Gayatri Hridyam
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 07 Aug 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
SUBJECT: गायत्री हृदयम्
Broadcasting: आ॰ अमन जी
आ॰ सुभाष चन्द्र सिंह जी (गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश)
गायत्री साधक के साधना में जैसे जैसे गहराई आती जाती हैं वैसे वैसे साधक गायत्री महामंत्र के अर्थों की गहनता के चिंतन – मनन निदिध्यासन से – ‘उत्कृष्ट चिंतन, आदर्श चरित्र व शालीन व्यवहार’ के धारक बनते हैं। साधनात्मक गहनता अनुरूप साधक क्रमशः अपनी चेतना को नया आयाम देते हैं। जिनका गायत्री महाविज्ञान (द्वितीय भाग) में क्रम निम्न है:-
१. गायत्री महातम्य – १३३
२. गायत्री गीता – १४५
३. गायत्री स्मृति – १५०
४. गायत्री उपनिषद् – १६३
५. गायत्री रामायण – १७५
६. गायत्री हृदयम् – १८४
…………………………..
गायत्री हृदयम् – http://literature.awgp.org/book/Super_Science_of_Gayatri/v2.193
आनन्द की स्फुरणा – एकोऽहम् बहुस्याम्। जिस प्रकार स्थूल सृष्टि के 5 तत्त्व हुए, उसी प्रकार सुक्ष्म चैतन्य के भी 5 कोष बने:-
१. आनन्दमय कोष
२. विज्ञानमय कोष
३. मनोमय कोष
४. प्राणमय कोष
५. अन्नमय कोष
शरीर – भूः लोक है, मस्तिष्क – भुवः लोक है, अन्तःकरण – स्वः लोक है।
व्याहृति से गायत्री उत्पन्न हुई। एक ही ईश्वरीय शक्ति जब भिन्न-भिन्न स्थितियों में होती हैं, तब भिन्न-भिन्न नामों से पुकारी जाती हैं। गायत्री – कारण शक्ति, सावित्री – सूक्ष्म शक्ति, सरस्वती – स्थूल शक्ति।
सप्त लोक @ सप्त चक्र –
१. भूः – पृथ्वी लोक। (मूलाधार चक्र)
२. भुवः – आकाश लोक। (स्वाधिष्ठान चक्र)
३. स्वः – स्वर्ग लोक। (मणिपुर चक्र)
४. महः – मह लोक। (अनाहत चक्र)
५. जनः – जन लोक। (विशुद्धि चक्र)
६. तपः – तप लोक। (आज्ञा चक्र)
७. सत्यं – सत्य लोक। (सहस्रार चक्र)
तत् – अर्थात् तेज, तेज का तात्पर्य है अग्नि। @ तेजस्विता, प्रतिभा, शालीनता, पुरूषार्थ, पराक्रम।
सविता – अर्थात् – सूर्य। @ उष्णता, स्फूर्ति, पाचन-शक्ति, निरोगिता, सुदृढ़ता।
वरेण्यं – अर्थात् अन्न, अन्न का तात्पर्य – प्रजापालिनी शक्ति। @ अन्न, वस्त्र, दुधारू पशु, गृहणी, सन्तति एवं अन्य समस्त जीवनोपयोगी वस्तुएं।
भर्ग – अर्थात् आपः, आपः का तात्पर्य है देव शक्तियों का समूह। @ दिव्यता, अनेक सद्गुण, योग्यताएं, शक्तियां सामर्थ्य।
देवस्य – अर्थात् सविता देव पुरुष। इसका तात्पर्य है – विष्णु। @ परमात्मा।
धीमहि – अर्थात् ऐश्वर्य का ध्यान करते हैं। ऐश्वर्य का अर्थ है प्राण, अध्यात्म, परम पद, महेश्वर। @ उस मंगलमय परमात्मा का ध्यान जिसको हृदय में धारण कर लेने से – उसके नियमों पर चलने से सब प्रकार की सुख शान्ति मिलती है
यो नः प्रचोदयात् – काम, काम वह है जिसके कारण लोक संचालन होता है। ऐसी कामनाएं जो सत्कर्मों की प्रेरणा देती है वह ग्राह्म हैं @ आत्मकल्याण – लोककल्याण।
गायत्री का सांख्यायन गोत्र है। सांख्य मार्ग – संसार के पदार्थों को उत्साह पूर्वक एकत्रित करना और उदारता पूर्वक उनका सन्मार्ग में व्यय करना।
अक्षर – 24 (- परम पुनीता इनमें बसे शास्त्र श्रुति गीता)।
3 पाद – ऋग्वेद (ज्ञानयोग), यजुर्वेद (कर्मयोग) व सामवेद (भक्तियोग)।
