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Paingala Upanishada (पैङ्गल उपनिषद्) -3

Paingala Upanishada (पैङ्गल उपनिषद्) -3

🌕 𝐏𝐀𝐍𝐂𝐇𝐊𝐎𝐒𝐇 𝐒𝐀𝐃𝐇𝐍𝐀 ~ 𝐎𝐧𝐥𝐢𝐧𝐞 𝐆𝐥𝐨𝐛𝐚𝐥 𝐂𝐥𝐚𝐬𝐬 – 𝟭𝟰 𝐉𝐮𝐧𝐞 𝟐𝟎𝟐𝟎 (𝟓:𝟎𝟎 𝐚𝐦 𝐭𝐨 𝟔:𝟑𝟎 𝐚𝐦) – 𝗣𝗿𝗮𝗴𝘆𝗮𝗸𝘂𝗻𝗷 𝗦𝗮𝘀𝗮𝗿𝗮𝗺 – प्रशिक्षक 𝗦𝗵𝗿𝗲𝗲 𝗟𝗮𝗹 𝗕𝗶𝗵𝗮𝗿𝗶 𝗦𝗶𝗻𝗴𝗵 @ बाबूजी

🙏ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

📽𝗣𝗹𝗲𝗮𝘀𝗲 𝗿𝗲𝗳𝗲𝗿 to 𝘁𝗵𝗲 recorded 𝘃𝗶𝗱𝗲𝗼.

📔 sᴜʙᴊᴇᴄᴛ. पैङ्गल उपनिषद् – ३

📡 𝗕𝗿𝗼𝗮𝗱𝗰𝗮𝘀𝘁𝗶𝗻𝗴. आ॰ अमन कुमार/आ॰ अंकुर सक्सेना जी

📖 𝗥𝗲𝗮𝗱𝗲𝗿. 𝗠𝗿𝘀. 𝗞𝗶𝗿𝗮𝗻 𝗖𝗵𝗮𝘄𝗹𝗮 (𝗨𝗦𝗔)

🌞 𝗦𝗵𝗿𝗲𝗲 𝗟𝗮𝗹 𝗕𝗶𝗵𝗮𝗿𝗶 𝗦𝗶𝗻𝗴𝗵. उपनिषद् का उद्देश्य सनातन सत्य की खोज का बोधत्व कराना है| मानव का जीवन लक्ष्य इस बोधत्व से ही पूर्ण होता है|
🙏 तत् पदं दर्शितं येनं उस परम सत्य @ अथाह शांति @ अखण्डानंद का बोधत्व कराने वाले सद्गुरु को नमन वंदन है|
🙏 सिद्धांत स्पष्ट (concept clear)हों तो practical error free होता है और सफलता प्राप्त होती है|
🙏 ईश्वर omnipresent हैं तो उसे नि:संदेह अपने अपने क्षेत्रों कर्तव्यरत् हुए पाया जा सकता है| such as भारत वर्ष विश्व-गुरू (ज्ञगनिनामग्रण्यम्) के साथ सोने की चिड़ियाँ (सशक्त व समृद्ध राष्ट्र) था|

🕉 पैङ्गल उपनिषद् ~ तृतीय अध्याय॥

📖 पैङ्गल ऋषि ने याज्ञवल्क्य जी से कहा – मुझे महावाक्यों को विस्तार से समझाये॥१॥
🙏 याज्ञवल्क्य जी बोले – ‘वह तुम हो’ (तत्त्वमसि), ‘तुम वह हो’ (त्वं तदसि), ‘तुम ब्रह्म हो’ (त्वं ब्रह्मासि), ‘मैं ब्रह्म हूँ’ (अहं ब्रह्मास्मि), ये महावाक्य हैं, जिन पर हमे ध्यान करना चाहिए॥२॥

🙏 तत्त्वमसि (𝗧𝗮𝘁𝘃𝗮𝗺𝗮𝘀𝗶) में तत् (𝘁𝗮𝘁) पद सर्वज्ञत्व आदि लक्षण से युक्त, माया की उपाधि से युक्त, सच्चिदानन्द रूप, जगत् योनि रूप अव्यक्त ईश्वर का बोधक है। वही ईश्वर अन्त:करण की उपाधि के कारण भिन्नता का बोध होने से त्वं (𝘁𝘃𝗮𝗺) पद का आलम्बन लेकर प्रकट किया जाता है। ईश्वर की उपाधि माया (𝗺𝗮𝘆𝗮) और जीव की उपाधि अविद्या (𝗮𝘃𝗶𝗱𝘆𝗮) है, इनका परित्याग कर देने से ‘तत्’ और ‘त्वं’ पदों का लक्ष्य उस ब्रह्म (𝗕𝗿𝗮𝗵𝗺𝗮𝗻) से है, जो प्रत्यगात्मा (𝗶𝗻𝗻𝗲𝗿 𝗦𝗲𝗹𝗳) से अभिन्न (𝗻𝗼𝗻-𝗱𝗶𝗳𝗳𝗲𝗿𝗲𝗻𝘁) है॥३॥

