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Mahopnishad – 8

Mahopnishad – 8

महोपनिषद्-8

(Navratri Sadhana Satra) PANCHKOSH SADHNA _ Online Global Class _ 3 October 2022 (5:00 am to 06:30 am) _  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT: महोपनिषद्-8

Broadcasting: आ॰ अमन जी/ आ॰ अंकुर जी/ आ॰ नितिन जी

टीकावाचन: आ॰ श्रीमती गुप्ता जी

शिक्षक बैंच: श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार)

(महोपनिषद्) अध्याय-6 में:-
समाधि से आत्म-परमात्म साक्षात्कार
ज्ञानियों (आत्मसाधक) की आत्मसाधना (उपासना + साधना + अराधना) पद्धति
अज्ञानियों (विषयासक्त) की दुःखद स्थिति
मनोदशा का उपाय
वासना (मोह) त्याग (रूपांतरण) का उपाय
जीवनमुक्त की महिमा
तृष्णा (संकल्प/ इच्छा/ लोभ) की त्याग (रूपांतरण) का उपाय
निश्चय के 4 प्रकार
अद्वैत-निष्ठ व्यक्ति के लिए “ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या”
मुमुक्षु की ब्रह्म निष्ठता
उपनिषद् पाठ का प्रतिफल ….. वर्णित है ।

आज की कक्षा में मंत्र संख्या 1-43 के सार तत्त्व को समझेंगे ।

तृष्णा (इच्छा/ लोभ) का अंत नहीं है । यह दुर्गति की खाई बहुत गहरी है । तृष्णा अँधेरी रात है, आत्मविस्मृति के अन्धकार में ही यह बढ़ती और फलती-फूलती है। आत्म ज्योति के प्रकाश में इसका प्रवेश नहीं। प्रबुद्ध मन (ज्ञान) से अन्धकार दूर हो जाता है, शुद्ध हृदय में तृष्णा के लिए कोई स्थान नहीं होता

साक्षी भाव (सुषुम्ना) में स्थित रहें । इसे धारण करने हेतु अंतःकरण का परिष्कृत होना आवश्यक/ अनिवार्य है । इसके लिए पंचकोश साधना में मनोमयकोश जागरण (अनावरण) के 4 क्रियायोग – ध्यान, जप, त्राटक व तन्मात्रा साधना से साधना प्रारंभ होती हैं ।

(ज्ञानयुक्त/ अनासक्त/ निष्काम/ निः स्वार्थ) कर्म जब हमें ईश्वर (अद्वैत) से जोड़ता (योग) है तो कर्मयोग बन जाता है ।

तत् (ईश्वर) सवितु: (ज्ञान रूपी प्रकाश) वरेण्यं (धारण करें); अतः हमारे हर एक कर्म हमें ईश्वरत्व से सायुज्यता (योग) बनावें ।

(कठोपनिषद्) न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्‌अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ (”इस ‘प्रज्ञामय’ का न जन्म होता है न मरण; न यह कहीं से आया है, न यह कोई व्यक्ति-विशेष है; यह अज है, नित्य है, शाश्वत है, पुराण है, शरीर का हनन होने पर इसका हनन नहीं होता।)

(कठोपनिषद्) नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेनयमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्‌ ॥ (“यह ‘आत्मा’ प्रवचन द्वारा लभ्य नहीं है, न मेधाशक्ति से, न बहुत शास्त्रों के श्रवण से ‘यह’ लभ्य है। यह आत्मा जिसका वरण करता है उसी के द्वारा ‘यह’ लभ्य है, उसी के प्रति यह ‘आत्मा’ अपने कलेवर को अनावृत करता है।)

ईशानुशासनं स्वीकरोमि । हम ईश्वर को सर्वव्यापी मानकर उसके अनुशासन को अनुशासन में उतारेंगे ।

योगश्चिचत्तवृत्तिनिरोधः (वासना-शांत + तृष्णा-शांत + अहंता-शांत + उद्विग्नता-शांत) _ भाव समाधि _ समर्पण-विलयन-विसर्जन _ एकत्व/ अद्वैत (भक्त भगवान – एक) ।

जिज्ञासा समाधान

सर्वखल्विदं ब्रह्म की आत्मानुभूति – तत्सवितुर्वरेण्यं से संभव बन पड़ती है ।

जैसे नशे में डूबा व्यक्ति अनियंत्रित होकर अमर्यादित आचरण करता है । ठीक उसी प्रकार आत्मविस्मृत व्यक्तित्व – वासना, तृष्णा व अहंता के नशे में मदोन्मत अचिंत्य चिंतन व अयोग्य आचरण में लिप्त रहता है । अतः (आत्म) जागृति आवश्यक है ।

आत्मपरिष्कार के 4 चरण:-
1. आत्मसमीक्षा
2. आत्मसुधार
3. आत्मनिर्माण
4. आत्मप्रगति

निःस्वार्थ प्रेम (आत्मीयता) हर एक व्यक्तित्व में आत्मप्रकाश देखने की कला (तत्सवितुर्वरेण्यं) को विकसित करता है । परनिंदा करना व सुनना पतन के गर्त में धकेलता है । परावलंबी अर्थात् handicapped होना ।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः ।।

सार-संक्षेपक: विष्णु आनन्द

 

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