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Granthi Bhedan

Granthi Bhedan

ग्रन्थि भेदन

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 12 Mar 2022 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT: ग्रन्थि भेदन

Broadcasting: आ॰ अमन जी/ आ॰ अंकुर जी/ आ॰ नितिन जी

आ॰ गोकुल मुन्द्रा जी (जयपुर, राजस्थान)

संसार व स्वयं (स्व) का ठीक ठीक पूर्ण ज्ञान होना ‘विज्ञान’ है ।

  1. अन्नमयकोश – इन्द्रिय चेतना (प्राणाग्नि) – जो अपने अन्न के रस से उत्पन्न होता है। जो अन्नरस से ही बढ़ता है और जो अन्न रूप पृथ्वी में ही लीन हो जाता है, उसे अन्नमय कोश एवं स्थूल शरीर कहते है।
  2. प्राणमयकोश – जीवनी शक्ति (जीवाग्नि) – प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान इन पाँच वायुओं के समूह को और कर्मेन्द्रिय पंचक के समूह को प्राणमय कोश कहते है, संक्षेप में यही क्रियाशक्ति है।
  3. मनोमयकोश – विचार बुद्धि (योगाग्नि) – मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के समूह के मिलने से मनोमय कोश बनता है इसे इच्छाशक्ति कह सकते है ।
  4. विज्ञानमयकोश – अचेतन सत्ता एवं भाव प्रवाह (आत्माग्नि) – बुद्धि और पाँच ज्ञानेन्द्रियों का समन्वय विज्ञानमय कोश है।
  5. आनंदमयकोश – आत्मबोध (ब्रह्माग्नि) – स्वरुपाज्ञानमानन्दमयकोशः तत्कारणशरीरम ।

जानकारी‘ (theory) जब ‘श्रद्धा, प्रज्ञा व निष्ठा’ की चरणबद्ध प्रक्रिया द्वारा अनुभूत स्तर पर पहुंचती है तब वह ‘ज्ञान’ में परिणत होती है । जिसे हम ‘आत्मसाधना’ के तीन आयामों से समझ सकते हैं:-

  1. उपासना (approached)
  2. साधना (digested)
  3. अराधना (realised)

तीन शरीर की साधना :-

  1. स्थूल शरीर – कर्मयोग
  2. सुक्ष्म शरीर – ज्ञानयोग
  3. कारण शरीर – भक्तियोग

Parameters:-

  1. उत्कृष्ट चिंतन
  2. आदर्श चरित्र
  3. शालीन व्यवहार

विज्ञानमयकोश ~ ग्रन्थि भेदन – http://literature.awgp.org/book/Super_Science_of_Gayatri/v10.32

विज्ञानमयकोश की ग्रन्थियां :-

  1. स्थूल शरीर – रूद्र ग्रन्थि
    तम (गुण)
    पितृ ऋण (खोलने की जिम्मेदारी)
    सांसारिक जीवन (व्यवहारिक जगत)
    शक्ति (दार्शनिक जगत)
    प्रकृति
    मूत्राशय के समीप (शारीरिक स्थिति)
    शाखा ग्रन्थियां – मूलाधार चक्र व स्वाधिष्ठान चक्र
    महाकाली (क्लीं)
  2. सुक्ष्म शरीर – विष्णु ग्रन्थि
    रज (गुण)
    ऋषि ऋण (खोलने की जिम्मेदारी)
    व्यक्तिगत जीवन (व्यवहारिक जगत)
    साधन (दार्शनिक जगत)
    जीव
    अमाशय के उर्ध्व भाग में (शारीरिक स्थिति)
    शाखा ग्रन्थियां – मणिपुर चक्र व अनाहत चक्र
    महालक्ष्मी (श्रीं)
  3. कारण शरीर – ब्रह्म ग्रन्थि
    सत् (गुण)
    देव ऋण (खोलने की जिम्मेदारी)
    आध्यात्मिक जीवन (व्यवहारिक जगत)
    ज्ञान (दार्शनिक जगत)
    आत्मा
    मस्तिष्क के मध्य केन्द्र में (शारीरिक स्थिति)
    शाखा ग्रन्थियां – विशुद्धि चक्र व आज्ञा चक्र
    महासरस्वती (ह्रीं)

