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Kathopnishad – 4

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Aatmanusandhan –  Online Global Class – 19 May 2022 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT:  कठोपनिषद् (द्वितीय अध्याय – प्रथम वल्ली)

Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी

शिक्षक: श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार)

आज की कठोपनिषद कक्षा (द्वितीय अध्याय – प्रथम वल्ली) को आत्मसात करने के लिए विशुद्ध चित्त (= वासना – शांत + तृष्णा – शांत + अहंता – शांत + उद्विग्नता – शांत) की आवश्यकता ।

समस्त इन्द्रिय द्वार – बहिर्मुख (extrovert) अतः जीवात्मा (शरीर, इन्द्रिय एवं मन से युक्त आत्मा – भोक्ता) बाह्य विषयों को ही देखता है – अंतरात्मा को नहीं । विषयासक्त व्यक्तित्व बाह्य भोगों का अनुगमन करते हैं और मृत्यु के भयंकर पाश (बंधन) में फंसते हैं ।

हमें इन्द्रियों की बाह्य वृत्तियों को अंतर्मुखी करने हेतु ‘मन’ को साधने की ‘साधना’ करनी होती है (साधना पथ – बुद्धिमान वाक् को मन में विलीन करे । मन को ज्ञानात्मा अर्थात बुद्धि में लय करे । ज्ञानात्मा बुद्धि को महत् में विलीन करे और महत्तत्व को उस शान्त आत्मा में लीन करे ॥)

मन‘ की स्थिति अनुरूप (शुद्ध व अशुद्ध) पंच ज्ञानेन्द्रियों (कान, आंख, जीभ, नाक व त्वचा) व उनकी सहयोगी 5 कर्मेंद्रियां (मुख, पैर, लिंग, गुदा व हाथ) पंचमहाभूत (आकाश, अग्नि, जल, पृथ्वी व वायु) की सूक्ष्म विषयानुभूति पंच तन्मात्राओं (शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श) को ग्रहण करती हैं ।  इन‌ सभी के पीछे की शक्ति भी ‘सर्वात्मना‘ की है जो इनसे परे (सूक्ष्मातिसुक्ष्म व महान से महान – अशब्दं, अरूपं, अव्ययं …) है । जो ‘चेतना’ की विभिन्न स्थितियों में –
1. जीवात्मा (भोक्ता),
2. आत्मा (अहं जगद्वा सकलं शुन्यं व्योमं समं सदा) व
3. परमात्मा (अद्वैत) कही जाती है ।

मन‘ (हृदय/ अंतःकरण) से ही वह जानने योग्य है । अतः इसे वासना, तृष्णा, अहंता व उद्विग्नता से मुक्त (शांत) अर्थात् विराट में लीन करके भेदत्व/ भिन्नता को समाप्त कर एकत्व (अद्वैत) स्थापित किया जा सकता है :-
1. भेद दृष्टिकोण (अज्ञान/ अविवेकी) @ जीव भाव ~ बन्धन (मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होना – भोगी) ।
2. अद्वैत (ज्ञान/ विवेक) @ शिव भाव ~ मुक्ति/ मोक्ष (मृत्यु से अमरता – योगी @ भोग का रूपांतरण योग में – मूलाधार शक्ति पर मुख्यालय सहस्रार चेतन शक्ति का नियंत्रण @ महामिलन @ विसर्जन) । 

संयमित विवेकी व्यक्तित्व (धीर पुरुष = ओजस्वी + तेजस्वी + वर्चस्वी) ही अन्तरात्मा को देख सकता है ।

विवेकवान पुरुष अमरता (मुक्ति/ मोक्ष) को अटल जानकर जगत के अनित्य पदार्थों की कामना नहीं करते ।

सर्वव्यापी महान् सर्वात्मा को जानकर धीर पुरुष किसी भी स्थिति में शोक नहीं करते (द्वन्द्व रहित) ।

वह जानता है – “तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥” (गुण कर्म विभाग से आत्मा अलिप्त .. ) अत: वह न किसी की निन्दा करता है और न किसी से घृणा करता है ।

जीव भाव (विषयासक्त संकीर्ण स्वार्थपरक दृष्टिकोण/ भिन्नता)  – जन्म मरण चक्र में फंसना (बंधन) ।
शिव भाव (अलिप्त/ अनासक्त/ निष्काम कल्याणकारी परमार्थ परक विराट दृष्टिकोण/ एकत्व) – मुक्ति/ मोक्ष ।
जीवः शिवः शिवो जीवः स जीवः केवलः शिवः । तुषेण बद्दो व्रीहिः स्या त्तुषाभावेन तण्डुलः ॥ भावार्थ: जीव ही शिव है और शिव ही जीव है। वह जीव विशुद्ध शिव ही है। (जीव-शिव) उसी प्रकार है, जैसे धान का छिलका लगे रहने पर व्रीहि और छिलका दूर हो जाने पर उसे चावल कहा जाता है ॥



जिज्ञासा समाधान

मुक्त सत्ता, अनासक्त/ निष्काम (ईशानुशासन में ईश्वरीय सहचरत्व) भाव से ईश्वरीय पसारे संसार में ईश्वरीय कार्य का माध्यम बनती हैं, उनका अवतरण होता है ।
विषयासक्त चेतना (भोक्ता) कर्मफल व्यवस्था अन्तर्गत पाप पुण्य फल भोगने हेतु जीव शरीर को धारण करते हैं (जन्म – मरण चक्र में स्थित) ।
अनेकता में एकता के दर्शन – http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1974/October/v2.3

कष्ट/ दुःख के three basic reasons :-
1. अज्ञान (lack of knowledge)
2. अशक्ति (lack of power)
3. अभाव (lack of resources)
अखंडानंद हेतु त्रिपदा गायत्री का (= ज्ञानयोग + कर्मयोग + भक्तियोग @ उपासना + साधना + अराधना) अवलंबन/ आश्रय लिया जा सकता है । ‘गायत्री’ की दो  उच्चस्तरीय साधनाएं:-
1. गायत्री पंचकोशी साधना
2. कुण्डलिनी जागरण साधना

इन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाने का उद्देश्य ‘सत्कर्म’ (निः स्वार्थ प्रेम/ आत्मीयता) हैं ।
व्यक्तित्व  (= गुण + कर्म + स्वभाव), मनसा वाचेण कर्मणा – good use (कल्याण) का माध्यम है तो वे घृणा, निन्दा व दुष्कर्म से मुक्त (free) है । 

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः ।।

Writer: Vishnu Anand

 

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