Kathopnishad – 5
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Aatmanusandhan – Online Global Class – 20 May 2022 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
SUBJECT: कठोपनिषद् (द्वितीय अध्याय – द्वितीय वल्ली)
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
शिक्षक: श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार)
ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन विमल सहज सुखराशि ।
ईश्वर प्रदत्त नगरी 11 द्वारों वाला (मानव शरीर – अयोध्या) है:-
नेत्र – 2
कान – 2
मुख – 1
नाक के छिद्र – 2
मुख – 1
नाभि – 1
गुदा – 1
जननेन्द्रिय – 1
ब्रह्मरन्ध्र – 1
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मानव शरीर के ये 11 छिद्र ही 11 द्वार हैं । जीव (शरीर, इन्द्रिय एवं मन से युक्त आत्मा) ईशानुशासन में ईश्वरीय सहचरत्व भाव (सोऽहं) से (ईश्वरीय पसारे) संसार में (अनासक्त) कर्म करते हूए बन्धन मुक्त चैतन्य हो जाता है (अद्वैत) ।
सर्व खल्विदं ब्रह्म । हरि व्यापक सर्वत्र समाना । गायत्री वा इदं सर्वं । एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति । @ अद्वैत दर्शन ।
हृदय गुहा (अन्तःकरण/ अंतः स्थल) में स्थित परब्रह्म परमात्मा उपास्य हैं । प्राण – अपान इनकी शक्ति (आश्रय) से ही चलायमान (उर्ध्वगामी – अधोगामी) हैं ।
मृत्यु (देहावसान – देह त्याग) के बाद ‘आत्मा’ का क्या होता है अर्थात् वह कहाँ जाता है ?
जीव/ भोक्ता (विषयासक्त चेतना) कर्मफल व्यवस्था अन्तर्गत (गहणाकर्मणोगति – परब्रह्म समस्त चैतन्यों चैतन्य और नित्यों में नित्य है, जो एकाकी होते हुए भी समस्त जीवों के कर्मानुसार उनका फल प्रदाता है @ as you sow you reap) विभिन्न योनियों में भ्रमण करती है ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च । मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥ 8.7 ॥
भुः (शरीर), भुवः (संसार), स्वः (आत्मा) – तीनों परमात्मा के क्रीड़ा स्थल हैं । परमात्मा को सर्वव्यापक, सर्वेश्वर, सर्वात्मना देखने वाले मनुष्य, माया मोह, ममता, संकीर्णता, अनुदारता, कुविचार एवं कुकर्म (विषयासक्ति) की अग्नि में झुलसने से बचते हैं और हर समय परमात्म-दर्शन करने से परमानन्द सुख (अनिवर्चनीय आनन्द) में निमग्न रहते हैं ।
“एकोऽहम् बहुस्याम” – समस्त प्राणियों में स्थित अन्तरात्मा (सर्वात्मना/ परमात्मा/ ब्रह्म) एक होने पर भी अनेक रूप में प्रतिभासित होता है । वहीं उनके बाहर भी है । सब भूतों के अन्तर में रहकर भी वह बाहर भी विराजमान है ।
वह (परब्रह्म) एक होते हुए भी अनेक रूप धारण कर लेता है । जो विद्वान सदैव अपने अन्तः स्थल में स्थित उस परब्रह्म करते हैं, उन्हें ही शाश्वत सुख प्राप्त होता है, अन्यों को नहीं ।
आत्मस्थ परमेश्वर का बुद्धिमान जन निरंतर दर्शन करते रहते हैं । ऐसे मेधावी (प्रज्ञावान्) शाश्वत शान्ति (मुक्ति) प्राप्त करते हैं, दूसरे नहीं ।
उस अनिवर्चनीय आनन्द (अध्यात्म – गूंगे की गुड़ की मिठास) को ही विद्वज्जन ब्रह्म मानते हैं । @ आत्मा वाऽरे ज्ञातव्यः … श्रोतव्यः … द्रष्टव्यः …. ध्यात्वयः ।
जिज्ञासा समाधान
प्राणन अपानन की क्रिया (मिलन – बिछुड़न) – (गतिशील) संसार में चलती रहती है । चिदाकाश में peace & bliss है ।
शांतिकुंज अर्थात् वह चैतन्य स्थिति जिसमें अथाह शांति हो (= “वासना – शांत + तृष्णा – शांत + अहंता – शांत + उद्विग्नता – शांत”) ।
जड़ – चेतन सभी में वह परमात्म शक्ति विद्यमान है ।
सामान्य चर्म चक्षु (eyes) से उस विराट चैतन्य का दिव्य दर्शन संभव नहीं बन पड़ता है । दिव्य दर्शन हेतु third eye (अन्तः दृष्टि – ऋतंभरा प्रज्ञा) open (जाग्रत) करनी होती है ।
त्रिगुणात्मक प्रकृति व कर्म विभाग व्यवस्था अनुरूप जनसामान्य गुणों की बहुलता अनुरूप स्थानीय वातावरण विनिर्मित हो जाता है । जाग्रत अलिप्त चेतना (ओजस्वी + तेजस्वी + वर्चस्वी) क्रांति (संत, सुधारक व शहीद) की भूमिका में जनसामान्य की प्रसुप्त चेतना को जगाने वाली प्रेरणा प्रसारण का माध्यम बनते हैं ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।।
Writer: Vishnu Anand
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