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Gayatri Upanishad

Gayatri Upanishad

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 16 Jan 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: गायत्री उपनिषद्

Broadcasting: आ॰ नितिन जी

आ॰ सुभाष चन्द्र सिंह जी (गाजियाबाद, UP)

गायत्री वा इदं ‌सर्वं भूतं यदिदं किंच् …। महर्षि गाल्व मैत्रेय जी द्वारा महर्षि मौद्गल्य का उपहास, फिर महर्षि मौद्गल्य के प्रश्नों के उत्तर देने में महर्षि गाल्व मैत्रेय स्वयं को असमर्थ पाकर, शिष्य समर्पण भाव से महर्षि मौद्गल्य से गायत्री विद्या ग्रहण करते हैं। इस प्रश्नोत्तरी को गायत्री उपनिषद् माध्यम से प्रस्तुत है:-

१. ‘वेद‘ और ‘छन्द‘ सविता का वरेण्यं हैं। वेद अर्थात् ‘ज्ञान’और छन्द अर्थात् ‘अनुभव’। हमारा ‘तत्त्वज्ञान’ अनुभव सिद्ध होना चाहिए अर्थात् ज्ञान वाचिक नहीं वरन् अनुभव सिद्ध होना चाहिए। ‘सद्ज्ञान’ का श्रद्धा भूमि में परिपक्व होना यही ‘ईश्वर’ प्राप्ति का प्रधान उपाय है। बिना सिद्धांतों को जाने केवल अनुभव निर्बल है और बिना अनुभव का ज्ञान निष्फल है। ज्ञान तथा अनुभव से परमात्मा को प्राप्त किया जाता है।

२. विद्वान पुरुष ‘अन्न’ को ही देव का ‘भर्ग’ मानते हैं।‌ देव का भर्ग ‘अन्न’ है। श्रेष्ठ का बल, उसके ‘साधन’ हैं। बिना बल के वो निर्बल रहेगा। देवताओं को धन/साधन/समृद्धि – भोग, लोभ, अहंकार प्रदर्शन अथवा अन्याय करने के लिए नहीं वरन् देवत्व अभिवर्धन, संवर्धन व संरक्षण के लिए आवश्यक।
हम जिन भी शक्ति धाराओं/ देवता की उपासना करते हैं उनके आदर्शों/ प्रेरणाओं का ‘गुण, कर्म व स्वभाव’ @ ‘चिंतन, चरित्र व व्यवहार’ में ‘अवतरण, परिशोधन व विकास’ को ही सच्ची ‘उपासना, साधना व आराधना’ कहीं जा सकती है।

३. ‘कर्म‘ ही वह ‘धी’ तत्त्व है जिसकी ‘प्रेरणा’ देता हुआ ‘सविता’ सर्वत्र विचरण करता है। ‘धी’ अर्थात् वह बुद्धि जो कर्म के लिए प्रेरणा/ प्रोत्साहन देती है। जो मनुष्य उत्साहपूर्वक, तन्मयतापूर्वक, श्रम, जागरूकता व रूचि के साथ कार्यों का संपादन/ निष्पादन करता है – निः:संदेह उसे परमात्मा की कृपा प्राप्त है। परमात्मा किसी को भी ‘कृपा’ से वंचित नहीं करता है वो तो हम हैं जो ‘दुर्बुद्धि’ के कारण उस कृपा से वंचित रह जाते हैं।

सविता‘ व ‘सावित्री‘ का अविछिन्न‌ संबंध है, जो एक है वही दूसरा है। दोनों का मिलकर एक जोड़ा बनता है, एक केंद्र है, दूसरा उसकी शक्ति। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
‘सविता’ कहते हैं – तेजस्वी परमात्मा को एवं ‘सावित्री’ – उसकी शक्ति को। सावित्री, सविता से भिन्न नहीं वरन् उसकी पूरक हैं। सावित्री द्वारा ही अचिन्तय, अज्ञेय, निराकार एवं निर्लिप्त परमात्मा इस योग्य बनते हैं की उससे कोई लाभ उठाया जा सके।
मन‘ – सविता तो ‘वाक्‘ – सावित्री ~ मन‌ की शक्ति वाक् द्वारा अभिव्यक्त/ परिलक्षित होती है। जहां मन वहीं वाक् है, जहां वाक् है उसमें मन घुला है। ‘यज्ञ’ – सविता तो ‘दक्षिणा’ – सावित्री ~ सद्ज्ञान सत्कर्म से अभिव्यक्त होती है। इस प्रकार महर्षि मौद्गल्य जी ने 24 योनियों को 12 मिथुन/जोड़ों (pairs) के माध्यम से समझाया है। इसमें हर एक जोड़ी में – एक अभिव्यक्त दूसरे व्यक्त के माध्यम से परिलक्षित होता है। अव्यक्त – केंद्र सविता तो व्यक्त – उसकी शक्ति विस्तार है। अव्यक्त के बोधत्व हेतु सर्वप्रथम व्यक्त की साधना करनी होती है। स्थूल‌ से सुक्ष्म व सुक्ष्म से कारण में प्रवेश मिलता है।

