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Paingala Upanishad (पैंङ्गल उपनिषद्) -2

Paingala Upanishad (पैंङ्गल उपनिषद्) -2

पंचकोश साधना ~ Online Global Class – 07 June 2020 (5:00 am to 6:30 am) – प्रज्ञाकुंज सासाराम – प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

Please refer to Recorded Video Class

विषय – पैंङ्गल उपनिषद् -2

प्रसारण/Admin. आ॰ अमन कुमार/आ॰ अंकूर सक्सेना,
टीकावाचन. आदरणीय किरण चावला (USA)

श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी


यथावत् पूर्णतो ज्ञानं संसारस्य च स्वस्य च। नूनामित्येब विज्ञानं प्रोक्तं विज्ञान वेतृभिः।24।
(गायत्री मंजरी) संसार का और अपना ठीक ठीक और पूरा पूरा ज्ञान होने को ही विज्ञान वेत्ताओं ने विज्ञान कहा है।

सफल शिक्षण पद्धति में हम सुलझते हैं ना की उलझते हैं| अतः एक योग्य शिक्षक अपने छात्रों के रूचि व विशेषता का ध्यान रखते हुए अपनी शिक्षण शैली से छात्रों की जिज्ञासा को शांत करते हैं और उनके प्रगति का मार्ग प्रशस्त करते हैं| सत्यान्वेषी बुद्धि को प्रज्ञा कहते हैं|

पैङ्गल ऋषि ने पुन: याज्ञवल्क्य ऋषि से प्रश्न किया कि समस्त लोकों की सृष्टि, उनका पालन और अन्त करने वाला विभु ईश्वर किस तरह जीवभाव को प्राप्त होता है? ॥१॥

याज्ञवल्क्य जी ने स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के उद्भवपूर्वक जीव और ईश्वर के स्वरूप की विवेचना की:-

ईश्वर ने पंचीकृत महाभूतों के अंशों को लेकर व्यष्टि और समष्टि के स्थूल शरीरों का क्रमशः सृजन किया है।

पृथ्वी तत्त्वांश से कपाल (head), चर्म (skin), आँते (intestines), अस्थि , मांस (muscles) व नख (nails) निर्मित हैं|

जल तत्त्वांश से रक्त (blood), मूत्र (urine), लार (sliva) व पसीना (sweat) आदि बने हैं।
अग्नि तत्त्वांश से क्षुधा (appetite), तृष्णा (desire), उष्णता (heat), मोह (attachment), मैथुन (mating) आदि बने हैं।
वायु तत्त्वांश से चलना, उठना, बैठना, श्वास आदि हैं। आकाश तत्त्वांश से काम, क्रोध आदि हैं।

इस प्रकार उपरोक्त सबके समुच्चय स्वरूप एवं संचित कर्मों से निर्मित त्वचा आदि से युक्त बाल्यावस्था आदि के भाव वाला अनेक दोषों का आश्रय रूप यह स्थूल शरीर होता है ॥२॥

 

इसके पश्चात् अपञ्चीकृत महाभूतों के रजोगुण युक्त अंश के ३ भागों को समन्वित करके प्राण का सृजन किया गया। प्राण, अपान, व्यान, उदान व समान ये पंच प्राण हैं। इसी प्रकार नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त व धनंजय ये पंच उपप्राण हैं। हृदय, आसन, नाभि, कण्ठ व सर्वाङ्ग प्राण के स्थान हैं।आकाश आदि पञ्चमहाभूतों के रजोगुणयुक्त अंश के चतुर्थ भाग से कर्मेन्द्रियों का सृजन किया गया। वाणी, हाथ, पैर, गुदा व उपस्थ इसके प्रकार हैं। वचन, आदान, गमन, विसर्जन व आनन्द ये इनके के विषय हैं।


इस प्रकार पञ्चमहाभूतों के सत्त्व अंश के तीन भागों से अन्त:करण का सृजन किया। अन्त:करण में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार व उनकी वृत्तियाँ समाहित हैं। संकल्प, निश्चय, स्मरण, अभिमान ल अनुसन्धान (research) क्रमशः इनके विषय हैं। गला, मुख, नाभि, हृदय व भौंहों के मध्य का भाग इनके स्थान हैं। महाभूतों के सत्त्व अंश के चतुर्थ भाग से ज्ञानेन्द्रियों का सृजन किया गया। श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और घ्राण ये इनके प्रकार हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध इनके विषय हैं। दिशाएँ, वायु, अर्क, वरुण, अश्विनीकुमार, अग्नि, इन्द्र, उपेन्द्र, मृत्यु के देवता यम, चन्द्र, विष्णु, ब्रह्मा और शिव ये सभी देवगण इन इन्द्रियों के स्वामी हैं ॥३॥

इसके बाद अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय व आनन्दमय ये पंचकोश हैं।

