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अन्नमय कोश का प्रवेश द्वार : नाभिचक्र

अन्नमय कोश का प्रवेश द्वार : नाभिचक्र

गर्भाशय में भ्रूण का पोषण माता के शरीर की सामग्री से होता है। आरंभ में भ्रूण, मात्र एक बुलबुले की तरह होता है। तदुपरान्त वह तेजी से बढ़ना आरंभ करता है। इस अभिवृद्धि के लिए पोषण सामग्री चाहिए। उसे प्राप्त करने का उस कोंटर में और कोई आधार नहीं हैं । मात्र माता का शरीर ही वह भण्डार है जहाँ से गर्भस्थ बालक को अपने निर्वाह एवं अभिवर्धन के लिए आवश्यक आहार मिल सकता है। वह मिलता भी है । यह अनुदान शिशु को अपनी नाभि के मुख से प्राप्त होता है। तब न मुँह खुला होता है और न पाचन यंत्र ही सक्षम होते हैं। पका हुआ, पचा हुआ आहार उस स्थिति में उसे अपनी नाभि द्वारा ही उपलब्ध होता है।

प्रसव के समय जब बालक बाहर आता है तो देखा जाता है कि उसकी नाभि में एक नाल रज्जु बँधी है और वह माता को नाभि स्थली के साथ जुड़ी है। उसे काटना पड़ता है तब दोनों अलग होते हैं। यह नाल ही वह द्वार है जिसके द्वारा माता के शरीर से निकल कर आवश्यक रस द्रव्य बालक के शरीर में निरन्तर पहुँचते रहते हैं इस दृष्टि से प्रथम मुख नाभि को ही कहा जा सकता है। दाँत, जीभ, कंठ, तालु वाला मुँह तो जन्म ले चुकने के बाद खुलता है। तब तक नौ मास की अवधि में बालक बहुत कुछ प्राप्त कर चुका होता है। गर्भ काल में बच्चा जितनी तेजी से बढ़ता है वह आश्चर्यजनक है। उसे अपने शरीर के अनुपात से इतनी अधिक खुराक की जरूरत पड़ती है जितनी जन्म लेने के उपरान्त फिर कभी नहीं पड़ती। उन सारी आवश्यकताओं की पूर्ति नाभि मार्ग से ही होती रहती है।

भ्रूण के फेफड़े गर्भावस्था के नौ महीने प्रायः निष्क्रिय ही रहते हैं। श्वास प्रश्वास की आवश्यकता माता और भ्रूण के दो जुड़े हुए अवयव पूरी करते हैं। माता के ‘यूटेरस’ गर्भाशय में स्थित जरायु बच्चे के ‘प्लेसेन्टा’ ही फेफड़े का भी काम करते हैं। जन्म के उपरान्त जैसे ही बालक रोता, हाथ पैर चलाता और साँस लेता है वैसे ही रक्त संचार आरंभ हो जाता है। हृदय से बड़ी धमनी में होकर रक्त फेफड़ों में पहुँचता है आध्र वे अपना काम आरंभ कर देते हैं। नाल काटने पर बच्चे का ‘अम्ब कार्ड’ माता के ‘प्लेसेन्टा’ से कट कर अलग हो जाता है। तब फिर दोनों के बीच बने हुए सम्बन्ध सूत्र का विच्छेद हो जाता है और इस कार्य के सम्पन्न करती रहने वाली ‘अम्ब वेन’ निष्क्रिय हो जाती है बच्चे की कार्य वाहिनी सामर्थ्य अपने बल बूते अपना काम करने लगती है। फेफड़े हृदय आदि ठीक तरह अपना काम करने लगते हैं और उस स्व संचालित प्रक्रिया के सहारे नवजात शिशु की जीवन यात्रा स्वावलंबनपूर्वक अपने ढर्रे पर लुढ़कने लगती है। माता का सहयोग समाप्त हो जाता है। तब उस केन्द्र की उपयोगिता भी समाप्त हो जाती है।

