Kala Sadhna – Theory
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 24 Oct 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
SUBJECT: आनन्दमय कोश – कला साधना (Theory)
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (सासाराम, बिहार)
आनन्दावरणोन्नत्यात्यन्तशांति – प्रदायिका । तुरीयावस्थितिर्लोके साधकं त्वधिगच्छति ।।27।। आनन्द-आवरण की उन्नति से अत्यंत शान्ति को देने वाली तुरीयावस्था, साधक को संसार में प्राप्त होती है।
नाद विन्दु कलानां तु पूर्ण साधनया खलु । नन्वान्दमयः कोशः साधके हि प्रबुध्यते ।।28।। नाद, बिन्दु और कला की पूर्ण साधना से साधक में आनन्दमय कोश जाग्रत होता है ।
शब्द – ब्रह्म । वाणी के 4 प्रकार – बैखरी, मध्यमा, परा व पश्यन्ती । शब्द दो प्रकार के हैं – सूक्ष्म व स्थल । सूक्ष्म शब्द को ‘विचार’ कहते हैं व स्थूल शब्द को ‘नाद’ । नाद भी दो प्रकार के होते हैं – आहत नाद व अनहद नाद ।
सूक्ष्म से सूक्ष्म और महत् से महत् केन्द्रों पर जाकर बुद्धि थक जाती है और उससे छोटे या बड़े की कल्पना नहीं हो सकती, उस केन्द्र को ‘बिन्दु’ कहते हैं ।
लघु से लघु और महान से महान् अण्ड में जो शक्ति व्यापक है, इन सबको गतिशील, विकसित, परिवर्तित एवं चैतन्य रखती है, उस सत्ता को ‘बिन्दु’ कहा गया है । यह बिन्दु ही ‘परमात्मा’ है । इसे ही – ‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ कहकर उपनिषदकार उस परब्रह्म का परिचय देते हैं ।
लघुता व महत्ता के चिन्तन की बिन्दु साधना से जीवात्मा का भौतिक अभिमान व लोभ विगलित होता है एवं स्व का विस्तार होता है ।
बिन्दु साधक के विकार मिट जाते हैं फलस्वरूप आत्मस्थित साधक अखंडानंद की उपलब्धि पाते हैं ।
‘कला’ का अर्थ है – किरण । सूर्य किरणों के सप्तरंग बैनीआहपीनाला (बैंगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी व लाल) – 7 visible rays हैं । रूप को प्रकाशवान् बनाकर प्रकट करने का काम – कला के द्वारा ही होता है ।
किसी वस्तु के प्राकृतिक रंग को देखकर यह बताया जा सकता है कि पंचतत्त्वों में कौन सा तत्त्व किस मात्रा में विद्यमान है ?
1. पृथ्वी तत्त्व का रंग – पीला (विशेषता क्षमा, गंभीरता, उत्पादन, स्थिरता, वैभव, मजबूती, संजीदगी, भारीपन) । मूलाधार चक्र की साधना से पृथ्वी तत्त्व को संतुलित रखा जा सकता है ।
2. जल तत्त्व का रंग – श्वेत (विशेषता – शान्ति, रसिकता, कोमलता, शीघ्र प्रभावित होना, तृप्ति, शीतलता, सुन्दरता, वृद्धि, प्रेम) । स्वाधिष्ठान चक्र की साधना द्वारा जल तत्त्व को संतुलित रखा जा सकता है ।
3. अग्नि तत्त्व का रंग – लाल (विशेषता – गर्मी, उष्णता, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, अनिष्ट, शूरता, सामर्थ्य, उत्तेजना, कठोरता, कामुकता, तेज, प्रभावशीलता, चमक, स्फूर्ति । मणिपुर चक्र की साधना द्वारा अग्नि तत्त्व को संतुलित रखा जा सकता है ।