🙏 तत्त्वमसि और ‘अहं ब्रह्मास्मि’ इन महावाक्यों के अर्थ पर विचार करना श्रवण (𝗵𝗲𝗮𝗿𝗶𝗻𝗴) कहलाता है।
श्रवण किए हुए विषय के अर्थों का एकान्त में अनुसन्धान करना मनन (𝗿𝗲𝗳𝗹𝗲𝗰𝘁𝗶𝗼𝗻) कहलाता है।
श्रवण और मनन द्वारा निर्णीत अर्थ रूप वस्तु में एकाग्रतापूर्वक चित्त का स्थापन निदिध्यासन (𝗺𝗲𝗱𝗶𝘁𝗮𝘁𝗶𝗼𝗻) कहलाता है।
जब ध्याता व ध्यान के भाव को छोड़कर चित्तवृत्ति वायु रहित स्थान में रखे दीपक की ज्योति के सदृश केवल ध्येय में स्थिर हो जाती है, तब उस अवस्था को समाधि कहते हैं॥४॥

🙏 उसमें आत्मगोचर वृत्तियाँ उत्पन्न होकर अज्ञात (uncognised) हो जाती हैं, जो स्मरण के द्वारा अनुमानित होती हैं। संसार में अनादिकाल से संचित करोड़ों कर्म (deeds) इस अवस्था में ही विनष्ट हो जाते हैं। इसके पश्चात् परिपक्वता प्राप्त हो जाने पर सतत सहस्रों अमृत धाराओं की वर्षा होती रहती है। इसीलिए योग ज्ञाता समाधि को धर्ममेघ कहते हैं। इसके माध्यम से सम्पूर्ण वासनाजाल समाप्त हो जाता है तथा पाप और पुण्य दोनों प्रकार के संचित कर्म समूल विनष्ट हो जाते हैं। यह स्थिति प्राप्त होने पर, पहले जो, ‘तत्त्वमसि’ महावाक्य का आशय परोक्ष रूप से विदित होता था, वही अब हस्तामलकवत् अवरोध रहित स्पष्ट विदित होने लगता है और ब्रह्म का साक्षात्कार प्राप्त हो जाता है, तब योगी जीवन मुक्त हो जाता है॥५॥

🙏 ईश्वर ने पञ्चीकृत भूतों (quintuplicated elements) का पुनः अपञ्चीकरण (non-quintuplication) करने की कामना की। अतः उसने ब्रह्माण्ड और उसके अन्तर्गत लोकों को कार्य रूप से पुन: कारण रूप प्राप्त करा दिया। इसके बाद उसने सूक्ष्म अङ्ग, कर्मेन्द्रियों, प्राणों, ज्ञानेन्द्रियों और अन्त:करण चतुष्टय को एकीकृत करके समस्त भौतिक पदार्थों को उनके कारणभूत पंचक में संयोजित करके भूमि को जल में, जल को अग्नि में, अग्नि को वायु में, वायु को आकाश में, आकाश को अहंकार में, अहंकार को महत् (विराट्) में, विराट् को अव्यक्त में और अव्यक्त को पुरुष में क्रमशः विलीन कर दिया। इस प्रकार विराट्, हिरण्यगर्भ और ईश्वर भी उपाधियों के विलीन हो जाने पर परमात्मा में ही विलीन हो जाते हैं॥६॥

🙏 पञ्चीकृत महाभूतों द्वारा निर्मित और संचित कर्मों से प्राप्त स्थूल देह, कर्मों के क्षय हो जाने तथा सत्कर्मों के परिपाक (ripening) होने से अपञ्चीकृत हो जाती है। वह देह, सूक्ष्मरूप से एकीभूत होकर, कारण रूप को प्राप्त होकर अन्त में उस कारण के भी कारण कूटस्थ प्रत्यगात्मा में विलीन हो जाती है। फिर विश्व, तैजस और प्राज्ञ की भी अपनी – अपनी उपाधियों के लय हो जाने से ये सभी प्रत्यगात्मा में विलीन हो जाते हैं॥७॥

🙏 अण्ड अपनी कारण सत्ता के साथ ज्ञानाग्नि में भस्म होकर परमात्मा में विलीन हो जाता है। इस प्रकार ब्राह्मण पुरुष को समाहित चित्त होकर सदैव ‘तत्’ और ‘त्वं’ पदों के साथ ऐक्य करते रहना चाहिए। इस प्रक्रिया से उसी प्रकार आत्म साक्षात्कार होने लगता है, जिस प्रकार मेघों के छूट जाने से अंशुमान् (sun) का प्रकाश प्रकट हो जाता है ॥८॥

🙏 कलश के अन्दर स्थित दीपक के सदृश, शरीर में स्थित धूम रहित ज्योति स्वरूप अङ्गष्ठ परिमाण आत्मा का ध्यान करके जो मुनि अन्त:प्रान्त में स्थित प्रकाशयुक्त कूटस्थ, अव्यय आत्मा का ध्यान नित्य सोते समय तथा मृत्यु के समय भी करता है, वह जीवन्मुक्त है, धन्य है, कृतकृत्य है, ऐसा मानना चाहिए। जीवन्मुक्तत्व को छोड़कर वह इस शरीर का परित्याग करके अदेह और मुक्ति को उसी प्रकार प्राप्त हो जाता है, जिस प्रकार पवन स्पन्दन रहित हो जाता है अर्थात् पवन का प्रवाह बन्द हो जाता है ॥९-११॥

