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Devi Upanishad – 2

Devi Upanishad – 2

PANCHKOSH SADHNA – Gupt Navratri Sadhna – Online Global Class – 13 Jul 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

Broadcasting: आ॰ नितिन जी

SUBJECT:  DEVI UPANISHAD – 2

भावार्थ वाचनआ॰ किरण चावला जी (USA)

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

उपासना, साधना व अराधना‘ की प्रगति साधक के ‘चरित्र, चिंतन व व्यवहार’ में परिलक्षित होती हैं।
उपासना – उत्कृष्ट दृष्टिकोण हेतु,
साधना – चारित्रिक प्रखरता हेतु, व
अराधना – शालीन व्यवहार (आत्मीयता) हेतु।
आत्म-समीक्षा, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण व आत्मविकास‘ को हम साधक के ‘उत्कृष्ट चिंतन, आदर्श चरित्र व शालीन व्यवहार‘ में देख सकते हैं।

गायत्री मंत्र के देवता सविता हैं। ‘कर्म’ सोद्देश्य होते हैं। हमारा दृष्टिकोण आत्मकल्याण व लोककल्याण का होना चाहिए।

वही जगदम्बा आठ वसुओं के रूप में हैं, एकादश रुद्र एवं द्वादश आदित्य भी वही हैं। सोम को ग्रहण करने वाले और ग्रहण न करने वाले जितने भी विश्वेदेव हैं, वे सभी जगन्माता के रूप में स्थित हैं। वे ही (जगन्माता) यातुधान (एक तरह के असुर), राक्षस, असुर, पिशाच, यक्ष एवं सिद्ध आदि भी हैं। वे ही ये सत, रज, तम आदि तीनों गुण हैं। वे ही ये ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्रस्वरूपा हैं। वे ही ये प्रजापति, इन्द्र और मनु भी हैं। वे ही ग्रह, नक्षत्र एवं समस्त तारागण हैं तथा वे ही कला-काष्ठादि से युक्त कालस्वरूपिणी हैं। ताप (मनस्ताप) का शमन करने वाली, भोग एवं मोक्ष को प्रदान करने वाली, अनन्त गुणों वाली विजय की अधिष्ठात्री, दोष-विहीन, शरण प्राप्ति के योग्य, कल्याणदायिनी एवं मंगलमयी उन भगवती देवी को हम सर्वदा नमस्कार करते हैं॥१८-१९॥

वसु – संयम के रुद्र – पराक्रम के व आदित्य – तेजस्विता के अधिष्ठाता हैं।  बृहदारण्यक उपनिषद् में – “एवैषामेते त्रयस्त्रिंशत्त्वेव देवाः।” 33 देवता = 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य, इन्द्र एवं यज्ञ।
आठ वसु –  पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, भू, र्भुव और स्व हैं। बृहदारण्यकोपनिषद् के अनुसार पृथिवी, अग्नि, वायु, अन्तरिक्ष, सूर्य, स्वर्ग, चन्द्रमा और नक्षत्र हैं।
एकादश (11 रूद्र) – 5 कर्मेन्द्रियाँ (मुख, हस्त, पाद, उपस्थ और वायु), 5 ज्ञानेन्द्रियाँ (श्रोत्र, नेत्र, नासिका, जिह्वा, त्वक्) और वागिन्द्रिय (मन)।  बृहदारण्यक के कथनानुसार 10 प्राण (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाम, कर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय) और आत्मा ही रुद्र देवता है।
द्वादश (12) आदित्य –  वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ श्रावण, भाद्र, आश्विन, कार्तिक मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन एवं चैत्र हैं।
इन्द्र देवता मेघ हैं और यज्ञ देवता प्रजापति है।
वसु और रुद्र देवताओं की पूजा को नित्य कर्म तथा आदित्य इन्द्र और यश देवताओं की पूजा को नैमित्तिक कर्म कहते हैं।
पंच तत्वों की चेतना को आदित्य, वरुण, मरुत, द्यौ, अन्तरिक्ष कह कर पुकारते हैं। इन्द्र, बृहस्पति, अर्यमा, पूषा, तष्ट्रा, गणेश, अश्विनी, वसु, विश्वे देवा आदि सृष्टि के विभिन्न प्रयोजनों में संलग्न शक्तियाँ ही हैं। चूँकि ये दिव्य हैं, प्राणियों को उनका अपार अनुराग मिलता है, इसलिए उन्हें देवता कहते हैं और श्रद्धापूर्वक पूजा, अर्चना एवं अभिवन्दना करते हैं। यह सभी देवता उस महत्त्व के स्फुल्लिंग हैं जिसे आध्यात्म भाषा में ‘गायत्री’ कह कर पुकारते हैं @ गायत्री वा इदं सर्वं।
“यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे।” आत्मसाधना द्वारा हम स्वयं के भीतर प्रसुप्त देव शक्तियों को जाग्रत कर आत्मकल्याण व लोककल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।

