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Kathopnishad – 3

Kathopnishad – 3

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Aatmanusandhan –  Online Global Class – 18 May 2022 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT:  कठोपनिषद् (प्रथम अध्याय – तृतीय वल्ली)

Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी

शिक्षक: श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार)

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजातेतयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति
भावार्थ: सयुजा = सदा साथ रहने वाले, सखाया = परस्पर मैत्री भाव रखने वाले, द्वा = दो, सुपर्णा = पक्षी (जीवात्मा व परमात्मा), समानम् = एक ही, वृक्षम = वृक्ष (शरीर) का आश्रय लेकर रहते हैं, तयोः = उन दोनों में से, अन्य = एक (जीवात्मा – भोक्ता) तो, पिप्पलम् =उस वृक्ष के फलों (कर्मफल) को, स्वादु = स्वाद ले – लेकर, अत्ति = खाता है, अन्यः=किन्तु दूसरा (ईश्वर – द्रष्टा), अनश्नन् =उनका उपभोग न करता हुआ, अभिचाकषीति = केवल देखता रहता है ।  

त्रय नाचिकेत अग्नि वर्तमान में पंचाग्नि विद्या (पंचकोश साधना) आत्मसाधकों (नचिकेता) हेतु भयरहित सर्वश्रेष्ठ आश्रय है (ऋषि मुनि यति तपस्वी योगी आर्त अर्थी चिंतित भोगी । जो जो शरण तुम्हारी आवें हो सो सो मनोवांछित फल पावें) ।

हे नचिकेता (यथार्थ सत्य के अन्वेषक) आप :-
आत्मतत्त्व को ‘रथी’ (वाहन का स्वामी/ मालिक/ owner)
शरीर को ‘रथ’ (वाहन/ vehicle)
बुद्धि को रथ संचालक ‘सारथि’ (रथ – वाहक/ driver)
मन को ‘लगाम’ (clutch, break, accelerator etc)
इन्द्रियों को ‘अश्व’ (transport)
विषयों (शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श) को ‘गोचर’ (इन्द्रियों रूपी अश्वों का विचरण मार्ग/ route)
भोक्ता (जीवात्मा) – शरीर, इन्द्रिय एवं मन से युक्त आत्मा जानें।

अविवेकी व्यक्तित्व का मन – विषयासक्त एवं इन्द्रियां – उच्छृंखल जैसे अविवेकी सारथी के दुष्ट अश्व । ऐसे व्यक्तित्व बारंबार जन्म-मरण-चक्र (बन्धन) में परिभ्रमण करता रहता है ।

विवेकी व्यक्तित्व का मन – अनासक्त/ निष्काम व इन्द्रियाँ नियन्त्रित जैसे श्रेष्ठ सारथि के वश में अच्छे घोड़े । ऐसा व्यक्तित्व परमपद (मुक्ति) को प्राप्त करता है, जहाँ से पुनरावर्तन  नहीं होता ।

इन्द्रियों‘ से उनके ‘विषय’ अधिक श्रेष्ठ हैं,
विषय‘ से ‘मन’ श्रेष्ठ है,
मन‘ से ‘बुद्धि’ श्रेष्ठ है,
बुद्धि‘ से भी उत्कृष्ट यह महान् आत्मा है ।
जीवात्मा‘ से ‘अव्यक्त शक्ति’ श्रेष्ठ है,
अव्यक्त शक्ति’ से वह ‘पुरुष’ (ब्रह्म) श्रेष्ठ है । वह सबकी पराकाष्ठा परमगति है ।

आत्मसाधक :-
सर्वप्रथम वाक् आदि इन्द्रियों को मन में लीन करें,
मन को विवेक बुद्धि के नियंत्रण में रखें,
बुद्धि को आत्मा में लीन करें एवं
आत्मा को परमपुरुष परमात्मा में नियोजित करें (विसर्जन) ।

उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधतक्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।14।। भावार्थ: जागो, उठकर खड़े होओ और श्रेष्ठ व ज्ञानी पुरूषों से ज्ञान प्राप्त करके परमात्म तत्त्व को जानो । विद्वज्जन कहते हैं कि यह मार्ग उतना ही दुरूह है, जितना की क्षुरे की धार पर चलना ।।

परब्रह्म :-
विषयों (शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श) से परे (सूक्ष्म)
अव्ययं (अविनाशी)
अनाद्यनन्तं (अनादि व अनन्त)
सत्य स्वरूप
उस परम तत्त्व को जानकर मनुष्य – मुक्त

आत्मविद्या को आत्मसात करने हेतु आत्मसाधक के 3 आवश्यक गुण:-
1. श्रद्धा (भक्तियोग)
2. प्रज्ञा (ज्ञानयोग)
3. निष्ठा (कर्मयोग)



जिज्ञासा समाधान

आत्मसाधना‘ में shortcuts अर्थात् एक कक्षा छोड़कर दूसरे कक्षा में छलांग लगाने की व्यवस्था नहीं है अर्थात् फोकट में कुछ नहीं मिलता :
1. अन्नमयकोश परिष्कृत – ‘प्राणाग्नि’ प्रज्वलित,
2. प्राणमयकोश परिष्कृत – (प्राणाग्नि से सूक्ष्म) ‘जीवाग्नि’ प्रज्वलित,
वाक् आदि इन्द्रियों को मन में लीन ।
3. मनोमयकोश परिष्कृत – (जीवाग्नि से सूक्ष्म) ‘योगाग्नि’ प्रज्वलित,
शुद्ध मन – शांत व प्रसन्न (विवेक बुद्धि के नियंत्रण में)
4. विज्ञानमयकोश परिष्कृत – (योगाग्नि से सूक्ष्म) ‘आत्माग्नि’ प्रज्वलित,
विशुद्ध चित्त (द्वन्द्व रहित) अर्थात् स्वयं का व संसार का ठीक ठीक पूर्ण ज्ञान हो जाना – विसर्जन हेतु तैयार ।
5. आनंदमयकोश परिष्कृत – (आत्माग्नि से सूक्ष्म) ब्रह्माग्नि प्रज्वलित ।
विसर्जन – आत्मा परमात्मा में लीन @ अद्वैत ।
पंचाग्नि के प्रज्वलन/ ताप/ तेज़ (ओजस + तेजस + वर्चस) से पंचावरण अनावृत होते जाते हैं और आत्मा व परमात्मा का महा-मिलन (योग) संभव बन पड़ता है ।

पुनरावर्तन – जो कर्मफल व्यवस्था के अन्तर्गत जीव शरीर धारण करते हैं ।
न पुनरावर्तते – मुक्त सत्ता । अवतरण व्यवस्था के अंतर्गत जीव शरीर धारण करते हैं ।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः ।।

Writer: Vishnu Anand

 

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