🙏 तत्पश्चात् वह अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अरस और अगन्धवत् होकर अव्यय, अनादि, अनन्त, महत् से भी परे, ध्रुव, निर्मल तथा निरामय ब्रह्म ही शेष बचता है॥१२॥

🙏 तत् ब्रह्मवाची हैं| ईश्वर कौन हैं? – तत्वमसि – तुम वह हो, त्वं ब्रह्मसि – तुम ब्रह्म हो, अहं ब्रह्मास्मि – मैं ब्रह्म हूँ @ सोऽहम् – मैं वह हूँ| तत् सवितु: वरेण्यं – उस (परब्रह्म) सविता (समष्टिगत चेतना) का हम वरण करें|

🙏 चेतना को हम किसी firm shape में define नहीं कर सकते हैं| वह सर्वव्यापी है जो जिस मात्रा में धारण करता है उस रूप में स्वयं को प्रकट करता है|

🙏 जब भी जीवन में निराशा हो तो स्मरण रखें ‘तुम वह हो’ (त्वम् असि) अर्थात् ‘तुम ब्रह्म हो‘ (त्वं ब्रह्मसि) और निरंतर साधना से जब साधक बोधत्व को प्राप्त करते हैं तब अहं ब्रह्मस्मि @ सोऽहम्|

🙏 मंत्र संख्याँ  में प्रति प्रसवन के concept से हम उच्चस्तरीय ध्यान का संधान कर सकते हैं|  सुक्ष्मीकरण @ चेतनात्मक उन्नयन/ उर्ध्वगमन की यात्रा में मूलाधार में पृथ्वी तत्व – स्वाधिष्ठान चक्र में जल तत्व – मणिपुर चक्र में अग्नि तत्व – अनाहत में वायु तत्व – विशुद्धि चक्र में आकाश तत्व – आज्ञा चक्र में अहंकार (विराट), सह्स्रार चक्र में विराट अव्यक्त व अव्यक्त पुरूष में विलीन हो जाते हैं|
🙏 निरालंब उपनिषद् – मंत्र संख्याँ ४ में परब्रह्म का विवेचन ध्यान (Meditation) में अवर्चनीय आनन्द की अनुभूति करता है:-
अद्वितीय …. सम्पूर्ण उपाधियों से रहितसर्व शक्ति सम्पन्न …. आदि अन्त रहित …. शुद्धशिव …. शान्त .. निर्गुण …. और अनिर्वचनीय चैतन्य स्वरूप …. परब्रह्म कहलाता है|

🙏 Shri LBSingh बाबूजी संग global sadhak group meditation 🕉

🌞 𝗤 & 𝗔 𝘄𝗶𝘁𝗵 Shri LB Singh

🙏 चेतनात्मक उन्नयन की यात्रा में जब अंततः उस परम सत्य @ परब्रह्म का बोधत्व से ही द्वैत भाव का अद्वैत में विलीन हो जाता है – एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति|
बोधत्व के बाद साधक कर्तव्यरत् रहते हुए द्वैत भाव में व्यवहार करते हुए अद्वैत भाव में रहेगा और इसी स्थिति में ‘क्रिया तो होती है किंतु प्रतिक्रिया नहीं होती‘ अर्थात् पाप – पुण्य जैसे कर्मफल के बंधन से वह मुक्त हो जाता है जिसे हम जीवनमुक्त से परिभाषित करते हैं|

🙏 वासना, तृष्णा, अहंता आदि चिपकाव (cough) मानसिक स्तर (mentally) के होते हैं इन्हें छुड़ाने में ही क्रियायोग जैसे साधन की भूमिका महत्वपूर्ण है|
मंत्र संख्याँ ६, ७ & ८ में step wise step इसे समझाया गया है| एकोहंबहुस्याम् (प्रसवन) जगत का एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति में विलीन (प्रति प्रसवन) हो जाते है|

💡 बोधत्व को शब्दों से कराना संभव नहीं है यह तप से संभव होता है| यमाचार्य आत्मसाधक नचिकेता से कहते हैं – “नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम् ॥२३॥”

🙏 अतृप्त जीवात्मा (वासना, तृष्णा, अहंता युक्त) भूत प्रेत का रूप धारण करती हैं| पितर इनसे श्रेष्ठ होते हैं और निज परिवार को सुरक्षा प्रदान करते हैं| मुक्त आत्मायें इनसे श्रेष्ठ होती हैं यह सभी का कल्याण करती हैं|

🙏 ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ||

🙏𝗪𝗿𝗶𝘁𝗲𝗿: 𝗩𝗶𝘀𝗵𝗻𝘂 𝗔𝗻𝗮𝗻𝗱 🕉

 

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