Paingala Upnishada (पैङ्गल उपनिषद्) – ४
🌕 𝐏𝐀𝐍𝐂𝐇𝐊𝐎𝐒𝐇 𝐒𝐀𝐃𝐇𝐍𝐀 ~ 𝐎𝐧𝐥𝐢𝐧𝐞 𝐆𝐥𝐨𝐛𝐚𝐥 𝐂𝐥𝐚𝐬𝐬 – 21 𝐉𝐮𝐧𝐞 𝟐𝟎𝟐𝟎 (𝟓:𝟎𝟎 𝐚𝐦 𝐭𝐨 𝟔:𝟑𝟎 𝐚𝐦) – 𝗣𝗿𝗮𝗴𝘆𝗮𝗸𝘂𝗻𝗷 𝗦𝗮𝘀𝗮𝗿𝗮𝗺 – प्रशिक्षक 𝗦𝗵𝗿𝗲𝗲 𝗟𝗮𝗹 𝗕𝗶𝗵𝗮𝗿𝗶 𝗦𝗶𝗻𝗴𝗵 @ बाबूजी
🙏ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
📽 𝗣𝗹𝗲𝗮𝘀𝗲 𝗿𝗲𝗳𝗲𝗿 𝘁𝗵𝗲 𝘃𝗶𝗱𝗲𝗼 𝘂𝗽𝗹𝗼𝗮𝗱𝗲𝗱 𝗼𝗻 𝘆𝗼𝘂𝘁𝘂𝗯𝗲. https://youtu.be/x4O-XzwBgYE
📔 sᴜʙᴊᴇᴄᴛ. पैङ्गल उपनिषद् – ४
📡 𝗕𝗿𝗼𝗮𝗱𝗰𝗮𝘀𝘁𝗶𝗻𝗴. आ॰ अमन कुमार/आ॰ अंकुर सक्सेना जी
📖 𝗥𝗲𝗮𝗱𝗲𝗿. 𝗠𝗿𝘀. 𝗞𝗶𝗿𝗮𝗻 𝗖𝗵𝗮𝘄𝗹𝗮 (𝗨𝗦𝗔)
🌞 𝗦𝗵𝗿𝗲𝗲 𝗟𝗮𝗹 𝗕𝗶𝗵𝗮𝗿𝗶 𝗦𝗶𝗻𝗴𝗵
🙏 संपूर्ण विश्व योग की महत्ता और सार्वभौमिकता को accept कर रहा है फलस्वरूप 21 जून को विश्व योग दिवस के रूप में मनाया जाता है|
🙏 पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार – योगश्चित्तवृत्ति निरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है।
🙏 योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।
🙏 आत्म समीक्षा व आत्मसुधार से विषयों के प्रति आसक्ति @ “वासना, तृष्णा व अहंता” तिरोहित होती जाती है|
चूंकि आत्मा का स्वभाव ही प्रेम करना है इसलिए वह उस अपरिवर्तनशील सत्ता @ ब्रह्म से प्रेम करने लगता है जिसे हम आत्म निर्माण कह सकते हैं|
👉 भर्गो अर्थात् दोष – दुर्गुणों को भूंज कर बाहर निकालें ….. फिर देवस्य धीमहि – देवत्व को धारण करें और इसे ही परम पुरूषार्थ की संज्ञा दी गयी है|
💡 आत्मसुधार ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है|
🕉 पैङ्गल उपनिषद् – ४
🙏 पैङ्गल ऋषि ने याज्ञवल्क्य ऋषि से पुनः प्रश्न किया कि ज्ञानियों के कर्म कौन से हैं और उनकी स्थिति कैसी होती है?॥१॥
🙏 याज्ञवल्क्य जी ने उत्तर दिया कि जो मुमुक्षु (seeking liberation) अमानित्व (freedom from egotism) आदि गुणों से सम्पन्न होता है, वह अपनी इक्कीस पीढ़ियों को तार देता है और ब्रह्मविद् हो जाने मात्र से वह अपने कुल की एक सौ एक पीढ़ियाँ तार देता है॥२॥
🙏 अपनी आत्मा (self/soul) को रथी (rider), शरीर (body) को रथ (chariot), बुद्धि (intellect) को सारथि (charioteer) तथा मन (mind) को ही लगाम (reins) जानना चाहिए॥३॥
👉 ‘मैं शरीर हूँ’ यह भाव बन्धन ग्रस्त रखता है और अच्छे बुरे कार्य सकाम भाव से करता है फलस्वरूप पाप – पुण्य कर्म के बन्धनों में फँसते हैं|
👉 मैं आत्मा हूूँ @ आत्म भाव जाग्रत मनुष्य कर्म तो करते हैं किंतु भाव निष्काम हो जाते हैं फलस्वरूप मनुष्य कर्म फल बन्धनों से मुक्त हो जाता है|
👉 बुद्धि – सारथी है जो चित्त मे storage संस्मरणों के आधार पर निर्णय लेता है| अतः चित्त को परिष्कृत बनाया जाता है| ज्ञान – infinite है अतः साधक कभी ज्ञान का अहंकार नहीं करते हैं क्योंकि वह जानते हैं की अगले आयाम में फिर से zero से शुरूआत होती है|
