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Dhyan Bindu Upanishad – 1

Dhyan Bindu Upanishad – 1

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 13 June 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

SUBJECT:  ध्यान बिन्दु उपनिषद् – 1

Broadcasting: आ॰ अंकुर जी

भावार्थ वाचन – आ॰ किरण चावला जी (USA)

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

ध्यान बिन्दु उपनिषद् में अन्नमयकोश से आनंदमय कोश तक की साधना सन्निहित है।  प्रणव ॐ, आत्मा, ब्रह्म, त्रिदेव, त्रयवस्था, प्राण, नाड़ी, चक्रों आदि का विशद वर्णन है। षष्टांग योग (आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा व समाधि) की विधा को समझाया गया है।

सभी जीवों में बीज रूप आत्म तत्त्व है। अंदर बाहर; वह कण कण में संव्याप्त है।

ओमित्येव सुनामध्येय मनघं विश्वात्मनो ब्राह्मणः सर्वेष्वेव हितस्य नामसु बसोरेतप्रधानं मतम्। यं वेदा निगदन्ति न्याय निरतं श्रीसच्चिदानन्दकम् लोकेशं समदर्शिनं नियमिनं चाकार हीनं प्रभुत्व।। भावार्थ: जिसको वेद न्यायकारी, सच्चिदानन्द, संसार का स्वामी, समदर्शी, नियामक व निराकार कहते हैं, जो विश्वात्मा है, उस ब्रह्म के समस्त नामों से श्रेष्ठ नाम, ध्यान करने योग्य “ॐ” यह मुख्य माना गया है।

ध्यान योग‘ से सारे पाप समूह अर्थात् जन्म जन्मान्तरों के पाप/ कुसंस्कारों को नष्ट किया जा सकता है। भर्गो @ दोष-दुर्गुणों, कषाय-कल्मषों को भूंज डालो। अवचेतन मन की cleaning ध्यान योग से संभव बन पड़ता है।
शाण्डिल्य उपनिषद् में दो प्रकार के ध्यान वर्णित हैं – १. सगुण ध्यान व २. निर्गुण ध्यान। सगुण ध्यान आगे ग्रंथि develop कर सकता है। अतः उच्चस्तरीय ध्यान में निर्गुण ध्यान को प्राथमिकता दी जाती है so that ‘भिन्नता’ (differences) का रूपांतरण ‘अभिन्नता’ (non difference) में अर्थात् सायुज्यता से एकत्व @ अद्वैत।
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥ आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥ भावार्थ: ‘सोऽहमस्मि’ (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड वृत्ति है, वही परम प्रचंड दीपशिखा है। जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है॥
अग्नि/ प्रकाश, अन्नमय कोश में प्राणाग्नि, प्राणमय कोश में जीवाग्नि, मनोमय कोश में योगाग्नि, विज्ञानमय कोश में आत्माग्नि व आनंदमय कोश में ब्रह्माग्नि में क्रमशः अपने स्वरूप को परिलक्षित करती हैं।

आत्मा सर्वव्यापक हैं अतः जहां कहीं भी सहजता बनती हो उसका प्रकाशात्मक ध्यान किया जा सकता है। षट्-चक्र भेदन‌ संभव बन पड़ता है।

जो व्यक्ति ॐकार से अनिभिज्ञ है उसे ‘ब्राह्मण’ नहीं कहा जा सकता। ‘प्रणव’ को धनुष ‘आत्मा’ को बाण और ‘ब्रह्म’ को लक्ष्य कहा गया है। बिना प्रमाद करते हुए तन्मयतापूर्वक लक्ष्य का बेधन करना चाहिए। परावर अर्थात् ब्रह्म से सायुज्यता प्राप्त कर लेने पर सभी क्रियाओं से निवृत्ति (मोक्ष) की प्राप्ति होती है।

आत्मानुशासन @ ईश्वरीय अनुशासन में ईश्वर के सहचर बन कर्तव्यवान् रहना ‘कर्मयोग’ है। ‘Approached – digested – realised’ से बात बनती है जिसे ‘उपासना, साधना व अराधना’ से हम समझ सकते हैं। गायत्री त्रिपदा हैं अर्थात् ‘ज्ञान, कर्म व भक्ति’ के समन्वय से बात बनती है। त्रिदेव के ध्यान में ज्ञान, कर्म व भक्ति का भाव रूपेण ‘संगम’ स्थापित किया जा सकता है।

हंस-हंस‘ @ ‘सोऽहं’ @ अजपा गायत्री का जप जीव निरंतर करते रहते हैं। ईश्वरलीन अवस्था में रहना ‘सोऽहं’ साधना है।

जिज्ञासा समाधान

चक्र‘ को शक्ति भंवर की संज्ञा दी गई है। वह सामर्थ्यवान हैं अतः समर्थ चक्रवात @ विद्युत स्फुल्लिंगों को उत्पन्न करने में समर्थ हैं। सविता के तेज में सायुज्यता से उसे सर्वसमर्थ बनाया जा सकता है। सविता – साधक एक @ भक्त – भगवान एक @ एकत्व @ अद्वैत। “प्रखर प्रज्ञा, आदर्श चरित्र व शालीन व्यवहार” त्रिदेव कहे जा सकते हैं। और इनका साधक में वास होना सफलता/ सिद्धि/ लक्ष्य बेध में सुनिश्चित करता है।

सोऽहं” @ “हंस-हंस” @ अजपा गायत्री की ‘क्रिया’ जीव त्रयवस्था (जाग्रत, स्वप्न व सुसुप्ति) में स्वतः करते रहते हैं। इसमें ‘भाव’ का ‘योग’ कर दें तो वह ‘क्रियायोग’ बन जाता है। जो आदित्य रूपी पुरुष तू है वह मैं हूं @  मोको कहां ढुंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में @ साधो सहज समाधि भली @ अहं जगद्वा सकलं शुन्यं व्योमं समं सदा।

शक्तिपात‘ को motivation के अर्थों में लें। गुरु शिष्य को प्रेरणा देते हैं। सविता सर्वभूतानां सर्वभावान् प्रसूयते।

अखंड तैलवत् धारा” को अखण्ड-ज्योति @ ज्ञान-गंगा उपनिषद् के नित्य नियमित स्वाध्याय ….. सायुज्यता के रूप में समझ सकते हैं।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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