Mudgal Upnishad (मुद्गलोपनिषद्) – 1
PANCHKOSH SADHNA नवरात्रि साधना सत्र – Online Global Class – 23 Oct 2020 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram – प्रशिक्षक Shri Lal Bihari Singh
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: मुद्गलोपनिषद् – 1
Broadcasting. आ॰ नितिन आहुजा जी
श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी
‘पुरूष‘ अर्थात् परमात्मा व ‘सूक्त‘ अर्थात् सुत्र (formula)। ‘पुरूष सूक्त’ में परमात्मा को वरण करने के अर्थात् आत्म – परमात्मा साक्षात्कार के सुत्र हैं।
‘पर्व अनेक विधान एक’ – सर्वप्रथम षट्कर्म (पवित्रीकरण, आचमन, शिखा वंदन, प्राणायाम, न्यास व पृथ्वी पूजन), कलश पूजन, दीप पूजन, गुरू – प्रधान देवता का आवाहन आदि। फिर पुरूष सुक्त का पाठ।
प्रथम खण्ड. ‘पुरुष सूक्त’ में ‘सहस्र‘ शब्द – ‘अनन्त’ व ‘दशाङ्गुलम्’ – अनन्त योजनों (दूरी) के अर्थ में प्रयुक्त हैं॥। प्रथम मन्त्र में ‘सहस्रशीर्षा’ में भगवान् विष्णु की सर्वव्यापकता का वर्णन है @ ‘ईशावास्यं इदं सर्वं’।
द्वितीय मन्त्र (पुरुषऽएवेदं) उनकी ‘शाश्वत व्याप्ति’ का संकेत करता है। वे सर्व-कालव्यापी अर्थात् हर समय (भूत, भविष्य व वर्तमान) विद्यमान हैं॥
तृतीय मन्त्र में उन्हें ‘मोक्ष प्रदान करने वाला’ कहा गया है। ‘एतावानस्य’ – उनके वैभव व सामर्थ्य का विस्तृत वर्णन है॥
चतुर्थ मंत्र ‘त्रिपाद’ में चतुर्व्युह के अनिरुद्ध स्वरूप के विस्तृत वैभव का वर्णन है॥
पञ्चम मंत्र ’तस्माद्विराड्’ में पाद विभूति रूप भगवान् की आश्रयभूता प्रकृति (माया) व पुरुष (जीव) का प्राकट्य दर्शाया गया है॥
‘यत्पुरुषेण’ मन्त्र द्वारा सृष्टि स्वरूप यज्ञ का प्रतिपादन है एवं ‘सप्तास्यासन् परिधय:’ द्वारा उस ‘सप्तधा प्रकृति’ (7 लोक, 7 शरीर, 7 चक्र आदि) वाले सृष्टि रूप यज्ञ कार्य में प्रयुक्त ‘समिधा’ का विवेचन है॥
सृष्टियज्ञ को ‘तं यज्ञम्’ के द्वारा प्रतिपादित है। साथ ही मोक्ष का वर्णन है॥
‘तस्माद्’ आदि 7 मन्त्रों द्वारा इस सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति का उल्लेख किया गया है। ‘वेदाहम्’ इत्यादि दो मन्त्रों के द्वारा भगवान् के वैभव का विशेष वर्णन है॥
‘यज्ञेन यज्ञमयजन्त’ मन्त्र द्वारा ‘सृष्टि व मोक्ष’ का उपसंहारात्मक वर्णन है। जो भी साधक ‘पुरुष सूक्त’ के ज्ञान को इस तरह आत्मसात् करता है, वह निश्चय ही ‘मोक्ष’ को प्राप्त करता है॥
द्वितीय खण्ड. प्रथम खण्ड के ‘पुरुष सूक्त’ में जिस विशेष वैभव का विशद वर्णन है, उसे भगवान ने उपदेश द्वारा इन्द्र को प्रदान किया।
इन्द्र द्वारा पुनः उपस्थित होने पर भगवान् ने उस परम कल्याणकारी रहस्य का ज्ञान पुरुष सूक्त के दो खण्डों में इन्द्रदेव को प्रदान किया॥
वह ‘विराट् पुरुष‘ (परमात्मा) नाम-रूप और ज्ञान से परे होने के कारण विश्व के समस्त प्राणियों के लिए ‘अगम्य‘ है।