🙏 इन्द्रियों (senses) को अश्व (horses) कहा गया है, जो अपने विषय (objects) रूपी मार्ग (range over) पर गमन करते हैं, परन्तु मनीषियों (wise) को हृदय (hearts) विमान के समान इन सबसे ऊपर उठा हुआ होता है॥४॥
🙏 महान् ऋषियों का कथन है कि यह आत्मा, इन्द्रिय और मन से युक्त होकर भोक्ता (experiencer) बनता है, इसके बाद हृदय में साक्षात् नारायण प्रतिष्ठित होते हैं॥५॥
👉 भगवद्गीता. प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्। कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।13.22।। प्रकृति में स्थित पुरुष ही प्रकृति जन्य गुणों का भोक्ता बनता है और गुणों का सङ्ग ही उसके ऊँच नीच योनियों में जन्म लेने का कारण बनता हैै|
🙏 प्रारब्ध कर्मों (operative deeds) के क्षय होने तक जीव, सर्प के केंचुल बदलते रहने की तरह अन्य शरीर धारण करता रहता है; किन्तु अनिकेतन (homeless) और मुक्त पुरुष आकाश में चन्द्रमा के समान सर्वत्र सञ्चरित होता रहता है॥६॥
👉 अनिकेतन अर्थात् विदेह @ शरीर के पंच आवरण पंचकोशों को पार कर आत्म दर्शन कर चूका है|
🙏 ज्ञानी पुरूष (the liberated one) तीर्थ में शरीर त्याग करे अथवा चाण्डाल के घर में, प्राणों को छोड़कर वह सदा कैवल्य को ही प्राप्त होता है॥७॥
🙏 शरीर त्याग के पश्चात् उसके शरीर की चाहे दिशाओं को बलि दे दी जाए अर्थात् खुले में डाल दिया जाए अथवा खोदकर जमीन में गाड़ दिया जाए (वह कैवल्य को ही प्राप्त करता है)। यह विधि परिव्राजक के लिए है, इतर (other) किसी के लिए कभी नहीं॥८॥
🙏 जो सन्यासी ब्रह्मलीन हो गया है, उसके निमित्त अशौच (सूतक) नहीं रहता। उसकी आत्म शान्ति के लिए न अग्नि कार्य, न पिण्ड, न तर्पण और न ही पर्व पर किये जाने वाले श्राद्ध (पार्वण) आदि की ही आवश्यकता है॥९॥
🙏 जिस प्रकार जले हुए को जलाया नहीं जाता और पके हुए को पुनः पकाया नहीं जाता, उसी प्रकार ज्ञानाग्नि से दग्ध (संन्यासी) के लिए न कोई श्राद्ध आवश्यक है और न ही कोई क्रिया-कर्म॥१०॥
🙏 जब तक सांसारिक उपाधियाँ हैं, तब तक गुरु की शुश्रूषा (सेवा) करनी चाहिए। गुरु के समान ही गुरु पत्नी और गुरु सन्तानों के प्रति भी सम्मान पूर्ण व्यवहार करना चाहिए॥११॥
👉 जो योग @आत्म साक्षात्कार @ आत्मा का परमात्मा से मिलन का मार्ग प्रशस्त करे वो गुरू हैं|
👉 गुरूर्ब्रह्मा (सृजन कर्ता) गुरूर्विष्णु (पोषण कर्ता @ विश्वबंधु) गुरूरेव महेश्वरः (संहारक – दोष दुर्गुणों को भूंज दे) गुरूरेव सक्षात् परंब्रह्मा (परमात्मा) तस्मै श्री गुरूवे नमः (ऐसे गुरू को नमन है)|
