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Kaivalya Upanishad

Kaivalya Upanishad

कैवल्य उपनिषद्

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 21 Nov 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT: कैवल्योपनिषद्

Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी

भावार्थ वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)

श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (सासाराम, बिहार)

पंचकोश यौगिक साइंस रिसर्च के इस अंतिम सेमेस्टर में आनंदमयकोश जागरण की साधना में उपनिषद् – स्वाध्याय क्रम में ब्रह्मविद्या खण्ड को प्राथमिकता दी जा सकती है । So that शाश्वत सत्य का बोधत्व किया जा सके ।

आत्मदेव‘ (आत्म तत्त्व) की साधना से स्वयं में देवत्व का जागरण किया जा सकता है । यह सर्वसुलभ सहजता पूर्ण है । @ आत्मा वाऽरे ज्ञातव्यः । आत्मा वाऽरे श्रोतव्यः । आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः । ‌

कैवल्य उपनिषद् में – महान् ऋषि आश्वलायन जी, भगवान् प्रजापति ब्रह्माजी के समक्ष हाथ में समिधा लिए हुए पहुँचे और कहा – हे भगवन्! आप मुझे सदैव संतजनों के द्वारा सेवित, अतिगोपनीय एवं अतिशय वरिष्ठ उस ‘ब्रह्मविद्या’ का उपदेश प्रदान करें, जिसके द्वारा विद्वज्जन शीघ्र ही समस्त पापों से मुक्त होकर उन ‘परम पुरुष’ परब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं ॥1॥
शिष्य का ‘समिधा’ हाथ में लेकर जाने का अर्थ शिष्य (समग्र) समर्पण भाव से है । महान ऋषि आश्वालायन जी का शिष्य समर्पण/ अभीप्सा @ कोरा कागज बन कर गुरुदेव (ब्रह्मा जी) के पास जाना हम सभी हेतु प्रेरणास्रोत है ।

(तत्) उस अतिश्रेष्ठ, परात्पर तत्त्व को जानने हेतु साधना:-

  1. श्रद्धा, (भवानी-शंकरौ वन्दे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ । याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त:स्थमीश्वरम् ।। )
  2. भक्ति, (समग्र समर्पण)
  3. ध्यान (चिंतन – मनन, मंथन, निदिध्यासन) और
  4. योगाभ्यास (विलय, विसर्जन)
    पतंजलि का योगदर्शन – समाधि, साधन, विभूति व कैवल्य इन चार पादों (भागों) में विभक्त है।

बाह्य कारक, उत्प्रेरक (catalyst) का कार्य करते हैं । अर्थात् साधनात्मक गति को तीव्र अथवा धीमी कर सकते हैं । पुरूषार्थ स्वयं को करना होता है । आत्मा के प्रकाश में आत्मा का अनावरण होता है (सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।। आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।)

नित्य उपनिषद् स्वाध्याय (ब्रह्म विद्या अध्ययन, मनन चिंतन, मंथन, निदिध्यासन) तदनुरूप दृष्टिकोण से बात बनती है ।

एकांत (आत्म-भाव – प्रलय अर्थात् प्रपंचों का लय – साम्यावस्था @ स्थिर शरीर – शांत चित्त – मन शांत – वासना, तृष्णा, अहंता शांत – उद्विगनता शांत – समाधि – भाव समाधि) में आत्म तत्त्व के विशद चिन्तन से आत्मप्रकाश (शुभ ज्योति के पूंज अनादि अनुपम ब्रह्माण्डव्यापी आलोक कर्ता) में बोधत्व का मार्गदर्शन है ।

मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत् । आत्मवत् सर्वभूतेषु, यः पश्यति सः पण्डितः ।‌

अणोरणीयानहमेव …. मैं (परब्रह्म) अणु से भी अणु अर्थात् परमाणु हूँ, ठीक ऐसे ही मैं महान् से महानतम अर्थात् विराट्। पुरुष हैं, यह विचित्रताओं से भरा-पूरा सम्पूर्ण विश्व ही मेरा स्वरूप है। मैं पुरातन पुरुष हूँ, मैं ही ईश्वर हूँ, मैं | ही हिरण्यमय पुरुष हूँ और मैं ही शिवस्वरूप (परमतत्त्व) हूँ ॥

जीवः शिवः शिवो जीवः स जीवः केवलः शिवः । तुषेण बद्धो व्रीहिः स्या त्तुषाभावेन तण्डुलः ॥ भावार्थ: जीव ही शिव है और शिव ही जीव है। वह जीव विशुद्ध शिव ही है। (जीव-शिव) उसी प्रकार है, जैसे धान का छिलका लगे रहने पर व्रीहि और छिलका दूर हो जाने पर उसे चावल कहा जाता है॥

जिज्ञासा समाधान

आदर्शों से अटूट प्रेम से ‘श्रद्धा’ उत्पन्न होती है । सदुपयोग का माध्यम बनना व दुरूपयोग/ अति उपयोग से बचना । गायत्री पंचकोशी साधना के 19 क्रियायोग के साधनात्मक प्रयोग से पंचकोश जागरण अर्थात् अनंत ऋद्धियों सिद्धियों को पाया जा सकता है ।

तीनों अवस्थाओं (जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति) में जो कुछ भी भोक्ता, भोग्य और भोग के रूप में है, उनसे विलक्षण, साक्षीरूप, चिन्मय स्वरूप, वह सदाशिव स्वयं मैं ही हूँ। मैं ही स्वयं वह ब्रह्मरूप हूँ, मुझमें ही यह सब कुछ प्रादुर्भूत हुआ है, मुझमें ही यह सभी कुछ स्थित है और मुझमें ही सभी कुछ विलीन हो जाता है; वह अद्वय ब्रह्मरूप परमात्मा मैं ही हूँ॥18-19॥

जीव भाव का शिव भाव अर्थात् व्यष्टि मन का समष्टि मन में सायुज्यता (विलय विसर्जन) से समत्व @ एकत्व @ अद्वैत ।

गुरू तत्त्व – जो ॐ असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ (बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28) ‌।)
अर्थात् आत्मप्रगति में सहायक तत्त्वों को गुरू के अर्थों में ले सकते हैं @ तत्सवितुर्वरेण्यं ।

विचार अगर प्रगति में बाधक बनें तो उसे प्रतिपक्ष विचारों से काटा जा सकता है । अतः हमें ज्ञानयोग की महत्ता को समझना चाहिए @ नित्य सूर्य का ध्यान करेंगे – अपनी प्रतिभा प्रखर करेंगे । आत्मसाधक नित्य ऊषापान व उपनिषद् स्वाध्याय के क्रम को अपना सकते हैैं ।

दायित्वों (Responsibilities/ duties) को ईश्वरीय कार्य समझ कर पूर्ण मनोयोग (श्रद्धा + प्रज्ञा + निष्ठा) से किया जाए ।
आफिस को आफिस में छोड़ कर आएं – घर लेकर ना आवें @ आत्मबोध व तत्त्वबोध की दैनंदिन साधना ।
मारने वाले (killer) के पास killing के लिए दो हाथ (साधन) हैं तो हमारे पास (protectors) भी बचने व बचाने के लिए भी दो हाथ (साधन) हैं । सब अपने अपने अभिनय में हैं … The world is a theatre …. मरने वाले श्रीकृष्ण … मारने वाले भी श्रीकृष्ण … श्रीकृष्ण के अतिरिक्त कुछ भी नहीं … अद्वैत ।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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