4. वायु तत्त्व का रंग – हरा (विशेषता चंचलता, कल्पना, स्वप्नशीलता, जकड़न, दर्द, अपहरण, धूर्तता, गतिशीलता, विनोद, प्रगतिशीलता, प्राण, पोषण परिवर्तन) । अनाहत चक्र की साधना द्वारा वायु तत्त्व को संतुलित रखा जा सकता है ।
5. आकाश तत्त्व का रंग – हरा (विशेषता – विचारशीलता, बुद्धि, सूक्ष्मता, विस्तार, सात्त्विकता, प्रेरणा, व्यापकता, संशोधन, संवर्धन, सिंचन व आकर्षण आदि) । विशुद्धि चक्र की साधना द्वारा आकाश तत्त्व को संतुलित रखा जा सकता है ।
पदार्थ जगत में वस्तु के प्राकृतिक रंगों को देखकर यह जाना जा सकता है कि इसमें किस तत्त्व की प्रचुरता है तदनुरूप उनमें विशेषता है ।
आत्मसाधक – Mediation में भृकुटी मध्य में ध्यान एकत्रित कर मस्तिष्क में जिन रंगों की झिलमिल होती है उससे तत्त्वों की अधिकता – न्युनता को जाना जा सकता है ।
व्यक्तित्व अनुरूप (सात्विक, तामसिक, राजसी) व्यक्ति विशेष के शरीर/ मुख के आसपास एक प्रकाश का गोला (तेजोवलय – aura) होता है । जिसे देखकर उनके गुण-धर्म को जाना जा सकता है।
ऋषियों/ देवताओं में उनके मुख के आसपास एक प्रकाश का गोला चित्रित होता है, यह उनकी कला का ही चिन्ह है । परशुराम जी में – 3, रामचंद्र जी – 12 व कृष्ण जी – 16, बुद्ध जी – 20, व प्रज्ञावतार – 24 कलायें बतायी जाती हैं । अर्थात् उनमें साधारण मात्रा (जीव शरीर) में इतनी गुणी आत्मिक शक्ति रही ।
आत्मिक कलाओं (सत्, रज व तम) की साधना गायत्री पंचकोशी साधना में ग्रन्थि-भेदन द्वारा होती है ।
जिज्ञासा समाधान
रावण, असुर व्यक्तित्व अर्थात् वह स्थूल शरीर के स्वार्थ को प्राथमिकता देते रहे एवं तदनुरूप आचरण करते रहे । यहां रावण संहार को उसके स्थूलत्व को सुक्ष्मातिसुक्ष्म व महत् से महत तत्त्व में के विलय के रूप में लें । इसे ही परमधाम/ गौलोक/ मुक्ति आदि अर्थों में समझा जा सकता है ।
शिक्षण – प्रशिक्षण की गुणवत्ता शिष्य/ छात्र की जिज्ञासा की तीव्रता (अभीप्सा) अनुरूप एवं गुरू के आत्मिक तेज पर निर्भर करती है । भूख और भाव अनुरूप आहार अपना असर दिखाती हैं ।
हरि व्यापक सर्वत्र समाना । तत्त्व की शुभता का निर्धारण – सदुपयोग (good use) एवं अशुभता – अति उपयोग (overuse)/ दुरूपयोग (misuse) पर निर्भर करती है । अतः शुभ व अशुभ हमारे व्यक्तित्व (गुण, कर्म व स्वभाव) पर निर्भर करती है । Nothing is useless. Everything is made for endless joy. हम इसका साक्षात्कार भी कर सकते हैं । आत्मसाधना (उपासना, साधना व अराधना’ @ ‘तप + योग’ @ ‘गायत्री + सावित्री’ साधना) से संभव बन पड़ेगा ।
संस्था विशेष में संस्था के उद्देश्य, uniformity व विधि – व्यवस्था आदि को बनाए रखने हेतु dress code बनाये जाते हैं । सब बढ़िया कब तक ? – जब तक वो ग्रन्थि/ असंतुलन का माध्यम ना बने ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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