इसके बाद उस महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया का केन्द्र नाभि बाह्य दृष्टि से एक सामान्य गड्ढे के रूप में रह जाती है। स्थूल विज्ञान के अनुसार अन्दर उस स्थान से कुछ सूत्र जिगर से जुड़े रहते हैं। वर्तमान जीवशास्त्री इसे निरर्थक निष्क्रिय सूत्र मानते हैं और उन्हें ‘लीगामैन्ट टेरीस आफ लीवर’ कहते हैं। किन्तु यह सूत्र एकदम निष्प्राण नहीं होते बल्कि स्थूल दृष्टि से सुप्त जैसी स्थिति में पड़े रहते हैं। जब जिगर रोग ग्रस्त हो जाता है तो उस पर पड़ने वाले रक्त के दबाव को कम करने के लिए यह सूत्र पुनः सक्रिय हो उठते हैं। जिगर पर पड़ने वाले रक्त के दबाव से उसे बचाने के लिए रक्त को नाभि क्षेत्र में फैला देते हैं। उस समय नाभि क्षेत्र फूला हुआ, उसमें रक्त शिरायें उभरी हुई स्पष्ट दिखाई देती हैं स्पृश् है कि स्थूल दृष्टि से सुप्त, यह तन्तु सूक्ष्म दृष्टि से सतत् सक्रिय रहते हैं।

शरीर के विकास की दृष्टि से नाभि की भूमिका समाप्त हो जाती है यह एक दृष्टि से उचित भी है। नाभि द्वारा पोषित भ्रूण गर्भ में जिस तीव्र गति से बढ़ता है वह अत्यधिक तीव्र होती है। नाभि की पोषण क्षमता सक्रिय रहे और यदि जन्म लेने के बाद भी उसी क्रम से शरीर की वृद्धि का क्रम चलता रहता तो फिर कदाचित मनुष्य ताल वृक्ष जितना ऊँचा, हाथी जितना विशालकाय बन सकता था और उसकी खुराक जुटाने के लिए दस हाथियों जितने आहार की आवश्यकता पड़ सकती थी। ईश्वर को धन्यवाद है कि भ्रूण की वृद्धि और आवश्यकता की तीव्रता को गर्भ काल तक ही सीमित रखा।

वर्तमान शरीर शास्त्र की दृष्टि से जन्म के बाद मनुष्य के लिए नाभिचक्र निरर्थक कहा भी जा सकता है, किन्तु अध्यात्म विज्ञान की मान्यता इससे भिन्न है। उसने नाभि को ‘नाभिकीय’ केन्द्र माना है। जिस प्रकार परमाणु के नाभिक का महत्त्व सर्वोपरि है, जिस प्रकार सौर मण्डल का सूत्र संचालन सूर्य द्वारा होता है उसी प्रकार शरीर का मध्य बिन्दु नाभि है और उसमें नाभिकीय क्षमता विद्यमान् है। मस्तिष्क का सूक्ष्म शरीर का नाभिक आज्ञाचक्र है। स्थूल शरीर की स्थिति उससे भिन्न है। उसका नाभिक-न्यूक्लियस नाभि है। उसकी क्षमता अपने समीपवर्ती अवयवों को प्राणबल देती है और व अपना काम ठीक तरह कर सकने में समर्थ बनते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा तथा योग चिकित्सा के अंतर्गत नाभि को इसी लिए बहुत महत्त्व दिया जाता है। शरीर के अनेक गंभीर रोगों के उपचार की एक रहस्यमय पद्धति अपने देश में बहुत समय से चली आ रही है । उसमें शरीर के कुछ विशिष्ट केन्द्रों को दबाने, सहलाने, बाँधने मलने आदि क्रियाओं द्वारा रोगों का सफल उपचार कर दिया जाता है। यह पद्धति आजकल ‘जौन थैरेपी’ के नाम से एक सुनिश्चित चिकित्सा पद्धति के रूप में विकसित की जा रही है। उसमें भी नाभि को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है।