🙏 मैं शुद्ध मानस, शुद्ध चैतन्य रूप, सहिष्णु, वह सहिष्णु मैं ही हूँ, इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त हो जाने से, ज्ञान के अनुभव से और ज्ञेय परमात्मा के हृदय में भली प्रकार प्रतिष्ठित हो जाने से जब देह को शान्ति पद की प्राप्ति हो जाए, तब साधक मन – बुद्धि शून्य होकर चैतन्य रूप हो जाता है॥१२॥
🙏 अमृत का पान कर लेने पर दूध से क्या प्रयोजन? इसी प्रकार अपने आपका ज्ञान (self-knowledge) प्राप्त कर लेने पर वेदों से क्या प्रयोजन (सिद्ध) होता है? ज्ञानामृत से तृप्त योगी के लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता। यदि कोई कर्तव्य शेष रहता है, तो इसका अभिप्राय है कि वह तत्त्वविद् (knower of Truth) नहीं है। वह दूर स्थित होने पर भी दूर नहीं और पिण्ड में स्थित होने पर भी पिण्ड से पृथक् प्रत्यगात्मा (inner self) है, जो सर्वव्यापी (omnipresent) होता है॥१३॥
🙏 हृदय को निर्मल करके और अपने को ‘मैं अनामय ब्रह्म हूँ’, ऐसा चिन्तन करके मैं ही सब कुछ हूँ, ऐसा सोचने व देखने से परम सुख (supreme joy) प्राप्त होता है॥१४॥
🙏 जिस प्रकार जल में जल, दुग्ध में दुग्ध और घृत में घृत डाल देने से, वे एकरूप हो जाते हैं, उसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा दोनों मिलकर अविशेष अर्थात् अभिन्न (एक) हो जाते हैं॥१५॥
🙏 जब ज्ञान के द्वारा देह में स्थित अभिमान विनष्ट हो जाता है तथा बुद्धि अखण्डाकार (infinite) हो जाती है, तब विद्वान् पुरुष ब्रह्मज्ञान रूपी अग्नि से कर्म बन्धनों (bondage) को भस्म कर देता है॥१६॥
🙏 इसके पश्चात् वह विमल वस्त्र के समान पवित्र और अद्वैतरूप परमेश्वर को प्राप्त करके उसी प्रकार अपने आत्म रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है, जिस प्रकार जल दूसरे जल में प्रविष्ट होकर एकरूप हो जाता है॥१७॥
🙏आत्मा आकाश के सदृश सूक्ष्म और वायु के सदृश दिखाई न पड़ने वाली है। वह बाह्य और अन्दर से भी निश्चल है, जिसे मात्र ज्ञान रूपी उल्का (torch of knowledge) से ही देखा जा सकता है॥१८॥
🙏 ज्ञानी (knower) कहीं भी और कैसे भी मृत्यु को प्राप्त करे, वह हर स्थिति में ब्रह्म में ही लय हो जाता है, क्योंकि आकाश के समान ही ब्रह्म भी सर्वव्यापी है॥१९॥
🙏 जिस प्रकार घटाकाश आकाश में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार जो योगी अपने को तत्त्वतः जान लेता है, वह सभी ओर से निरालम्ब और ज्ञानालोक स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है॥२०॥
🙏 यदि कोई एक पैर पर खड़े होकर एक सहस्र वर्ष तक तप करे, तो भी वह ध्यान योग की षोडश कलाओं में से एक के बराबर भी नहीं हो सकता॥२१॥
🙏 ज्ञान और ज्ञेय को यदि कोई सम्पूर्णरूप से जानना चाहे, तो सहस्र वर्ष की आयु पर्यन्त शास्त्राध्ययन करने पर भी उसका पार नहीं पा सकता॥२२॥