जब ‘ब्रह्मा‘ ने सृष्टि का साक्षात्कार किया तो उसमें तीन वस्तुएं प्रधानतः दिखीं – १. श्री (साधन/ लक्ष्मी), २. प्रतिष्ठा (सत्य) एवं ३. आयतन (ज्ञान)। इन्हें प्राप्त करने हेतु ‘तप’ अर्थात् तन्मयतापूर्वक श्रम करने का निर्देश है। तप-व्रत को ‘रूचिपूर्ण’ व श्रमशीलता को अपना ‘स्वभाव’ बना लिया जाए तो मनुष्य अवश्य ही ‘सत्य’ में प्रतिष्ठित होता है।
जिन व्यक्तित्व @ ‘गुण, कर्म व स्वभाव’ में ‘ब्राह्मी’ तत्त्व की प्रधानता रहेगी; उनके पास ‘श्री, प्रतिष्ठा व ज्ञान’ स्थायी रूप से रहेगी। ‘ब्रह्म’ में विचरण करने वाले ‘ब्राह्मण‘ होते हैं।

से तीन व्याहृतियां – ‘भूः’, ‘भुवः’ व ‘स्वः’। त्रिपदा गायत्री:-
भूः (पृथ्वी लोक) ऋगवेद (ऋक अर्थात् ज्ञान) – प्रथम पाद – तत्सवितुर्वरेण्यं,
भुवः (अन्तरिक्ष लोक) यजुर्वेद (यजुः अर्थात् यज्ञ) – द्वितीय पाद – भर्गो देवस्य धीमहि,
स्वः (द्युलोक) सामवेद (साम अर्थात् रूपांतरण/ संगीत/ खान/ सरसता) – तृतीय पाद – धियो यो नः प्रचोदयात्। ब्राह्मण – ब्रह्म प्राप्त (approached), ग्रसित (digested) व परामृष्ट (realised) होता है।
अथर्ववेद – तीनों वेद का application है। जो त्रिपदा गायत्री की साधना करते हैं उन्हें ‘आयुः, प्राणं, प्रजां, पशुं, कीर्तिं, द्रविणं व ब्रह्मवर्चस’ की प्राप्ति होती है।

गायत्री साधकों को ‘सद्ज्ञान, सत्कर्म व सद्भाव’ से युक्त होना चाहिए। ब्रह्म से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी, पृथ्वी से अन्न, अन्न से प्राण, प्राण से मन, मन से वाक्, वाक् से वेद, वेद से यज्ञ – प्राप्त (approached), ग्रसित (digested) व परामृष्ट (realised) हैं।

प्रश्नोत्तरी सेशन

जब भी अभिमान/ अहंकार ग्रस्त हों तो अपने से उपर वाले अर्थात् समृद्ध, शक्तिशाली व ज्ञानी व्यक्तित्व को देखें और हीनताआए तो नीचे वाले अर्थात् दरिद्र, निर्बल व अज्ञानी को देखें। इतिहास गवाह है कि सुदुराचारी भी रूपांतरित होकर संत बने।

प्रश्नोत्तरी सेशन विद् श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

Panchkoshi Research Center for Excellence पल्लवित पुष्पित हो रही है। आ॰ सुभाष जी विश्व स्तरीय सफल शिक्षक – उनका आभार। ऐसे ही मुक्ति की यात्रा freedom fighter की तरह जारी रखें।

श्री, प्रतिष्ठाआयतन‘ की सार्थकता तब है जब वो approached, digested & realised हो अर्थात् सद्ज्ञान – सत्कर्म में व सद्ज्ञान – सद्भाव में परिणत हो।
‘पात्रता’ सिद्ध करें। पात्रता ही चुम्बकत्व है; देव शक्तियां खींची चली आयेंगी @ पाछे पाछे हरी फिरे।

गायत्री – त्रिपदा हैं। ग्रंथि/ गांठ तब विकसित है जब साधक एक भी पद को छोड़ता है तो विकलांगता की स्थिति उत्पन्न होती है। ‘ऋक्, यजुः व साम व उनका application अथर्व’, ‘सद्ज्ञान, सत्कर्म व सद्भावना’, ‘ज्ञान, कर्म व भक्ति’, ‘उपासना, साधना व अराधना’ अर्थात् सद्ज्ञान/आदर्शों/प्रेरणाओं को ‘गुण, कर्म व स्वभाव’/ ‘चिंतन, चरित्र व व्यवहार’ में अवतरण, परिशोधन/पोषण व विकसित’ करें।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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