Kathopnishad – 6
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Aatmanusandhan – Online Global Class – 21 May 2022 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
SUBJECT: कठोपनिषद् (द्वितीय अध्याय – तृतीय वल्ली)
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
शिक्षक: श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार)
परिवर्तन/ रूपांतरण/ जागरण:-
क्षुद्रता का महानता में परिवर्तन (रूपांतरण)
अणु का विभु में परिवर्तन (रूपांतरण)
ससीम का असीम में परिवर्तन (रूपांतरण)
ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्मामृतं गमय ।
सामान्यतः पेड़ की जड़ नीचे व शाखाएं उपर की ओर होती है । एक ऐसे वृक्ष का उदाहरण दिया गया है जिसकी जड़ उपर व शाखाएं नीचे की ओर हैं (अश्वत्थ वृक्ष – सनातन) । सृष्टि क्रम – प्रसवन (सांख्य दर्शन) :-
पुरुष
प्रकृति
अंतःकरण (3) : मन, बुद्धि, अहंकार
महाभूत (5) : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश
तन्मात्रायें (5) : गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द
ज्ञानेन्द्रियाँ (5) : नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कर्ण
कर्मेन्द्रियाँ (5) : पाद, हस्त, उपस्थ, पायु, वाक्
शरीरान्त (देहांत/ मृत्यु) पूर्व ही यदि ‘ब्रह्मज्ञान’ प्राप्त कर लिया जाए तो ‘जीव’ – ‘मुक्त’ अन्यथा विभिन्न योनियों में भ्रमण करता है ।
अतः “उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत“
विशुद्ध अन्तःकरण में ब्रह्म का स्वरूप स्पष्ट । परिष्कृत पंचकोश की आवश्यकता/ अनिवार्यता ।
ज्ञानी पुरुष इन्द्रियों के विषयासक्त प्रवृत्ति (बहिर्मुखी) को जानते हैं अतः कभी शोक नहीं करते हैं (द्वन्द्व रहित = वासना – शांत + तृष्णा – शांत + अहंता – शांत + उद्विग्नता – शांत) ।
इन्द्रियों से मन उत्तम है, मन से बुद्धि श्रेष्ठ है, बुद्धि से जीवात्मा श्रेष्ठ है और जीवात्मा की अपेक्षा अव्यक्त शक्ति उत्तम है ॥
अव्यक्त से व्यापक और आकार रहित परम पुरुष परमात्मा श्रेष्ठ है, जिसे जानकर जीवात्मा बन्धन से मुक्त हो जाता है और अमरत्व को प्राप्त होता है ॥
परमेश्वर का दिव्य दर्शन, चर्म चक्षुओं (eyes) से संभव नहीं प्रत्युत् ऋतंभरा प्रज्ञा जागरण (third eye – ज्ञान के नेत्र) से संभव बन पड़ता है ।
जब मन के साथ 5 ज्ञानेन्द्रियाँ स्थिर हो जाती हैं और बुद्धि भी चेष्टारहित (संशयहीन – no confusion) हो जाती है , वह स्थिति ही परम गति है ॥
“योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।” उस इन्द्रियों की स्थिर धारणा को ही योग कहा जाता है । उस समय पुरुष प्रमाद रहित होता है क्योंकि योग ही उदय और अस्त होने वाला है (आत्मविस्मृति – भुलक्कड़ी) ॥
चरैवेति चरैवेति मूल मंत्र है अपना – प्रमाद रहित होकर ‘श्रद्धा’ (अस्ति – ईश्वर है) संग निरंतर नियमित प्रसन्नचित ‘तपोयोग’ में निमग्न रहा जाए ।
अनासक्त/ निष्काम भाव (unconditional love) से यहीं इस (ईश्वरीय पसारे) संसार में ईश्वर का साक्षात्कार (सहचरत्व) प्राप्त कर अमरता (मुक्ति/ मोक्ष) प्राप्त किया जा सकता है ।
ग्रन्थि भेदन (त्रिगुणात्मक संतुलन/ समन्वय) @ अद्वैत से मरणधर्मा मनुष्य (जीव/ भोक्ता) अमरत्व (मुक्ति/ मोक्ष) को प्राप्त करता है – यही वेदान्त का अनुशासन है ।
“आनंदमयकोश की आत्मा – आत्मा” एवं “आत्मा की आत्मा – परमात्मा” । हमें जीवन के अंतिम लक्ष्य को पाना है ।
आत्मानुभूति योग – प्रतिप्रसवन @ एकत्व ।
मृत्यु (प्रपंच का लय – प्रलय @ अद्वैत) द्वारा उपादिष्ट इस आत्मविद्या को जानकर नचिकेता मुक्त हो गये ।
जिज्ञासा समाधान
‘समझदारी‘ इसमें है की ‘समय’ (जीवन) का ‘सदुपयोग’ सर्वश्रेष्ठ तरीके से किया जाए @ योगः कर्मषु कौशलम् ।
स्वभाव/ आदत – ऐसा बनाया जाए जो हमें सर्वमान्य लोकप्रिय (महः जनः लोक वासी) बनाए । लक्ष्य – सत्यं लोक ।
‘मृत्यु‘ के देवता यमराज के भयंकर स्वरूप का दर्शन – यह है कि ‘ब्रह्म’ के अतिरिक्त कुछ भी शाश्वत नहीं (परिवर्तनशील) है अर्थात् वे काल के गाल में समाते हैं । अतः ‘अमरत्व’ हेतु “समर्पण – विलयन – विसर्जन”:-
गुरू शिष्य – एक, भक्त भगवान – एक, साधक सविता – एक @ एकत्व @ अद्वैत ।
‘मान्यताओं‘ (ससीम) से आसक्ति हमें अहंकारी बनाती है । विराट (असीम) से सायुज्यता बनने के उपरांत:-
एक डाल दो पंछी बैठा, कौन गुरु कौन चेला, गुरु की करनी गुरु भरेगा, चेला की करनी चेला, रे साधु भाई – उड़ जा हंस अकेला |
अन्तरात्मा की आवाज सुनने वाले (आत्मप्रकाश तक पहुंच बनाने वाले – पंचकोश अनावृत) छले नहीं जाते ।
समर्पण योग (ईशानुशासनं स्वीकरोतु) से ईश्वरीय सहचरत्व (दिव्य दर्शन) संभव बन पड़ता है – आँख न मूँदूँ कान न रूँधूँ काया कष्ट न धारूँ, खुले नैन मैं हँस-हँस देखूँ सुंदर रूप निहारूँ – साधो सहज समाधि भली ।
ईमानदारी से पंचकोश साधना करें तो हम निःसंदेह जीवन लक्ष्य को पा सकते हैं ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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