👉 सत्यार्थी सत्य की खोज में रहते हैं वो विषयों में आसक्त होकर rigidness create नहीं करते हैं वरन् श्रद्धावान निष्ठावान हो सदैव सत्य की खोज में निरत रहते हैं|
🙏 मनुष्य को जानना चाहिए कि मात्र अक्षर ब्रह्म ही सत्य है। मनुष्य का जीवन चञ्चल है; इसलिए शास्त्र-जाल को छोड़कर जो सत्य है, उसी की उपासना करे॥२३॥
🙏 विभिन्न कर्म-शौच,जप, यज्ञ, तीर्थयात्रा आदि की सार्थकता तभी तक है,जब तक तत्त्व की प्राप्ति न हो॥२४॥
🙏 ‘मैं ब्रह्म हूँ‘ यही भाव महात्मा पुरुषों के मोक्ष का आधार होता है । बन्धन और मोक्ष के कारण रूप ये ही दो पद हैं, ‘यह मेरा है’ (बन्धन), ‘यह मेरा नहीं है’ (मोक्ष)॥२५॥
🙏 मेरा है, यह भाव बन्धन में डालता है और मेरा नहीं है, यह भाव मोक्ष प्रदान करता है। जब मन उन्मनी अवस्था (dementalised) को प्राप्त हो जाता है, तब द्वैत भाव समाप्त हो जाता है॥२६॥
🙏 जब उन्मनी भाव (dementalisation) प्राप्त हो जाता है, तभी परम पद प्राप्त होता है। उस अवस्था में जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहीं-वहीं परम पद है॥२७॥
🙏 परब्रह्म यत्र-तत्र-सर्वत्र अवस्थित है, पर जो व्यक्ति यह नहीं जानता कि मैं ब्रह्म हूँ’ उसकी मुक्ति उसी प्रकार नहीं होती, जिस प्रकार कोई आकाश में मुष्टि प्रहार करे या भूखा व्यक्ति चावल प्राप्त करने के लिए भूसी को कूटे॥२८॥
🙏 जो इस उपनिषद् का नित्य स्वाध्याय करता है, वह अग्नि के समान, वायु के समान, आदित्य के समान, ब्रह्म के समान, विष्णु के समान और रुद्र के समान पवित्र होता है। वह समस्त तीर्थों में स्नान किए हुए के समान होता है, समस्त वेदों का ज्ञाता होता है, समस्त वेदों में वर्णित व्रतों का पालन करने वाला होता है। उसे इतिहास-पुराण आदि के अध्ययन तथा एक लक्ष रुद्रमन्त्र के जप का फल प्राप्त होता है। उसे दस सहस्र ‘प्रणव‘ नाम के जप का फल मिलता है। उसके पूर्व की दस और बाद की दस पीढ़ियाँ पवित्र हो जाती हैं। वह साथ में बैठने वालों को पवित्र करता है, जिसके कारण ‘पंक्ति पावन‘ हो जाता है। वह महान् होता है। वह ब्रह्महत्या, सुरापान, सुवर्ण की चोरी, गुरुपत्नी-गमन तथा ऐसे महापातक करने वालों की संगति से उत्पन्न पातकों से मुक्त हो जाता है॥२९॥
🙏 ज्ञानीजन विश्वव्यापी भगवान् विष्णु के परमपद को द्युलोक में व्याप्त दिव्य प्रकाश की भाँति देखते हैं ॥३०॥
🙏 वे विप्र (wise) आलस्य प्रमाद आदि से रहित (vigilant), सदैव श्रेष्ठ कर्म करने वाले (diligent) साधक विष्णु (अन्तर्यामी परमेश्वर) के परम पद को प्राप्त करते हैं। यह बात सत्य है – ऐसी यह उपनिषद् है॥३१॥
🌞 𝗤 & 𝗔 𝘄𝗶𝘁𝗵 𝗦𝗵𝗿𝗶 𝗟𝗕 𝗦𝗶𝗻𝗴𝗵
