दो सार्वभौम लक्ष्य – १. मनुष्य में देवत्व का अवतरण (आत्मबोध) व २. धरा पर स्वर्ग का अवतरण (तत्त्वबोध)।

धारणा ‘ईश्वरत्व‘ की हो। गुण, कर्म व स्वभाव परिष्कृत हों। चिंतन, चरित्र व व्यवहार में आदर्शों का समावेश हो।

नमन – वंदन – विलय – विसर्जन @ समर्पण योग जो ज्ञान, कर्म व भक्ति के त्रिवेणी संगम से होकर गुजरती हैं।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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