Need of Guru in Tantra Sadhana
Aatmanusandhan – Online Global Class – 27 नवंबर 2022 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
विषय: तन्त्र साधना में गुरू की आवश्यकता
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
शिक्षक: श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार)
समग्र सृष्टि एक नियम व्यवस्था (system) के अंतर्गत चल रही है जिसका ज्ञान विज्ञान ‘तन्त्र विज्ञान‘ है । इसकी जटिलताएं (विविधताओं) को समझने हेतु ‘गुरू‘ की शिक्षण – प्रशिक्षण आवश्यकता/ अनिवार्यता होती है ।
संसार, गतिमान है; अतः हर क्षण बदल रहा है (परिवर्तनशील) । जितने स्तर पर हम परिष्कृत होते हैं उतने स्तर तक ‘सत्य’ को आत्मसात कर पाते हैं ।
प्राचीन भारत :-
1. विश्वगुरू (आत्मज्ञानी/ ब्रह्मज्ञानी)
2. सोने की चिड़िया (समृद्ध)
(तपोनिष्ठ महाप्राज्ञ ब्रह्मर्षि) ‘गुरु‘ जो ज्ञान व समृद्धि दोनों का शिक्षण प्रशिक्षण प्रेरणा देवें अर्थात् जीवन के लक्ष्य:-
1. स्वयं को जानना (आत्मबोध)
2. धरा को स्वर्ग बनाना (तत्त्वबोध)
को सहज बना देवें ।
‘गु‘ शब्द का अर्थ है – अन्धकार एवं ‘रू‘ शब्द का अर्थ है – रोकने वाला । अन्धकार को दूर करने वाला गुरू होता है । हमारे अंतः करण के अज्ञान स्वरूप अन्धकार का नाश करने वाला – गुरु ।
मन्त्र, साधना विधान, स्वाध्याय व संयम का जैसा महत्व है , वैसा ही गुरू के सहयोग/ शिक्षण प्रशिक्षण का भी है ।
जिस गुरू का संपर्क प्राप्त होने से शिष्य को परमानंद (अखंडानंद) प्राप्त हो जाए, वास्तव में ऐसे ही गुरू का वरण करना चाहिए ।
गुरू बिना तन्त्र मार्ग में प्रगति असंभव ही माना जा सकता है ।
Freedom (स्वतंत्रता/ मुक्ति) दिलाने वाले system (व्यवस्था/ विज्ञान/ तन्त्र) को spritualism (अध्यात्म) कहते हैं ।
(कबीरदास जी कहते हैं) सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय। सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय ॥ (सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते ।)
गुरूदेव (पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी) :-
बाल्यकाल से ही कुरीतियों के उन्मूलन में लग गए (घर में काम करने वाली छपको माता की अछूत बस्ती में जाकर सेवा) ।
12 वर्ष की उम्र में वसंत पंचमी पर अपने गुरु स्वामी सर्वेस्वरानंद जी की प्रेरणा/ दिशा – निर्देश पर साधना पथ पर अग्रसर हुए ।
18 वर्ष की उम्र में स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय हो गए । भूमिगत कार्य करते रहे और समय आने पर जेल भी गए । अपनी धुन में मतवाले होकर संग्राम में शामिल होते थे इसलिए इनके साथी इन्हे ‘मत्त’ जी कहने लगे (श्रीराम मत्त।
(साधना पथ) 24 वर्षों तक जौ की रोटी व गाय के दूध की छाछ पर 24-24 लाख के 24 गायत्री महामंत्र के महापुरश्चरण संपन्न किए ।
हिमालय क्षेत्र में साधना (सुनसान के सहचर) ।
अपने निश्छल व पवित्र प्रेम से सींचकर करोड़ों भावनाशील लोगों को जोड़कर विशाल गायत्री परिवार का निर्माण ।
धर्मतंत्र से लोकशिक्षण की प्रक्रिया संपन्न कराते हुए सहस्रों शक्तिपीठों व प्रज्ञापीठों की स्थापना ।
गायत्री तपोभूमि मथुरा से लेकर शांतिकुंज की स्थापना की ।
विचार क्रांति अभियान का सूत्रपात किया । समस्त वेद आर्ष ग्रन्थों का हिन्दी भाष्य सहित जीवन के हर पहलु का समाधान प्रदान करनेवाली 3000 पुस्तकों की रचना कीक्ष।
गायत्री (प्राण विद्या) व यज्ञ (श्रेष्ठ कर्म – आत्मकल्याणाय लोककल्याणाय वातावरण परिष्कराय) को घर-घर व जन-जन तक पहुंचाने हेतु शंखनाद किया ।
समाज सुधार की दिशा में आगे बढ़ते हुए इन्होंने सभी वर्गों को गायत्री साधना करने का अधिकार दिया ।
80 वर्ष के जीवन में समय के हर एक क्षण का सदुपयोग करते हुआ इतना विराट कार्य किया जो एक वशिष्ठ व विश्वामित्र स्तर के ऋषि ही कर सकते हैं ।
आगे का कार्य और भी विराट – जिस हेतु स्थूल काया को छोड़ सुक्ष्म सत्ता में प्रवेश कर गये ।
शिष्य की पात्रता का सर्वप्रथम आधार श्रद्धा/ विश्वास/ तीव्र जिज्ञासा (अभीप्सा) है । स्वाध्याय व गुरु कृपा से सफलता अवश्यंभावी हो जाती है ।
ब्रह्मानंदं परमसुखदं केवलं ज्ञानमुर्तिं । द्वान्दातीतं गगन सदृशं तत्वमास्यादी लक्ष्यं । एकं नित्यं विमलं अचलं सर्वधिः साक्षीभूतं । भावातीतं त्रिगुण रहितं सद्गुरुं तं नमामि ।
मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका, नमोऽस्तु गुरुसत्तायै, श्रद्धाप्रज्ञायुता च या ।।
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः । गुरूर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
जिज्ञासा समाधान
प्रज्ञोपनिषद् का स्वाध्याय करें । उसमें हर एक वर्णाश्रम व्यक्तित्व हेतु जीवन जीने की कला का मार्गदर्शन है ।
Time management (समय संयम) से हम लक्ष्य प्राप्ति हेतु पर्याप्त समय का वरण कर सकते हैं । समय धन सभी को समान रूप से मिला है ।
मानवी चेतना को पाँच भागों (पंचकोश) में विभक्त किया गया है:-
1. अन्नमय कोश – इन्द्रिय चेतना ।
2. प्राणमय कोश – जीवनी शक्ति ।
3. मनोमय कोश – विचार बुद्धि ।
4. विज्ञानमय कोश – अचेतन सत्ता व भाव प्रवाह ।
5. आनन्दमय कोश – आत्म बोध-आत्म जागृति।
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1977/March/v2.15
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
सार-संक्षेपक: विष्णु आनन्द
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