अन्नमय कोश वह है, जो अन्न से उत्पन्न होता है, उसी से प्रवृद्ध होता है और अन्ततः अन्न-रसमय पृथिवी में ही विलीन हो जाता है। यही स्थूल शरीर है
कर्मेन्द्रियों के साथ पंचप्राणों का समुच्चय प्राणमय को कहलाता है।
ज्ञानेन्द्रियों सहित मन मनोमय कोश कहलाता है।
ज्ञानेन्द्रियों के साथ बुद्धि का योग विज्ञानमय कोश कहलाता है।
इन तीनों कोशों का समुच्चय ही लिङ्ग शरीर है।

जिसमें अपने स्वरूप का भान नहीं रहता है, वह आनन्दमय कोश है। इसे ही कारण शरीर कहते हैं  ॥४॥

इस प्रकार पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच कर्मेन्द्रिय, पंच प्राणादि, पंच महाभूत, अन्त:करण चतुष्टय, काम, कर्म व अविद्या ये आठ पुरियों का समूह कहलाता है ॥५॥

ईश्वर की आज्ञा से विराट् ने व्यष्टि में प्रविष्ट होकर तथा बुद्धि में प्रतिष्ठित होकर विश्वत्व को प्राप्त किया अर्थात् विश्व की संज्ञा प्राप्त की। विज्ञानात्मा, चिदाभास, विश्व, व्यावहारिक, जाग्रत, स्थूल देहाभिमानी और कर्मभू ये विश्व के विभिन्न नाम हैं  ॥६॥

ईश्वर के आदेश से सूत्रात्मा, व्यष्टि के सूक्ष्म शरीर में प्रविष्ट होकर मन में अधिष्ठित होकर तैजसत्व को प्राप्त हुआ। तैजस, प्रातिभासिक और स्वकल्पित ये तैजस के नाम हैं ॥७॥

ईश्वर की आज्ञा से माया की उपाधि से युक्त अव्यक्त, व्यष्टि के कारण शरीर में प्रविष्ट होकर प्राज्ञत्व को प्राप्त हुआ। प्राज्ञ, अविच्छिन्न, पारमार्थिक और सुषुप्ति-अभिमानी ये प्राज्ञ के नाम हैं ॥८॥

पारमार्थिक जीव के ऊपर अव्यक्त का अंश रूप अज्ञान आच्छादित है। वह भी ब्रह्म का ही अंश है। ‘तत्त्वमसि‘ आदि वाक्यों से ब्रह्म की एकता प्रकट होती है, परन्तु व्यावहारिक और प्रतिभासिक अंश ब्रह्म से इस प्रकार की एकता नहीं रखते ॥९॥

अन्त:करण में जो चैतन्य प्रतिबिम्बित होता है, वही अवस्थात्रय (जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति) का भागी होता है। चैतन्य तत्त्व ही उपर्युक्त तीनों अवस्थाओं को प्राप्त होकर घटीयन्त्र के समान उद्विग्न (चंचल) होता है, जो निरन्तर जन्म-मरण को प्राप्त होता रहता है ॥१०॥

इस प्रकार जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मूच्र्छा व मरण ये पंच अवस्थाएँ होती हैं।

जाग्रत् अवस्था उसे कहते हैं, जिसमें श्रोत्र आदि ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने देवता के शक्ति से युक्त होकर शब्दादि विषयों को ग्रहण करती हैं। इसे अवस्था में जीव भूमध्य में निवास करते हुए पैरों से लेकर मस्तक पर्यन्त व्याप्त रहता है। और अपनी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के समस्त कार्यों को सम्पादित करता हुआ उनके फल भी प्राप्त करता है। वह अपने इन अर्जित कर्मों का फल लोकान्तर में भी भोगता है। वह सार्वभौम के समान लौकिक कार्यों से थककर विश्रान्ति पाने हेतु अन्दर के विश्राम स्थल में जाने की इच्छा से मार्ग में ही आश्रय लेकर ठहरता है ॥११॥

इन्द्रियों के अपने कार्यों से उपराम हो जाने पर, जाग्रत् अवस्था के संस्कारों से ग्राह्य-ग्राहक रूप जो अर्ध प्रबोधवत् स्फुरणा होती है, उसे स्वप्नावस्था कहते हैं।

उस अवस्था में विश्व (स्थूल शरीर भी व्यष्टिचेतना शक्ति) जाग्रत् अवस्था के व्यवहार के लोप हो जाने से नाड़ी के बीच में संचरित होता हुआ तैजसत्व को प्राप्त करता है।

तत्पश्चात् अपनी वासना के अनुरूप अपने ही भासा (तेज) के द्वारा एक विचित्र जगत् की सृष्टि करता है और स्वयं ही अपनी इच्छानुसार उसका भोग करता है ॥१२॥

