
Mahopnishad – 3
(Navratri Sadhana Satra) PANCHKOSH SADHNA _ Online Global Class _ 28 Sep 2022 (5:00 am to 06:30 am) _ Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
SUBJECT: महोपनिषद्-3
Broadcasting: आ॰ अमन जी/ आ॰ अंकुर जी/ आ॰ नितिन जी
टीकावाचन: आ॰ सुभद्रा जी (पटना)
शिक्षक बैंच: श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार)
गृहस्थाश्रम में ‘योगी‘ जीवन जीने की विधा हमें भारतीय ऋषि मनीषी ने दी । किसी भी age & faculty के लोग ‘अध्यात्म‘ (अंतरंग परिष्कृत + बहिरंग व्यवस्थित @ आत्मबोध + तत्त्वबोध) को धारण कर लक्ष्य प्राप्ति कर सकते हैं ।
आत्मनिर्माण के उपरांत विश्वनिर्माण … (सत्प्रवृत्ति संवर्धनाय दुष्प्रवृत्ति उन्मूलनाय आत्मकल्याणाय लोककल्याणाय वातावरण परिष्कराय…) ।
(महोपनिषद्) तृतीय अध्याय में:-
(ऋभु मुनिपुत्र) श्रेष्ठ निदाघ जी के विचार
प्रपंच जगत की परिवर्तनशीलता
वासना तृष्णा व अहंता आदि के दुष्प्रभाव
देह तथा उसकी अवस्था (विषय वासना) की नश्वरता
संसार से आसक्ति वश उत्पन्न त्रिताप
दिशाओं आदि की क्षणभंगुरता
वैराग्य से तत्त्व जिज्ञासा
….. आदि विषयों का वर्णन है ।
‘परमार्थ‘ (जीना तो है उसी का जो औरों के काम आए .. ) आत्मीयता (निःस्वार्थ प्रेम) का आवश्यक/ अनिवार्य गुण है ।
‘श्रद्धा‘ तत्त्व जुड़ाव (योग) का सर्वश्रेष्ठ माध्यम ।
‘प्रपंच‘ (शब्द, रूप, रस गंध व स्पर्श) से अनासक्त (परिवर्तनशीलता के बोधत्व @ वैराग्य) हेतु तन्मात्रा साधना प्रभावी ।
आत्मिक प्रगति पथ अवरोधक 3 प्रधान दुष्प्रवृत्तियां:-
1. वासना (पुत्रेषणा @ मोह @ सुर्पणखा) – रसना व कामुकता प्रधान वृत्तियां ।
2. तृष्णा (वित्तेषणा @ लोभ @ सुरसा)
3. अहंता (लोकेषणा @ अहंकार @ ताड़का)
इन्हें निरस्त किये बिना असुरता के चंगुल में फँसी हुई सीता रूपी आत्मा का उद्धार नहीं हो सकता।
‘जोश’ में ‘होश’ ना खोएं । जोश (पराक्रम/ क्रिया) पर होश (विवेक योग) का नियंत्रण हो परिणाम शुभ होते हैं @ अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येन च गुह्यते ।
‘तृष्णा‘ सुरसा है । महत्वाकांक्षी अपने वैभव का विस्तार करते हैं । आत्मसंतोष व विनम्रता को धारण कर इस संकट से उबरा जा सकता है । परिवार निर्माण कर दिया…. अब वहीं बंधे ना रहें प्रत्युत् समाज-निर्माण/ विश्वनिर्माण हेतु बाहर निकलें @ वसुधैव कुटुंबकम् । ‘प्रव्रज्या‘ लोककल्याण का एक बेहतरीन माध्यम ।
अहंता के परिष्करण हेतु (ससीम का रूपांतरण असीम में) समर्पण विलयन विसर्जन … एकत्व @ अद्वैत ।
वासना – शांत …. तृष्णा – शांत …. अहंता – शांत …. उद्विग्नता – शांत … समर्पण-विलयन-विसर्जन…. भक्त भगवान – एक ।
जिज्ञासा समाधान
वासना, तृष्णा और अहंता के क्षेत्र में बरता गया अतिवाद मनःक्षेत्र को अशुद्ध करता है । @ अति सर्वत्र वर्जयेत् (Excess of everything is bad) ।
‘सन्तुलन‘ से बात बनती है । अहंकार योग की भी साधना है । Nothing is worthless in the world. It depends upon us how we use it.
अहंकार योग की साधना में व्यष्टि मन का विलय समष्टि मन में कर दिया जाता है ।
‘ब्रह्म‘ के अतिरिक्त किसी की भी स्वतंत्र सत्ता नहीं है @ सर्वखल्विदं ब्रह्म ।
हार – जीत मान्यताओं पर आधारित है । ‘हार की जीत’ भी होती है । Nobody can hurt you without your permission. हम अपने विचारों भावनाओं को परिष्कृत कर लेवें… नियंत्रण कर लेवें… तो बात बन जाए । मौका देने पर ही धोखा मिलता है…. अतः ज्ञान, कर्म व भक्ति के त्रिवेणी संगम में डुबकी लगाकर उत्कृष्ट चिंतन, आदर्श चरित्र व शालीन व्यवहार के धारक अर्थात् आत्मविजेता बनें । आत्मविजेता ही विश्वविजेता होते हैं ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।।
सार-संक्षेपक: विष्णु आनन्द
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