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Maitrayanupanishad-2

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PANCHKOSH SADHNA –  Online Global Class –  23 Jan 2022 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT:  मैत्रायण्युपनिषद्-2 (तृतीय एवं चतुर्थ प्रपाठक)

Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी

भावार्थ वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)

श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (सासाराम, बिहार)

पंचभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश व वायु) एवं इनकी सुक्ष्म शक्तियों की इन्द्रियजन्य अनुभूतियां पंच तन्मात्राओं (शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श) को ‘भूत’ कहा जाता हैइनका समुच्चय ही ‘शरीर’ है । इस कारण से इस शरीर को ‘भूतात्मा’ (भूतात्मक) कहा जाता है ।

कर्तापन‘ तो इस भूतात्मा (जीवात्मा) का ही है । अन्तःकरण में विद्यमान रहने वाली ‘पवित्रात्मा’ तो मात्र प्रेरणा प्रदान करने वाली है ।

आत्म तत्त्व (पवित्रात्मा) के संसर्ग से पंचभूत जब चेतना युक्त दृश्यमान होते हैं तब वह विषयों (शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श) अथवा गुणों (सत्, रज व तम) से युक्त (भूतात्मा/ जीवात्मा) 84 लाख योनियों में भ्रमण करते हैं ।

जो व्यक्ति आश्रम धर्म का निर्वाह करता है वही ‘तपस्वी’ है । “धारणे इति धर्मः ।”
तप से कर्म की शुद्धि होती है । “योगः कर्मषु कौशलम् ।”
तप (practical) के माध्यम से ज्ञान की उपलब्धि (अनुभव) होती है जिससे मन वशवर्ती होता है । वशवर्ती मन से आत्मतत्व की प्राप्ति होती है और आत्मा की उपलब्धि से इस संसार सागर से मुक्ति मिल जाती है ।

चित्त’ ही संसार है, इस कारण प्रयत्न पूर्वक चित्त का शोधन करना चाहिए । जिस प्रकार का चित्त होता है उसी प्रकार की गति होती है । यही सनातन नियम है । “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।”

विषयासक्त मन – बन्धन का कारण व अनासक्त/ निष्काम शांत संतुलित प्रसन्न मन – मुक्ति का कारण है ।

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियःसर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ 5/7॥ भावार्थ: जिसने समर्पित कर्मों द्वारा अपने मन को अपने वश में कर लिया है, इंद्रियाँ जिसकी वश में है एवं जिसकी बुद्धि-अंतःकरण इन कर्मों से शुद्ध हो गए है तथा जो सतत यह अनुभव करता है कि संपूर्ण प्राणियों की आत्मा रूप परमात्मा ही उसके भीतर है, ऐसा मनुष्य कर्म करते हुए भी उनमें कभी लिप्त नहीं होता।

जिज्ञासा समाधान

मरणधर्मा शरीर है । नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।2.23।। (इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सूखा नहीं सकता ।)

ज्ञान, कर्म  व भक्ति (theory, practical & application) से आत्मसंतोष मिले, आत्मविश्वास व आत्मबल में वृद्धि हो, अंतःकरण शुद्ध हो, आत्मवत् सर्वभूतेषु, वसुधैव कुटुंबकम् … तब ‘तपोयोग’ की श्रेणी में कर्म- कर्मयोग, ज्ञान – ज्ञानयोग व भक्ति – भक्तियोग है ।

चित्त वृत्तियों के निरोध उपरांत उसे ‘आत्मा’ में विलयित विसर्जित करना होता है ।

विषयासक्त मन का विनाश (प्रलय – प्रपंच का लय अर्थात् एकत्व) उपरांत अनासक्त/ निष्काम समर्पित मन विलय विसर्जन हेतु तत्पर रहते हैं ।

विशुद्ध आत्मा का भूतात्मा में दृश्यमान होने का मूल कारण आनंद/ स्फुरणा (एकोऽहमबहुस्याम्) है

श्रद्धा, प्रज्ञा व निष्ठा‘ @ ‘ज्ञान, कर्म व भक्ति’ @ ‘चरित्र, चिंतन व व्यवहार’ @ ‘उपासना, साधना व अराधना’ के त्रिवेणी संगम में डुबकी लगाकर लक्ष्यभेद किया जा सकता है ।

सृष्टि की उत्पत्ति आनंद हेतु है । आत्मविस्मृति के कारण (अज्ञानतावश) हमें दुःख कष्ट आदि का अनुभव होता है ।

आत्म-स्थिति – विशुद्धात्मा व आत्मविस्मृति – भूतात्मा …. ।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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