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Kathopnishad-1

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Aatmanusandhan –  Online Global Class – 16 May 2022 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT:  कठोपनिषद् (प्रथम अध्याय – प्रथम वल्ली)

Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी

शिक्षक: श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार)

यह उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत है । दो अध्याय तथा प्रत्येक में तीन – तीन वल्लियाँ
संवाद – यमाचार्य व नचिकेता के बीच ।
पाठ – अग्निविद्या, आत्मविद्या, आत्म – परमात्म साक्षात्कार में बाधाएं व उनका निवारण, परमात्मा की सर्वव्यापकता, योग साधना, ईश्वर प्राणिधान व मोक्षादि का वर्णन है ।

विज्ञानमयकोश स्थित साधक (अनाहत चक्र जाग्रत) की ‘द्वन्द्व’ (वासना – शांत, तृष्णा – शांत, अहंता – शांत व उद्विग्नता – शांत) की स्थिति समाप्त हो जाती है (अनासक्त/ निष्काम/ आत्मस्थित) और जीवन में अनिवर्चनीय आनन्द (unconditional love) का साम्राज्य छा जाता है । ‘जीवन’ (मैं क्या हूँ ?) एवं ‘मृत्यु’ (परिवर्तनशील/ गतिशील संसार) के वास्तविक रहस्य (ठीक ठीक पूर्ण ज्ञान) का भान होता है ।

नचिकेता जी ने पिता – वाजश्रवा ऋषि  को जराजीर्ण गौएँ को दान देते हुए देखकर पिता जी से बारंबार पूछा – आप मुझे किसे प्रदान करेंगे ? पिता ने उन्हें ‘यम’ (मृत्यु के देवता) को दान करने की बात कही ।

यम‘ – नचिकेता जी से प्रभावित होकर तीन वरदान मांगने को कहते हैं । नचिकेता जी तीन वरदान में :-
1. पिता की प्रसन्नता व अनुकूलता
2. स्वर्ग प्रदायिनी अग्निविद्या
3. आत्मविद्या मांगते हैं ।
यम उन्हें प्रलोभन देकर विचलित करना चाहते हैं; किन्तु नचिकेता अविचलित बने रहते हैं ।

नचिकेता – ‘न चिकेतते विचेष्टते’ अर्थात् जो प्रपंच (शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श) से अलिप्त (अनासक्त/ निष्काम) है ।  प्रपंच से अलिप्त रहकर दिव्य अनुशासन  के लिए समर्पण की वृत्ति (ईशानुशासनं स्वीकरोतु) ही वह आधार है, जिससे नचिकेता को दिव्य अग्नि विद्या (त्रय अग्नि = ओजस् + तेजस् + वर्चस् @ पंचाग्नि विद्या = प्राणाग्नि +  जीवाग्नि + योगाग्नि +  आत्माग्नि + ब्रह्माग्नि) प्राप्त हुई । इसलिए इस विद्या को ‘नाचिकेताग्नि‘ (लिप्त ना होने वाली विद्या) का वर यमाचार्य द्वारा प्राप्त हुआ समझा जा सकता है ।

प्रथम वल्ली में स्वर्ग प्रदायिनी अग्निविद्या (त्रिणाचिकेत विद्या) का वर्णन है । त्रिविध नचिकेत विद्या (त्रय नचिकेता अग्नि) @ तीन शरीर की साधना @ पंचकोश साधना (पंचाग्नि विद्या) :-
1. स्थूल शरीर की साधना {अन्नमयकोश (प्राणाग्नि)  व प्राणमयकोश (जीवाग्नि) जागरण)} – ओजस्
2. सूक्ष्म शरीर की साधना {मनोमयकोश (योगाग्नि) जागरण} – तेजस्
3. कारण शरीर की साधना {विज्ञानमयकोश (आत्माग्नि) + आनंदमयकोश (ब्रह्माग्नि)} – वर्चस्
तीनों शरीर अथवा पांचों कोशों की साधना एक साथ चलती है ।

तप – अर्थात् लोभ (पदार्थों से आसक्ति), मोह (संबंधों से आसक्ति) व अहंकार (मान्यताओं से आसक्ति) से निवृत्ति @ वासना, तृष्णा व अहंता से निवृत्ति  @ प्रपंच से अलिप्त ।  तपस्वी नचिकेता जैसे शिष्य को यमाचार्य पाकर धन्य धन्य होते हैं और सुपात्र को आत्मविद्या प्रदान करते हैं ।

जिज्ञासा समाधान

जब भी हमारी वृत्तियां – विषयों/ प्रपंच (शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श) से बारंबार सुख लेने की प्रवृत्ति (आसक्ति) में परिणत हो जाती है । तब हम सुख – दुःखात्मक – द्वन्द्व की स्थिति में फंस जाते हैं । योगस्थः कुरू कर्माणि … से हम द्वन्द्व रहित जीवन जी सकते हैं ।

सहस्रार (सहस्र दल कमल) के विकास के साथ अन्तः (अन्तःकरण चतुष्टय) और बाह्य वृत्तियां शान्त और सुस्थिर हो जाती हैं । मन के कषाय कल्मष समाप्त हो जाते हैं और अन्तः में प्रज्ञा जाग्रत हो जाती है । ऐसे साधक के व्यक्तित्व में ओजस, तेजस और वर्चस की झांकी सुस्पष्ट रूप से देखी जा सकती है ।
भाव संवेदनाएं (अनाहत चक्र) उर्ध्वगमन में अनाहत चक्र से उपर (विशुद्धि, आज्ञा व सहस्रार चक्र – मुख्यालय) के नियंत्रण में रहें तो योगस्थः कुरू कर्माणि … संभव बन पड़ता है । और निम्नगामी से प्रभावित (आसक्त) होगा तो संकीर्णता स्वार्थपरक होकर दुःख-सुख के छोटे बड़े थपेड़े से उद्वेलित व आनंदित होता रहेगा । अतः अनाहत चक्र जाग्रत (विज्ञानमयकोश जागरण) से द्वन्द्व की स्थिति समाप्त हो जाती है ।  

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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