वियत् अर्थात् आकाश एवं ‘ई’ कार से संयुक्त, वीतिहोत्र अर्थात् अग्नि के सहित, अर्द्धचन्द्र (*) से सुशोभित जो देवी का बीज शब्द है, वह समस्त इच्छा-आकांक्षाओं को पूर्ण करने में सक्षम है। इस एकाक्षर स्वरूप ब्रह्म का साधुजन, जो शुद्धचित्त वाले हैं, परमानन्द से युक्त हैं तथा अगाध ज्ञान के सागर हैं, निरन्तर ध्यान करते हैं॥२०-२१॥

वाशक्ति (एँ), माया (हीं), ब्रह्मभू-काम (क्लीं), वक्त्र अर्थात् आकार युक्त छठा व्यञ्जन (चा), सूर्य (म), अवामश्रोत्र – दक्षिण कर्ण (उ) एवं बिन्दु अर्थात् अनुस्वार सहित (मुं), नारायण अर्थात् ‘आ’ से युक्त ‘ट’ कार से तृतीय वर्ण (डा), वायु (य) वही अधर अर्थात् ‘ऐ’ से युक्त (यै) और ‘विच्चे’- यह नवार्ण मन्त्र साधकों को आनन्द एवं ब्रह्मसायुज्य पद प्रदान करने वाला है॥२२-२३॥

हर एक मंत्र के पहले अक्षर ब्रह्म प्रणव ‘ॐ’ को जोड़ते हैं। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। गायत्री चालीसा –  ह्लीं, श्रीं, क्लीं, मेधा, प्रभा जीवन ज्योति प्रचण्ड, शांति कांति जाग्रति प्रगति रचना शक्ति अखण्ड …..।

जो हृदय-कमल के मध्य में विराजमान रहती हैं, जो प्रात:काल के सूर्य की भाँति प्रभावाली, पाश एवं अंकुश धारण करने वाली, सौम्यरूपा, वर एवं अभय मुद्राओं से युक्त हाथ वाली, तीन नेत्रों से युक्त, लाल परिधान वाली तथा भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने वाली हैं। हे देवि ! आप महान् भय का विनाश करने वाली, महासंकट को शान्त करने में समर्थ एवं महान् करुणामयी हैं, मैं आपकी वन्दना करता हूँ॥२४-२५॥

जिनके स्वरूप को ब्रह्मा आदि भी नहीं जानते, इस कारण उन्हें ‘अज्ञेया’ कहा गया है। जिनका अन्त नहीं होता, अतः वे ‘अनन्ता’ हैं। जिनका स्वरूप दृष्टिगोचर नहीं होता, इस कारण उन्हें ‘अलक्ष्या’ कहते हैं। जिनके जन्म का अता-पता नहीं, इसलिए उन्हें ‘अजा’ कहा जाता है। जो एकाकी ही सर्वत्र विद्यमान रहती हैं, इस कारण उन्हें ‘एका’ कहते हैं। जो अकेले ही विश्वरूप में विद्यमान हैं, इसलिए उन्हें ‘नैका’ कहा गया है। अत: वे इन्हीं कारणों से अज्ञेया, अनन्ता, अलक्ष्या अजा, एका और नैका के नाम से जानी जाती हैं॥२६॥

