Introduction to Anandmaya Kosh
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 25 Apr 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: आनन्दमय कोश का परिचय – आध्यात्मिक वैज्ञानिक विश्लेषण
Broadcasting: आ॰ अंकुर जी
श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी
गायत्री का पांचवां मुख (जीवात्मा के सबसे समीप व अंतिम कोश) – आनन्दमयकोश। जिस आवरण में पहुंचने पर हमें आत्मानंद की अनुभूति होती है, वही आनन्दमय कोश है। जहां उसे शान्ति, सुविधा, स्थिरता, निश्चिन्तता एवं अनुकूलता की स्थिति प्राप्त होती है।
पाँच आवरण ओढ़ सखे, जो सोया उसे जगा लो। अखिल विश्व की सब विभूतियां घर बैठे ही पालो।।
आत्मदेवता का कर लो, साथी अभिनव संस्कार। सारे मल विक्षेप हटाकर, लो तुम इसे संवार।।
परिष्कृत अन्नमयकोश, प्राणमयकोश का आधार @ प्राणमयजगत में आत्म-परमात्म साक्षात्कार हेतु प्रवेश द्वार। वैसे ही हर एक कोश के परिष्कृत होने के बाद अगले कोश में सहज प्रवेश संभव बन पड़ता है।
पाँच कोशों को मनुष्य की पंचधा प्रकृति कहते हैं – १. शरीराभ्यास, २. गुण, ३. विचार, ४. अनुभव, ५. सत्। इन 5 चेतनाओं को ही अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय व आनन्दमय कोश कहा जाता है यही गायत्री के 5 मुख हैं। पाँचो कोश की प्रकृति अलग-अलग हैं। इस पृथकता को जब एकरूपता में सन्तुलित समस्वरता में ढाल दी जाती है तो उनकी शक्ति अजेय हो जाती है।
‘विज्ञानमय कोश‘ की साधना में हमें मान्यताओं से परे जाना होता है। ग्रन्थि-भेद साधना से पंचकोश साधक तीन गुणों (सत्व, रज व तम्) से अतीत हो जाने पर, ऊँचा उठ जाने पर ही आत्मानंद में रमण कर सकता है। ग्रन्थि-भेद की साधना ही कुण्डलिनी जागरण की साधना है। वासना, तृष्णा व अहंता के गांठों को फोड़ना होता है।
‘आनन्दमय कोश‘ की साधना में हम विषयानंद/ भोगानंद/ खण्डानंद का रूपांतरण आत्मानंद – ब्रह्मानंद/योगानंद/ अखण्डानन्द में करें।
‘रूपांतरण’ की इस यात्रा में योगसाधक को ‘उर्ध्वरेता’ बनना होता है। यह संभव बन पड़ता है ‘प्राण’ के उर्ध्वगमन से। इसमें ‘संयमशीलता’ की अहम भूमिका है। संयमशीलता के 4 स्तंभ – “इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम व विचार संयम।” प्रगतिशील जीवन के 4 चरण – “समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी व बहादूरी” जिनके समन्वय संग ‘आनन्दमय कोश’ की journey में प्रवेश मिलता है।
आनन्दावरणोन्नत्यात्यन्तशांति – प्रदायिका। तुरीयावस्थितिर्लोके साधकं त्वधिगच्छति।।२७।। आनन्द आवरण की उन्नति से अत्यंत शांति वाली तुरीयावस्था, साधक को संसार में प्राप्त होती है।
नाद विन्दु कलानां तु पूर्ण साधनया खलु। नन्वानन्दमयः कोशः साधके हि प्रबुद्धयते।।२८।। नाद, बिन्दु और कला की पूर्ण साधना से साधक का आनन्दमय कोश जाग्रत होता है।
हमें ‘मित्रता‘ (friendship) करनी है अर्थात् आत्मीयता का विस्तार करना होता है। जीवात्मा-परमात्मा का मिलन ही योग है। विपरीत चित्त-वृत्ति मनः स्थिति व्यक्तित्व के प्रति भी सहृदयता को हम ‘मित्रता’ की परिपक्वता कह सकते हैं। सुख-दुख में समान, न प्रिय से राग, न अप्रिय से द्वेष करता है।
“आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः।” अपने में सब भूतों की आत्मा को देखना और सब भूतों की आत्मा में स्वयं को देखने की साधना @ द्वैत का रूपांतरण अद्वैत में @ अभेद दर्शनं ज्ञानं की साधना ‘आनन्दमय – कोश’ की है।
अनासक्त कर्म योग की साधना है। योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। 2.48।।
जीव, शिव का मिलन ‘योग’/ ‘आनन्द’ है। शांत शरीर, चित्त शांत, मन शांत, वासना तृष्णा अहंता शांत, भाव समाधि, समर्पण, विलयन, विसर्जन ~ भक्त-भगवान एक, साधक-सविता एक @ अद्वैत।
साधो! सहज समाधि भली। गुरू प्रताप भयो जा दिन, ते सुरति न अनत चली।।
आँख न मूँदूँ कान न रूँदूँ काया कष्ट ना धारूँ। खुले नयन से हँस-हँस देखूँ, सुन्दर रूप निहारूँ।।
कहूँ सोई नाम, सुनूँ सोई सुमिरन, खाऊँ सोई पूजा। गृह उद्यान एक सम लेखूँ, भाव मिटाऊँ दूजा।।
जहाँ-जहाँ सोई परिक्रमा जो कुछ करूं सो सेवा। जब सोऊँ तब कुरूँ दण्डवत पूजूँ और न देवा।।
शब्द निरन्तर मनुआ राता, मलिन वासना त्यागी। बैठत उठत कबहूँ ना विसरें, ऐसी ताड़ी लागी।।
कहै ‘कबीर’ वह उन्मनि रहती, सोई प्रकट कर गाई। दुख सुख के एक परे परम सुख, तेहि सुख रहा समाई।।
जिज्ञासा समाधान
अनासक्त प्रेम, अखण्डानन्द का स्रोत है। आसक्ति, आनन्द में breakage डालता है।
अपनत्व, आत्मीयता का विस्तार है। और इसकी साधना से भिन्नता का रूपांतरण अभिन्न में किया जा सकता है।
‘कोरोना‘ / challenges/ examinations के form में साधक के पात्रता के जांच हेतु आती हैं @ survival of the fittest। संयमशीलता, सादगी, immunity etc की जांच हो जाती है। विचलन – हमारे शरीर भाव का द्योतक है तो ‘सम भाव’ – आत्म-स्थित का।
पृथकता को जब एकरूपता में सन्तुलित समस्वरता में ढाल दी जाती है तो हम ‘आत्म-स्थित’ हो जाते हैं।
साक्षी भाव – सुख-दुख में समान, न प्रिय से राग – न अप्रिय से द्वेष।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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