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Mahopnishad – 6

Mahopnishad – 6

महोपनिषद्-6

(Navratri Sadhana Satra) PANCHKOSH SADHNA _ Online Global Class _ 1 October 2022 (5:00 am to 06:30 am) _  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT: महोपनिषद्-6

Broadcasting: आ॰ अमन जी/ आ॰ अंकुर जी/ आ॰ नितिन जी

टीकावाचन: आ॰ रजनी जी (पटना, बिहार)

शिक्षक बैंच: श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार)

(महोपनिषद्) पंचम अध्याय में :-
अज्ञान एवं ज्ञान की 7 भूमिकाएं
स्वरूप में अवस्थित (आत्मस्थित – अहं भाव के क्षीण होने पर शांत, चेतन तथा भेद भाव से रहित चित्त की स्थिति) होना ही ‘मुक्ति’
स्वरूप से नष्ट होना (आत्मविस्मृति) ‘बन्धन’
जीवन मुक्त का आचरण
ज्ञान भूमिका का अधिकारी
ब्रह्म अनुभूति ही ब्रह्म प्राप्ति का उपाय
मनोलय होने पर चैतन्य की अनुभूति
जगत के भ्रामक ज्ञान को शांत करने के उपाय
विषयों से उपरामता
तृष्णा को नष्ट करने का उपाय अहं भाव का त्याग
मन के अभ्युदय एवं नाश से बन्धन – मुक्ति
चित्त (चैतन्य) विद्या का अधिकारी
माया से बचकर ही ब्रह्म प्राप्ति संभव
ब्रह्म की सृष्टि माया के अधीन
संकल्प (आकांक्षा) के नष्ट होने से संसार का मूलोच्छेदन …………………..
……. जैसे विषयों का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है ।

(आज की कक्षा में) मंत्र संख्या 1-66 के सार तत्त्व को समझेंगे ।

मोह (जड़त्व) रूपी अज्ञान की 7 भूमिकाएं:-
1. बीज जाग्रत अवस्था (ज्ञाता की नूतन अवस्था)
2. जाग्रत अवस्था (मैं और मेरा)
3. महाजाग्रत अवस्था (तू और तेरा)
4. जाग्रतस्वप्नावस्था (मन की काल्पनिक रचना जाग्रत् अवस्था @ मृग मरीचिका )
5. स्वप्नावस्था (विस्मृति)
6. स्वप्न जाग्रत अवस्था (आत्मविस्मृति)
7. सुषुप्तावस्था (जड़ात्मक स्थिति)

ज्ञान (योग) की 7 भूमिकाएं:-
1. शुभेच्छा (अभीप्सा)
2. विचारणा (स्वाध्याय)
3. तनुमानसी (विषयासक्ति रहित)
4. सत्त्वापति (सत्व रूप में स्थित निर्मल चित्त)
5. असंसक्ति (संसर्गहीन कला @ निष्काम)
6. पदार्थ भावना (तत्त्वबोध)
7. तुर्यगा अवस्था (आत्मबोध) ………
……. तदुपरांत तुरीयातीत अवस्था (विदेहमुक्ति) ।

हृदय ग्रन्थियों का खुल जाना (ग्रन्थि-भेदन) ही ‘ज्ञान’ है और ज्ञान प्राप्त हो जाने पर मुक्ति (ज्ञानेन मुक्ति) सुनिश्चित है ।
अचिंत्य चिंतन और अयोग्य आचरण ही सारे (आंतरिक + बाह्य) रोगों का मूल है ।

परिवर्तनशील जगत (माया के अधीन सृष्टि) में ज्ञानयुक्त अपरिवर्तनशील चैतन्य सत्ता से सायुज्यता बिठा ली जाए (ब्रह्म अनुभूति) तो आत्म-परमात्म साक्षात्कार संभव बन पड़ता है ।

जिज्ञासा समाधान

संकल्प (आकांक्षा/ इच्छा) के नाश (समत्वं योग उच्यते) से मनोलय (शांत निर्मल चित्त) की स्थिति आती है ।

संसार में सबकुछ सोद्देश्य है; निरूद्देश्य कुछ भी नहीं । अच्छा व खराब दृष्टिकोण (चिंतन + आचरण) पर निर्भर करता है । जिस स्तर का ज्ञान (योग)/ अज्ञान (मोह) हो हमारा दृष्टिकोण उसी स्तर का (भूमिका में) होता है । अतएव हम
1. (श्रद्धा) श्रद्धावान् लभते ज्ञानं ।
2. (प्रज्ञा) ज्ञानेन मुक्ति ।
3. (निष्ठा) सेवा अस्माकं धर्मः ।
की नौका में सवार होकर संसार रूपी भवसागर को पार करें ।

शुद्ध अर्थात् सदुपयोग (good use) का माध्यम एवं अशुद्ध अर्थात् दुरूपयोग (misuse/ overuse) का माध्यम ।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः ।।

सार-संक्षेपक: विष्णु आनन्द

 

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