🙏 जब से बाबूजी परमपूज्य गुरुदेव से मिले तब से ही पंचकोश साधना का अभ्यास शुरू कर दिया| पुरूषार्थ के बिना अर्थात् फोकट में कुछ नहीं मिलता है| परम पुरूषार्थ @ आत्मसुधार में सदैव लगे रहें|
👉 भावना केवल अध्यात्म को छूने मात्र की नहीं वरन् एक जुनून (संकल्प) था अध्यात्म के आर पार जाने की|
👉 हर एक कोशों पर 5 वर्ष की गहन साधनायें की जिसमे सर्वप्रथम देह और इन्द्रियों पर कठोर नियंत्रण स्थापित किया|
👉 स्वाध्याय – उपनिषदों नित्य (daily)अध्ययन करते रहें एवं मनन चिंतन अर्थात अपनी स्थिति कहाँ है; तदनुरूप अपनी रूचि आत्मिकी में रही अतः अपनी रूचि के अनुसार आत्मिकी सुत्रों को digest कर क्रमशः आगे बढ़ते रहे और इन सबके साथ गुरू कार्य अर्थात् गुरू के आदेश का सदैव पालन करते रहे|
🙏 तर्पण देने का अर्थ श्रद्धा भाव से है अर्थात् हम अपने पितरों को श्रद्धा दें फलस्वरूप आशीष के रूप में हममें दैवीय गुणों का विकास होता है|
🙏 उन्मनी भाव अर्थात मन के layers @ सुख दुखात्मक, राग – द्वेष प्रवृति |आदि से उपर उठकर स्थित प्रज्ञ अवस्था|
🙏 जीव भाव से युक्त जीवात्मा जन्म – मरण के चक्र में घुमता रहता है और शिव भाव से युक्त प्रत्यागात्मा जीवनमुक्त हो जाता है|
🙏 2 घण्टे स्वयं को देने का अर्थ:-
👉 1 घण्टा स्वाध्याय (आत्मिकी सुत्रों अर्थात् उपनिषद्, गीता आदि साहित्य का ‘अध्ययन + मनन + चिंतन’)
👉 1 घण्टा प्रैक्टिकल अर्थात् क्रियायोग का अभ्यास – पंचकोश के 19 क्रियायोगों में अपनी सहजता का ध्यान रखते हुए क्रियायोग का चुनाव कर अपनी यात्रा आगे बढ़ाई जा सकती है|
👉 जीवन में हर एक duties को ईश्वरीय कार्य समझकर whole day हम इन दो घण्टों में प्राप्त experiences को apply कर उनका निष्पादन (disposal) कर सकते हैं|
उपरोक्त क्रम को हम “उपासना + साधना + अराधना” के क्रम में भी समझ सकते हैं|
🙏 अनामय @ निरामय अर्थात् पूर्ण स्वस्थ @ पंचकोश जाग्रत उज्जवल @ विकार रहित के रूप में समझ सकते हैं|
🙏 सूर्य ग्रहण अथवा चन्द्र ग्रहण के दौरान साधनारत् (जप, ध्यान आदि) रहने से अपने body के चारों तरफ एक औरा @ सुरक्षात्मक आवरण create हो जाता है जो हानिकारक तरंगों से हमारा बचाव करता है|
🙏 चित्ताकाश अर्थात् अपने चित्त में stored information के आधार पर हम जिस आयाम में विचरण करते हैं|
चिदाकाश अर्थात् परमात्म भाव (एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति @ अहं ब्रह्मस्मि) में लीन होना जिसमें खेचरी मुद्रा का अभ्यास प्रभावी है|
🙏 शरीर को ईश्वर का अनुदान मानें और इसे ईश्वरीय संपदा समझ कर ईशानुशासन में सदुपयोग करें|
🙏 ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ||
🙏𝗪𝗿𝗶𝘁𝗲𝗿: 𝗩𝗶𝘀𝗵𝗻𝘂 𝗔𝗻𝗮𝗻𝗱 🕉
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