चित्त की एकीकरण की अवस्था ही सुषुप्ति अवस्था होती है। जिस प्रकार भ्रमण से थककर पक्षी पंखों को समेट कर अपने नीड़ (घोंसले) की ओर गमन करता है, उसी प्रकार जीव भी जाग्रत् और स्वप्नावस्था के प्रपञ्चों से थक जाने पर अज्ञान में प्रविष्ट होकर आनन्द भोगता है ॥१३॥

अकस्मात् मुद्गर और दण्ड आदि के द्वारा ताड़ित किये जाने पर जिस प्रकार व्यक्ति कम्पित होता है, उसी प्रकार मूर्छा की स्थिति में भी भय और अज्ञान के कारण समस्त इन्द्रियाँ कम्पित होती हैं। यह अवस्था मृत तुल्य होती है ॥१४॥

जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति व मूच्र्छा अवस्थाओं से भिन्न एक अवस्था है, जो ब्रह्म से लेकर तिनका पर्यन्त सभी जीवों के लिए भयप्रदा है, जिसके प्राप्त होने पर स्थूल शरीर को परित्याग करना पड़ता है, वह मरणावस्था होती है ॥१५॥

मृत्यु हो जाने पर कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों, उनके विषय (तन्मात्राओं), प्राणों को एकत्र करके काम और कर्म से समन्वित हुआ जीव अविद्या से आवेष्टित होकर अन्य शरीर को प्राप्त करके दूसरे लोक (परलोक) में गमन करता है। पूर्वकृत कर्मों के फलभोग में फँसे रहने के कारण वह (जीव), उसी प्रकार शान्ति प्राप्त नहीं कर पाता, जिस प्रकार मँवर में फँसा हुआ कीट ॥१६॥

सत्कर्मों के परिपक्व हो जाने पर जब अनेक जन्मों के पश्चात् मनुष्य की मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न होती है, तब वह किसी सद्गुरु का अवलम्बन लेकर, लम्बे समय तक उनकी सेवा करके अर्थात् ज्ञान प्राप्ति के पश्चात्) बन्धन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥१७॥

अविचार करने से बन्धन और विचार (सविचार) करने से मोक्ष होता है।
इसलिए सदैव विचार (सविचार) करना चहिए। अध्यारोप और अपवाद से स्वरूप का निश्चय किया जा सकता है।
इसलिए सदा जगत्, जीव और परमात्मा के विषय में ही विचार (चिन्तन) करना चाहिए। जीव भाव और जगद्भाव को निराकरण करने से अपने प्रत्यगात्मा (जीव) से अभिन्न केवल ब्रह्म ही अवशिष्ट रहता है ॥१८॥

प्रश्नोत्तरी Q&A with श्री लाल बिहारी सिंह


जो सारे सूर्यों का प्रसव करते हैं वो सविता हैं| सूर्य से ही जगत में प्राण/ऊर्जा का संचार होता हैं| अतः सविता के ध्यान से हम संपूर्ण शरीर को प्राणवान बना सकते हैं| विचार भी प्राण के carrier हैं अतः विचारों के माध्यम भी से प्राण का संचरण होता है| अतः विचारों के माध्यम से भी हम प्राणवान बन सकते हैं और प्रेरणा का प्रसार कर सकते हैं|

पंचीकृत महाभूत अर्थात् स्थूल (visible) व अपंचीकृत महाभूत अर्थात् सुक्ष्म (invisible)| Invisible को visible बनाने के लिये पंचीकरण अर्थात् condensed form में लाना होता है|

APMB अभ्यास हेतु “अमाशय (stomach), मुत्राशय (Urinary bladder), व मलाशय (Rectum)” खाली होने चाहिए|

योगाभ्यास का उद्देश्य ईश्वर की “उपासना, साधना व अराधना” है| जिस किसी भी अभ्यास से ईश्वर के सान्निध्य की अनुभूति हो वो योग है|अखंडानंद का बोधत्व सहज समाधि तुरीय अवस्था है|

महामुद्रा के अभ्यास में प्राण के क्षरण को रोकने से नाड़ी की cleaning बहुत अच्छी होती है|

अपनों से अपनी बात

बाबूजी की पैङ्गल उपनिषद् के द्वितीय अध्याय की कक्षा के सार संक्षेपण में शब्दों के सीमा का विस्तार होने की मूल वजह ~ Maths में गहन रूचि प्रतीत होती है अतः बाबूजी के एक एक शब्द क्रमशः सहजता में अभिवृद्धि करते जा रहे थे अतः भावार्थ के हर एक शब्दों को रखा गया है|

बाबूजी के mode of interpretation का लाभ उठाने हेतु Recorded Video Class को जरूर से जरूर refer का सादर निवेदन है|


Vishnu Anand

 

 

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