6 कुक्षियां/ दिशायें – पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व, अधः। @ गायत्री वा इदं सर्वं।
5 शीर्ष – व्याकरण, शिक्षा, कल्प, निरूक्त व ज्योतिष। गायत्री का शरीर छन्द है, शेष 5 वेदांग उसके शीर्ष हैं।
लक्षण – मीमांसा @ विचार – उत्कृष्ट चिंतन।
चेष्टा – अथर्ववेद। अथर्ववेद में व्यवहारिक ज्ञान है।
उदाहरण – छन्द।
वर्ण – श्वेत। श्वेत – सतोगुण का, शुभ्रता का, उज्जवलता का, पवित्रता का प्रतीक है।
स्वर – ह्रस्व, दीर्घ, प्लूत, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित।
आरंभिक अवस्था – गायत्री (ब्राह्मी गायत्री)। मध्य अवस्था – सावित्री (मध्याह्न गायत्री) व अन्त अवस्था – सरस्वती (संध्याकाल की गायत्री)।
गायत्री के 24 अक्षरों के देवता:-
१. ‘तत्‘ का देवता – अग्नि।
२. ‘स‘ का – प्रजापति।
३. ‘वि‘ का – सोम।
४. ‘तुः‘ का – ईशान।
५. ‘य‘ का – आदित्य।
६. ‘रे‘ का – बृहस्पति।
७. ‘णि‘ का – भर्ग।
८. ‘यम्‘ का – पितृ।
९. ‘भ‘ का – अर्यमा
१०. ‘गो‘ का – सविता।
११. ‘दे‘ का – त्वष्टा।
१२. ‘व‘ का – पूषा।
१३. ‘स्य‘ का – इन्द्र व अग्नि।
१४. ‘धी‘ का – वायु।
१५. ‘म‘ का – वामदेव।
१६. ‘हि‘ का – मित्र व वरूण।
१७. ‘धि‘ का – वभ्रु।
१८. ‘यो‘ का – विश्वदेव।
१९. ‘यो‘ का – विष्णु।
२०. ‘न:‘ का – वसु।
२१. ‘प्र‘ का – तुषित।
२२. ‘चो‘ का – कुबेर।
२३. ‘द‘ का – अश्वनी कुमार।
२४. ‘यात्‘ – ब्रह्मा देवता।
गायत्री को एक मनुष्याकृति देवी माना जाए, तो उसके अंग-प्रत्यंगों में विविध देव शक्तियों की स्थापना माननी होगी। उन शक्तियों का ध्यान करके स्वयं को भी गायत्री शक्तियों से ओतप्रोत अनुभव किया जाए। सगुण से निर्गुण @ साकार से निराकार की यात्रा है।
नित्य गायत्री – जप व ध्यान @ पाठ। पाठ के द्वारा निष्पाप होने का रहस्य है कि श्रद्धा और विश्वासपूर्वक इन महान् ब्रह्मविद्या का विवेचन, चिन्तन, मनन करने के कारण विवेक की जागृति होती है। तदनुरूप वह सन्मार्ग पर चलना अपनी नीति बनाते हैं।
‘गायत्री-हृदयं’ में जो विस्तृत तत्त्व ज्ञान भरा पड़ा है, उसको भली प्रकार से हृदयंगम कर लेने से आत्मा में उतना ही प्रकाश हो जाता है उतनी ही आत्मशुद्धि हो जाती है, जितनी कि साठ लाख गायत्री जप करने से। इसकी तुलना और किसी कार्य से नहीं की जा सकती।
जिज्ञासा समाधान (श्री लाल बिहारी सिंह ‘बाबूजी’)
हमें नित्य 1 माला जप व सविता ध्यान अवश्य करनी चाहिए।
गायत्री वा इदं सर्वं। हर एक इष्ट देव की शक्ति का स्रोत गायत्री (ब्राह्मी शक्ति) होती हैं। सविता सर्वभूतानां सर्वभावश्च सूयते। हम साधना से यथोचित लाभ ले सकते हैं। @ जो जो शरण तुम्हारी आवें सो सो मनोवांछित फल पावें। गायत्री साधक शारीरिक (ओजस्), मानसिक (तेजस्) व आध्यात्मिक प्रगति (वर्चस्) – पूर्ण प्रगति करते हैं।
पाठ करने को हृदयंगम (approached – realised – digested) करने के अर्थों में लें। इसे हल्के अर्थों में अर्थात् सरसरी तौर पर केवल पढ़ने के अर्थों में ना लिया जाए। @ जो शत बार पाठ करें कोई, छूटहि बंदि महासुख होई।
‘जप‘ केवल होंठों के बुदबुदाहट ना रहे प्रत्युत् मनन चिंतन निदिध्यासन तक अपनी गहराई बनाये। और साधक के चिन्तन, चरित्र व व्यवहार की उत्कृष्टता में परिलक्षित हों।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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