शरीर शास्त्र की दृष्टि से भी नाभि के आसपास नौ महत्त्वपूर्ण अंतःस्रावी ग्रंथियाँ (गैग्लियान ) है। गैग्लियान-स्वायत्त नाड़ी संस्थान (आटोनामस नर्वस सिस्टम) के वह केन्द्र है जो शरीर के प्रमुख संस्थानों की गतिविधियों , उनके रक्त संचरण, हारमोन, एन्जाइम आदि अंतः रसों के निस्सरण आदि का नियमन-संचालन करते हैं। नाभि के आसपास चार लम्बर गैग्लियाँन, उन्हीं से लगे हुए चार सेक्रल गैग्लियान तथा उससे नीचे एक कावसीजियल गैग्लियान कुल नौ गैग्लियान होते हैं। स्थूल शरीर के पोषण एवं विकास से सम्बन्धित लगभग सभी स्थूल संस्थानों से इनका सम्बन्ध होता है। आमाशय तथा पाचन संस्थान, गुर्दे तिल्ली, जिगर आदि के महत्त्व सर्व विदित हैं। इनका सबका नियंत्रण- सुसंचालन इन्हीं गैग्लियान केन्द्रों से होता है। नये शरीर निर्माण की प्रणाली, प्रजनन संस्थान भी अपनी अद्भुत क्षमताओं सहित इन्हीं केन्द्रों के नियंत्रण में कार्य करती है। नाभि क्षेत्र के लम्बर गैग्लियानों का हस्तक्षेप हृदय क्षेत्र में भी है। हृदय क्षेत्र में ग्यारह ‘थोरैसिक’ गैग्लियान होते हैं। कई क्षेत्रों में ‘लम्बर’ और ‘थोरैसिक’ दोनों मिलकर भी कार्य करते हैं।

शरीर के महत्त्वपूर्ण संस्थानों का नाभि से सम्बन्ध शरीर शास्त्रियों के लिए रहस्य हो सकता है किन्तु आत्म विज्ञान से विदित है कि नाभिचक्र का वह चुम्बकत्व आजीवन बना रहता है जिसके आधार पर माता के शरीर से आवश्यक अनुदान खींचने में गर्भस्थ शिशु समर्थ रह सका था। ट्राँजेस्टर में छोटा सा ‘क्रिस्टल’ लगा रहता है। उस यंत्र की सारी मशीनरी अपना काम तभी ठीक तरह कर पाती है जब यह ‘क्रिस्टल’ सही स्थिति में हो। नाभि केन्द्र के चुम्बकत्व को भी यही संज्ञा दी जा सकती है। उसमें आदान-प्रदान की उभय पक्षीय क्षमता विद्यमान् है। अनन्त अन्तरिक्ष से आवश्यक शक्ति खींचने और धारण करने और समीपवर्ती अवयवों से लेकर दूरस्थ अंगों तक को वह अदृश्य एवं अविज्ञान सामर्थ्य प्रदान करने का कार्य इस चुम्बकत्व का ही है।

शरीर को अनेक प्रकार की ऊर्जा चाहिए; जिन्हें वह अपनी चुम्बक शक्ति के द्वारा खींचता है। वातावरण का कितना प्रभाव शरीर पर पड़ता है इसे हर कोई जानता है। कहाँ का जलवायु शरीर पर क्या प्रभाव डालता है। इसे हम प्रत्यक्षतः देखते हैं। बहुमूल्य आहार प्राप्त होते रहने पर भी घटिया जलवायु के क्षेत्र में रहने वाले रुग्ण दुर्बल रहते हैं और स्वल्पकाल में ही जीवन समाप्त कर देते हैं। इसके विपरीत, जहाँ का वातावरण सशक्त है वहाँ के निवासी घटिया भोजन मिलने पर भी बलिष्ठ बने रहते हैं।

मोटा तगड़ा शरीर भी सामान्य सा भार वहन करने और दौड़-धूप में संलग्न रहने के अतिरिक्त और कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य न कर सकेगा। प्रगतिशील मनुष्यों के शरीर में स्फूर्ति पाई जाती है। उनका प्रत्येक अवयव प्रशिक्षित कलाकारों की तरह अपना काम करने में कुशल होता है। इन्द्रियाँ काबू में रहती है और नियत निर्धारित क्रम से अपने सुव्यवस्थित क्रिया कौशल का परिचय देती है। यही कारण है कि वे सामान्य मनुष्यों की तुलना में कई गुने परिमाण में उत्कृष्ट स्तर का काम कर पाते हैं। यह उनकी सफलता का बहुत बड़ा कारण होता है।