ये ग्रन्थि (गांठ) कब हैं ? – जब ये बन्धन कारी हैं अर्थात् ‘वासना (लोभ), तृष्णा (मोह) व अहंता (अहंकार)’ के पर्याय हैं ।

ग्रन्थि भेदन अर्थात्

  1. वासना – शांत (उपाय – कर्मयोग @ अनासक्त कर्म – मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत् ।)
  2. तृष्णा – शांत (उपाय – ज्ञानयोग @ आत्मवत् सर्वभूतेषु, यः पश्यति सः पण्डितः। )
  3. अहंता – शांत (उपाय – भक्तियोग @ निःस्वार्थ प्रेम – आत्मीयता – सर्वखल्विदं ब्रह्म ।)
    अंततः उद्विग्नता – शांत @ शांत चित्त । त्रिगुणातीत – तीनों गुणों की साम्यावस्था अर्थात् साधक का चिन्तन – उत्कृष्ट, चरित्र – आदर्श व व्यवहार – शालीन होते हैं ।

जिज्ञासा समाधान (श्री लाल बिहारी सिंह ‘बाबूजी’)

ज्ञानयोग, कर्मयोग व भक्तियोग‘ को भिन्न भिन्न ना समझें प्रत्युत् एक ही शक्ति की अवतरण (दृश्य) की चरणबद्ध प्रक्रिया हैं। गायत्री त्रिपदा हैं :-

  1. ज्ञान (ब्राह्मी गायत्री) – उपासना (approached) – उत्कृष्ट चिंतन ।
  2. कर्म (मध्याह्न सावित्री) – साधना (digested) – आदर्श चरित्र ।
  3. भक्ति (सरस्वती) – अराधना (realised) – शालीन व्यवहार ।

Theory को Practical से गुज़र कर application तक जानी होती है । बिना theory के practical की दिशा सही नहीं होती है और theory and practical की समरूपता से application सार्थक होते हैं । अतः बिना ज्ञान व भक्ति के कर्म, ‘योग’ का माध्यम नहीं बनते हैं, vice versa ज्ञान व भक्ति युक्त कर्म – कर्मयोग (अनासक्त कर्म – वासना, तृष्णा व अहंता रहित कर्म) ।

हम सदुपयोग (निःस्वार्थ प्रेम/ आत्मीयता) का माध्यम बनें अर्थात् दुरूपयोग (वासना, तृष्णा व अहंता पूर्ण व्यवहार) से बचें

देवर्षि नारद जी सदैव ईश्वरीय कार्य में निरत रहते हैं । अतः हम ईश्वरांश ईश्वरीय अनुशासन में ईश्वर के सहचर बन ईश्वरीय कार्य के माध्यम बनें ।

क्रियायोग के अभ्यास में चिंतन का क्रम मनोभूमि अनुरूप उपनिषद् के तथ्यों को लेकर आगे बढ़ा जा सकता है । उपनिषद् की संख्या 108 होने की वजह विभिन्न मनोभूमि का होना है । लक्ष्य (destination) एक है – अद्वैत ।

माया
मा – नहीं
या – जो
माया अर्थात् जो नहीं है (परिवर्तनशील) उसे शाश्वत मानना । यह अज्ञानतावश होता है । ज्ञानेन मुक्ति । प्रज्ञानं ब्रह्म ।

मैं कौन हूं ? – एक क्षण के लिए हम नहीं भूले कि “हम शरीर नहीं आत्मा है ।” अर्थात् आत्मसत्ता का पदार्थ जगत (पंचकोश) पर नियंत्रण हो – परिष्कृत पंचकोश ।
भुलक्कड़ी (आत्मविस्मृति) अर्थात् पदार्थ जगत (पंचकोश) आत्मसत्ता पर हावी हो – विकृत पंचकोश ।
पंचकोश साधना (आत्मसाधना) के क्रियायोग के अभ्यास से भुलक्कड़ी कम होती जाती है और यादाश्त (आत्मभाव – मैं आत्मा हूं) बढ़ती जाती है ।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।।

Writer: Vishnu Anand

 

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