फिर भी समस्त प्राणियों के उद्धार/ कल्याण हेतु वह अपने अनेक रूपों द्वारा समस्त लोकों में प्रकट होता है।
वह ‘अव्यक्त‘ अवतार लेकर सभी कालों (भूत, भविष्य व वर्तमान) में ‘नारायण’ के रूप में ‘अभिव्यक्त‘ होता है। वह कल्याणकारी सर्वशक्तिमान हैं। उसी ने ‘प्रकृति‘ का प्रादुर्भाव किया।
‘जीव‘ व ‘आत्मा‘ के मिलन द्वारा ‘मोक्ष’ की प्राप्ति का वर्णन है। जो भी साधक इस सृष्टि-यज्ञ और मोक्ष की विधि को समझता है, वह व्यक्ति पूर्ण आयुष्य प्राप्त करने में समर्थ होता है॥
संसार के हर परिवर्तनशील सत्ता में एक अपरिवर्तनशील चैतन्य सत्ता विद्यमान है। जो सृष्टि बन चुकी या बननेवाली है, यह सब ‘विराट पुरुष‘ ही हैं |
‘भेदत्व‘ (भेद दर्शन)/ बन्धन का मूल अज्ञान/ आत्म-विस्मृति है। अतः ‘अभेद दर्शनं/ अद्वैत/ मोक्ष’ हेतु आत्म स्वरूप का ज्ञान/ विवेक/ बोधत्व अनिवार्य है @ ‘आत्मा वाऽरे – ज्ञातव्यः – श्रोत्रव्यः – द्रष्टव्यः‘।
प्रश्नोत्तरी सेशन
ज्ञानार्जन में सदगुरु (ब्रह्मनिष्ठ/ ब्रह्मज्ञानी/ ब्रह्मवेत्ता) की भूमिका महत्वपूर्ण है। गुरू से रहित जन ‘निगुरा‘ कहे जाते हैं। ‘गुरू’ वशिष्ठ – विश्वामित्र स्तर के हों तो वो शिष्य के जिज्ञासा का उचित समाधान देकर ‘बोधत्व’ का सन्मार्ग दिखाते हैं। राजकुमार राम – गुरूकूल में गये और लौटे – भगवान राम बन कर @ रूपांतरण।
जब तक ‘आत्मा के प्रकाश’ तक पहूंच (पंचकोश अनावरण) नहीं है तब तक सदगुरु ही प्रकाश का स्त्रोत हैं @ एक तुम्हीं आधार सदगुरु एक तुम्हीं आधार।
‘फोकट में कुछ नहीं मिलता‘ अर्थात् पुरूषार्थ अनिवार्य है @ आत्मा के प्रकाश में ही आत्मा का अनावरण होता है।
हठयोग की ‘वज्रोली‘ क्रिया को राजयोग में आसान बना दिया गया है। आसन इस प्रकार लगायें कि एड़ी या एड़ी से ऊपर की हड्डी, गुदा व जननेंद्रिय मूल को हलका सा दबाती रहे।
साँस लेते हुए गुदा-क्षेत्र की समस्त माँस-पेशियों को ऊपर की तरफ ऐसे खींचें जैसे पिचकारी से पानी खींचते हैं।
गुदा को ऊपर खींचने के साथ-साथ जननेंद्रिय की मूत्रवाहिनी नसें भी ऊपर खींचती हैं। जब तक अच्छा लगे – खींचें।
फिर जैसे धीरे-धीरे खींचने की क्रिया की गई थी, उसी प्रकार सांस छोड़ते हुए उसे नीचे उतारने/छोड़ने की क्रिया करनी चाहिए।
यह क्रिया ‘ब्रह्मचर्य‘ में सहायक होती है। वीर्य का ऊर्ध्वगमन संभव करती है। वह ओजस्-तेजस् में बदलता है और शीघ्रपतन, स्वप्नदोष, प्रमेह जैसे रोगों में आशाजनक लाभ होता है।
रति-क्रिया/ प्रजनन यज्ञ का उद्देश्य सुसंतति की उत्पत्ति व परस्पर प्रेम, सौहार्द्र, सद्भावना @ आनंद आदि की अभिवृद्धि है। और इसे ‘ब्रह्मचर्य‘ के अंतर्गत रखा गया है।
‘प्रेम‘ का आधार सद्भाव/ प्रेरणा है इसे थोपा/ लादा नहीं जा सकता है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand.
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