शरीर के लिए आवश्यक इस प्रकार की सूक्ष्म शक्तियाँ, मात्र अन्न, जल, वायु प्राप्त नहीं हो सकतीं, उसकी पूर्ति ब्रह्माण्ड व्यापी उन शक्ति स्रोतों से भी होती है जो दृश्य रूप में अनुभव में तो नहीं आते पर अपनी महत्ता सिद्ध करते रहते हैं। पृथ्वी का काम अपने भीतरी उत्पादनों से ही नहीं चल जाता, वरन् सूर्य से आने वाली गर्मी और रोशनी से उसे जीन संचार का लाभ मिलता है। न केवल सूर्य से वरन् वह अन्य ग्रहों से भी बहुत कुछ प्राप्त करती है। ग्रहों से ही क्यों उसका अपना उपग्रह चन्द्रमा तक ज्वार-भाटा से लेकर और भी न जाने क्या-क्या सहायता देकर धरती की सजीवता बनाये रहने में सहायता देता है। यदि वे अन्तर्ग्रही अनुदान न मिलें तो पृथ्वी निर्जीव, निस्तब्ध ही नहीं बन जाएगी वरन् अपना अस्तित्व बनाये रहने में भी समर्थ न हो सकेगी। ठीक यही बात मनुष्य शरीर के सम्बन्ध में भी लागू होती है।

नाभि स्थल का शारीरिक दृष्टि से कोई विशेष महत्त्व भले ही न हो पर आध्यात्मिक दृष्टि से उसकी उपयोगिता आजीवन वैसी ही बनी रहती है जैसी कि भ्रूण काल में थी। पृथ्वी ध्रुव क्षेत्र में सन्निहित अपनी चुम्बकीय शक्ति से अन्तर्ग्रही ऊर्जा को आकर्षित करती और उससे अपनी महत्त्वपूर्ण आवश्यकताएँ पूरी करती है। ठीक इसी प्रकार नाभि चक्र का ध्रुव प्रदेश शरीर को समर्थ एवं सुव्यवस्थित बनाये रहने वाली विशिष्ट ऊर्जा को आकाश से खींचता है। यदि व चक्र प्रसुप्त स्थिति में है तो उसकी आकर्षण शक्ति न्यून होगी और मात्र आहार पर ही निर्वाह चलाना पड़ेगा किन्तु यदि नाभि चक्र के चुम्बकत्व को साधना योग द्वारा जाग्रत किया जा सके तो उसकी आकर्षण क्षमता सहज हो बढ़ जाएगी और उसकी प्रखरता के आधार पर इतना कुछ अदृश्य अनुदान प्राप्त किया जा सकेगा जो रक्त माँस आदि स्थूल सम्बन्धों की अपेक्षा कम नहीं वरन् कुछ अधिक ही उपयोगी है।

अन्नमय कोश का प्रवेश द्वार नाभि चक्र है। इस केन्द्र की समर्थता एवं उपयोगिता सदा बनी रहती है। दिव्य शक्तियों का शरीर में प्रवेश इसी मार्ग से होता है। इस सन्दर्भ में योग ग्रन्थों में कितने ही उल्लेख मिलते हैं। यथा-

पातंजलि योग दर्शन में नाभि चक्र की साधना से काया की भीतरी स्थिति की सूक्ष्म जानकारी मिलने का वर्णन हैं।

नाभिचक्रे काय व्यूह ज्ञानम्-पातंजलि योग सूत्र

नाभि चक्र से संयम करने से काय के चक्र व्यूह का ज्ञान होता है।

ऐसा ही उल्लेख योग रसायन ग्रंथ में भी है-

अन्नमय-कोश का प्रवेश द्वार: नाभि-चक्र

अन्नमय-कोश का प्रवेश द्वार: नाभि-चक्र

नाभिचक्रे यदा कुर्याद्धारणाँ योगविद्यदि। शरीराभ्यन्तरे सर्वसंस्थानं तु विलोकयेत्-योग रसायन

जिस काल में योगी नाभि चक्र में धारण करता है, उस समय वह शरीर के सम्पूर्ण अभ्यन्तर शरीर संस्थान को देख लेता है।

केचित्तद्योगतः पिण्डा भूतेभ्यः संभवा क्वचित्। तस्मित्रन्नमय ; पिण्डो नाभिमण्डलस स्थितः॥ त्रिशिख ब्राह्मणोपनिशद्

(रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि मज्जा, वीर्य आदि सप्त ) धातुओं के योग से प्राणी के पिण्डों की उत्पत्ति होती है। उनमें से नाभि मण्डल में अन्नमय पिण्ड है।

तृतीयं नाभिचक्रं स्यात्तन्मध्ये तु जगत् स्थितम्। पंचावर्ता मध्यशक्ति चिन्तयेद्विद्यु दाकृति॥ ता ध्यात्वा सर्वसिद्धीना भाजर्न जायते बुधः-योगराजोपनिषद्

नाभि चक्र में यह भौतिक जगत अवस्थित है। पंचा वृत्त – पाँच तत्त्वों से विनिर्मित विद्युत शक्ति का इससे ध्यान करना चाहिए। ऐसा ध्यान करने में साधक सभी भौतिक सिद्धियाँ प्राप्त कर लेता है।

नाभिकन्दादधः स्थानं कुण्डल्या द्वयंगुलं मुने। अश्टप्रकृतिरुपा सा कुण्डली मुनिसत्तम्-जगत दर्शनोपनिशद्

नाभि कन्द के नीचे कुण्डलिनी शक्ति का निवास है। अष्ट प्रकृति की प्रतीक अष्ट सिद्धियाँ उसमें कुण्डली मारकर बैठी हुई है।

रावण किसी शस्त्र से मर नहीं सकता था क्योंकि उसकी नाभि में अमृत का कुण्ड था। उसे सुखाये बिना यह असुर वध संभव नहीं है। यह भेद राम को विभीषण ने बताया। राम ने वह कुण्ड सुखाकर रावण मारा। इससे प्रकट है कि शरीर की स्थिति सुदृढ़ बनाने के लिए नाभि चक्र के माध्यम से कितनी बड़ी सफलता प्राप्त की जा सकती है। अध्यात्म रामायण में यह प्रसंग इस प्रकार आता है-

नाभि देशेऽमृतं तस्य कुण्डलाकार संस्थितम्। तच्छोशयान अस्त्रेण तस्य मृत्युस्ततो भवेत्॥

विभीशण वचः श्रुत्वा रामः शीघ्र पराक्रमः। पावकास्त्रैण संयोज्य नाभि विव्याव राक्षसः- अध्यात्म रामायण

यह विभीषण की उक्ति है-संकेत है कि रावण की नाभि में कुण्डलाकार स्थित अमृत को अग्निबाण से सुखा दें, तभी उसकी मृत्यु होगी तब राम ने बड़ी फुर्ती से अपने पावकास्त्र से रावण की नाभि को बेध डाला। यह अमृतत्व पतनोन्मुख करके फुलझड़ी की तरह जलाकर तनिक सा विनोद भी खरीदा जा सकता है। उसे मधुमक्खी की तरह संचित करके अपना श्रेय और दूसरों का सुख बढ़ाया जा सकता है। प्रजनन संयंत्र के इर्द-गिर्द अनेकानेक क्षमताओं के दिव्य केन्द्र बिखरे हुए हैं। इनमें शरीर शास्त्री कुछ हारमोन ग्रन्थि स्रावों तथा उत्तेजना परक विद्युत प्रवाहों के संबंध में ही थोड़ी सी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इतने से भी वे मानते हैं कि मस्तिष्क के बाद अवयवों की दृष्टि से हृदय और स्फुरण की दृष्टि से काम संस्थान की महत्ता है। आत्म-विद्या के अनुसार नाभिचक्र प्राण सत्ता का – साहसिक पराक्रम शीलता एवं प्रतिभा को केन्द्र माना गया है । इस स्थान की ध्यान साधना करते हुए इस प्राण-शक्ति को निग्रहित और दिशा नियोजित किया जाता है। फलतः उसके सत्परिणाम भी ओजस्विता की वृद्धि के रूप में सामने आते हैं।

परम पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी

 

Comments: 2

  1. subala srivastava says:

    Nabhi chakra me sadhana ka abhyas atyant laabhkari yoga
    .

  2. AKHILESH KUMAR TRIPATHI says:

    Very detailed and interesting one. Thanks

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