Maitrayanupanishad-1
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 16 Jan 2022 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
SUBJECT: मैत्रायण्युपनिषद्-1
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
भावार्थ वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)
श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (सासाराम, बिहार)
‘उपनिषद्‘ (वेदान्त दर्शन) स्वाध्याय का उद्देश्य शाश्वत सत्य दर्शन (बोधत्व) @ अद्वैत है ।
‘साधना‘ की शुरुआत मन से शुरू होती है (मनोयोग) ।
‘संसार‘ की नश्वरता का भान (अनुभव) होने पर तीव्र वैराग्य उत्पन्न होता है । “अथातो ब्रह्म जिज्ञासा ।”
‘जुनून’ (तीव्र अभीप्सा) लक्ष्य संधान हेतु आवश्यक है ।
‘अध्यात्म’ के 4 वैज्ञानिक सिद्धांत:-
- संसार की नश्वरता (तेन त्यक्तेन भुंजीथा)
- आत्मा की अमरता (आत्मा वाऽरे ज्ञातव्यः …. श्रोतव्यः …. द्रष्टव्यः)
- कर्मफल का सुनिश्चित सिद्धांत (गहनाकर्मणोगतिः)
- लोक परलोक पुनरागमन
ज्ञान रहित मानव शरीर (आत्मविस्मृति) – नरक तुल्य ।
‘तप‘ से ‘ज्ञान‘ की प्राप्ति होती है । ज्ञानयोग से ‘मन‘ वशीभूत (संतुलित/ नियंत्रित/ समत्व/ त्रिगुणातीत) होता है और मन के वश में होने से आत्मा की प्राप्ति (बोधत्व) होती है । बोधत्व उपरांत मोक्ष (नश्वर संसार से मुक्ति) ।
Transmutation (रूपांतरण) – काम ऊर्जा का रूपांतरण ज्ञान ऊर्जा में । Good investment आवश्यक है अन्यथा ऊर्जा का misuse or overuse हो सकता है ।
बटोरें – बांटें व लक्ष्य पथ पर नियमित निष्ठापूर्वक अग्रसर रहें (चरैवेति चरैवेति मूल मंत्र है अपना) ।
व्यवहारिक तप:-
- इन्द्रिय संयम (यम-नियम, APMB)
- समय संयम (समय @ जीवन)
- विचार संयम (योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः)
- अर्थ संयम (तेन त्यक्तेन भुंजीथा)
पाँच प्राण – पाँच देव http://literature.awgp.org/book/panch_pran_panch_dev/v2.5
जिज्ञासा समाधान
प्रेरणापुंज प्रेरणास्रोत स्वयमेव प्रेरणा प्रसारण का माध्यम बनते हैं अर्थात् कल्याणकारी होते हैं ।
‘ध्यान‘ की विभिन्न विधाओं में जो प्रगति पथ पर अग्रसर रखें उसका अभ्यास किया जा सकता है ।
आत्मविस्मृति (मैं शरीर हूं) – दुःख । बोधत्व (मैं आत्मा हूं) – सुख ।
कठोपनिषद्
आत्मानँ रथितं विद्धि शरीरँ रथमेव तु । बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥1-III-3॥ भावार्थ: आत्मा को रथी जानो और शरीर को रथ । बुद्धि को सारथी जानो और इस मन को लगाम ॥
Due respect :-
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः ॥1-III-10॥ भावार्थ: इन्द्रियों की अपेक्षा उनके विषय श्रेष्ठ हैं और विषयों से मन श्रेष्ठ है । मन से बुद्धि श्रेष्ठ है और बुद्धि से भी वह महान आत्मा (महत) श्रेष्ठ है ॥१०॥
यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि । ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ॥1-III-13॥ भावार्थ: बुद्धिमान वाक् को मन में विलीन करे । मन को ज्ञानात्मा अर्थात बुद्धि में लय करे । ज्ञानात्मा बुद्धि को महत् में विलीन करे और महत्तत्व को उस शान्त आत्मा में लीन करे ॥१३॥
“गलाई हेतु – तप व ढलाई हेतु – योग ।” उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥1-III-14॥ भावार्थ: उठो, जागो ! श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा उस बोध को प्राप्त करो । ज्ञानी उस मार्ग को छुरे की तीक्ष्ण और दुस्तर धार के जैसा ही दुर्गम बताते हैं ।।
अनुभव हीन जानकारी – बोझिल (भार) । सार्थक ज्ञान – “approached – digested – realised” ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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