वे समस्त मंत्रों में ‘मातृका‘ अर्थात् मूलाक्षर में प्रतिष्ठित हैं और शब्दों में ‘ज्ञान’ रूप से स्थित हैं। ज्ञान में ‘चिन्मयातीता‘ रूप में और शून्यों में ‘शून्यसाक्षिणी‘ के रूप में रहती हैं। जिनके अतिरिक्त और कुछ भी श्रेष्ठतम नहीं है, ऐसी वे दुर्गा देवी के नाम से प्रख्यात हैं। उन दुराचार का शमन करने वाली, दुर्विज्ञेया एवं भवसागर से पार उतारने वाली दुर्गादेवी को जगत् से भयभीत हुआ मैं प्रणाम करता हूँ॥२७-२८॥

शक्ति संसाधनों का जागरण, उपार्जन कर उनका सदुपयोग करना चाहिए और दुरूपयोग से बचना चाहिए।

इस अथर्वशीर्ष के मन्त्रों का जो मनुष्य पाठ करता है, वह पाँचों अथर्वशीर्षों के जप करने का फलप्राप्त कर लेता है। इस अथर्वशीर्ष को न जानकर जो मनुष्य अर्चा स्थापित करता है, वह सैकड़ों लाखों जप करके भी सिद्धि प्राप्त नहीं कर पाता है। १०८ बार जप करना ही इस पुरश्चरण की विधि कही गई है। जो पुरुष इस उपनिषद् का दस बार भी पाठ कर लेता है, वह उसी क्षण अपने दुष्कृतों से मुक्त होकर महादेवी की कृपा से महान् से महान् दुष्कर कठिनाइयों-मुसीबतों से पार हो जाता है॥२९-३१॥

इसका प्रात:कालीन वेला में पाठ करने से रात्रि में किये हुए पापों का और सायंकाल में पाठ करने से दिन में किये गये दुष्कृत्यों का शमन हो जाता है। दोनों संध्याओं में अध्ययन करने से पाप करने वाला भी पाप-रहित हो जाता है। मध्यकालीन रात्रि में तुरीय संध्या के समय में जप करने से वाणी की सिद्धि मिल जाती है। नवीन प्रतिमा के समक्ष जप करने से देवता का सान्निध्य प्राप्त होता है। अमृतसिद्धि योग में महादेवी के समीप में जप करने से मनुष्य महामृत्यु से पार हो जाता है। जो इस तरह से इस उपनिषद् को जानता है वह महामृत्यु से पार हो जाता है, ऐसी ही यह देव्युपनिषद् है॥३२॥

5 अथर्व शीर्ष – गणपति उपनिषद्, नारायण उपनिषद्, सूर्य उपनिषद्, रूद्र उपनिषद् व देवी उपनिषद्।

जिज्ञासा समाधान

नवार्ण मंत्र – ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।  
 – परब्रह्म सूचक जिनसे यह समस्त जगत व्याप्त हो रहा है।
ऐं – महासरस्वती का बीज मन्त्र। 
ह्रीं – महालक्ष्मी का बीज मन्त्र। 
क्लीं – महाकाली का बीज मन्त्र।
चामुण्डायै – प्रवर्ति अर्थात् चण्ड एवं निर्वृति अर्थात् मुण्ड हैं। ये दोनों भाई काम व क्रोध के प्रतीक माने गए हैं। इनकी संहारक शक्ति चामुण्डा कही जाती हैं। जो स्वयं प्रकाशमान @ आत्मज्ञान @ ब्रह्मज्ञान है।
विच्चे – विच्चे का अर्थ समर्पण या नमस्कार है।

जगत् @ संसार variable हैं इनसे आसक्ति/ चिपकाव (लोभ, मोह व अहंकार) से मुक्ति, आत्मज्ञान (दुर्गति नाशिनी दुर्गा) से संभव बन पड़ती है।

शक्तिएक हैं शक्ति धारायें अनेक हैं। अतः शक्ति धाराओं के नाम की विविधताओं में ना उलझ कर उन सभी के मूल शक्ति को आधार बनाकर लक्ष्य बोध किया जा सकता है।

रूचि‘/ मनोयोग से कार्यकुशलता में अभिवृद्धि होती है फलतः सिद्धि सुलभ हो जाती है। ‘अरूचि’/ बेमन से किये गये कार्य यथोचित फल नहीं देते। विवेकपूर्ण दृष्टिकोण से यथोचित कार्यों में रूचि उत्पन्न की जा सकती है।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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