Nirvanopnishad
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 05 Dec 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
SUBJECT: निर्वाण उपनिषद्
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
भावार्थ वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)
श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (सासाराम, बिहार)
‘निर्वाण‘ शारीरिक स्थिति से परे परिष्कृत चेतनात्मक स्थिति है । जीवन-मुक्त, विदेह, त्रिगुणातीत, तुरीयातीत, अवधूत अवस्था को निर्वाण की स्थिति में समझा जा सकता है ।
“वासना – शांत, तृष्णा – शांत, अहंता – शांत, उद्विग्नता – शांत, समाधि – भाव समाधि, (भक्त भगवान एक – उन्मुनी/ निर्विकल्पक अवस्था) एकत्व @ अद्वैत ।”
मोक्ष @ मुक्ति – त्रिविध दुःखों से निवृत्ति @ त्रिविध ताप शांत । ज्ञानेन मुक्ति । @ ज्ञान रूपी प्रकाश (उत्कृष्ट चिंतन) से अज्ञान रूपी अन्धकार छंटते हैं । फलस्वरूप आत्मसाधक, आत्मा की शाश्वतता (आत्मबोध – परमहंस सोऽहम) व संसार की नश्वरता /परिवर्तनशीलता को समझते हुए (तत्त्वबोध – वियोगोपदेशः) योग्य आचरण (आदर्श चरित्र के धारक शालीन व्यवहार / हंसाचारी – नीर-क्षीर विवेकी) करते हैं ।
हम हर एक शब्द को ईश्वरवाची अर्थों में लें अर्थात् हम विधेयात्मक दृष्टिकोण के धारक बनें तो हम तनावमुक्त जीवन जी सकते हैं । गुरूदेव कहते हैं, जीवित कौन ? – जीवित वही जिनका मस्तिष्क – ठण्डा, रक्त – गरम, हृदय – कोमल व पुरूषार्थ – प्रखर हो ।
नाद साधना: प्रिय/ अप्रिय – ध्वनि, भाव भंगिमा, विचार व संकल्पों (बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती व परा) में ईश्वरीय आनंद (समरूपता/ एकरूपता @ अद्वैत) की अनुभूति ।
बिन्दु साधना – सर्वत्र साक्षीभूत ब्रह्म के दर्शन ।
“मनोनिरोधिनी कन्था ।” परिष्कृत मनोमयकोश के धारक – धैर्यवान ।
परिष्कृत पंचकोश – मुक्ति हेतु परमात्म प्रदत्त दिव्य साधन/ दैवीय संपदा हैं । पंचकोश के विकृत स्वरूप बन्धन कारी हैं । अतः हम गायत्री पंचकोश साधना के 19 क्रियायोग के (सजल) श्रद्धापूर्ण, सहज – जाग्रत/ आत्मभावेण (प्रखर प्रज्ञा) नियमित निष्ठापूर्वक प्रयोगात्मक अभ्यास से लक्ष्य का वरण कर सकते हैं ।
जिज्ञासा समाधान
आत्मसाधना में अनुव्रत को स्थान दिया जाए । छोटे छोटे संयम से भी मन धीरे-धीरे सधता जाता है @ slow and steady wins the race.
मन को साधने में तन्मात्रा साधना का प्रभाव महती है । मन की प्रवृत्ति रस (सुख) लेने की होती है । साधनात्मक रस चखने के बाद मन साधना में सुख लेने लगती है @ तन्मे मनः शिवशंकल्पमस्तु ।
दया – दुलार तक ही सीमित नहीं प्रत्युत् सुधारात्मक प्रक्रिया की डांट फटकार में भी सन्निहत है । मां, बच्चों के दुलार संग उन्हें सदाचार सिखाने के लिए डांट भी लगाती हैं; इसमें माता – संतति के बीच प्रेम (आत्मीयता) अक्षुण्ण रहती है @ कुपुत्रो जायेत क्वचदिपि कुमाता ना भवति ।
कुण्डलिनी जागरण अर्थात् संकीर्णता का रूपांतरण विस्तार में । व्यक्तित्व, व्यक्तिगत स्वार्थ तक सीमित ना रहकर समष्टि कल्याण की ओर प्रवृत्त हो जाए तो कुण्डलिनी शक्ति का जागरण हो रहा है ।
जाति को जन्म-विशेष बनाना सामाजिक कुरीतियां को जन्म देती हैं । जाति – समान विचारधारा के व्यक्तित्व based हो सकती है, faculty based हो सकती है । वे लोग एक साथ सोद्देश्य कार्य करते हैं ।
हमें अपनी बात परोसने की कला आनी चाहिए । तन की अपेक्षा सर्वसामान्य के मन पर राज कायम किया जा सकता है और वो संभव बन पड़ता है निःस्वार्थ प्रेम से (अजातशत्रु)।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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