पंचकोश जिज्ञासा समाधान (02-09-2024)
आज की कक्षा (02-09-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
शिवसकल्पोपनिषद् में आया है कि जिसके सब और आंख, सब और मुख, सब और हाथ, सब और पैर है, जिसे दोनो हाथो से प्रणाम किया जाता है, स्वर्ग और पृथ्वी के बिना किसी स्थूल का आश्रय उत्पन्न करता हुआ वह एक अद्वितिय देव है, ऐसा वह मेरा मन शुभ संकल्प वाला हो, का क्या अर्थ है
- यहा यह पुरुसुत्त के पहले वाले मंत्र के आधार पर इसे बताया गया है
- सहस्त्र = अनन्त = सर्वव्यापी
- जिसके अनन्त आंखे हो, अनन्त हाथ हो
- पैर = जो हर जगह बिना पैर के गमन करता हो, हर जगह जिसकी उत्पत्ति हो
- परमात्मा के गुणो का इसी प्रकार चिंतन / स्मरण करना चाहिए
- ईशवर हमें अनन्त आँखो से देख रहा है कि हम क्या कर रहे है, क्या सोच रहे है
- ईश्वर साक्षी चैतन्य है वह सब जगह रहता है
- इस शरीर की आंख के बिना भी अन्दर वाली आंखें काम करती है
- ईश्वर अपने में अनन्त व सर्वव्यापी है, इसी के गुणों का वर्णन यहा किया गया है
एक कविता लिखी . . . .
कविता लिखते समय भाव यह था कि जब महिला स्वयं को छोटा समझने लगती है तथा परेशान होती है . . . तब यह कविता लिखी
- खुद की रचना महत्व रखती है
- साधना से रचना शक्ति का भी विकास होता है
- महिला में ईश्वर ने शालीनता का एक महत्वपूर्ण गुण दिया, जिसे हमें कमजोरी नही समझना चाहिए बल्कि उसकी कृपा दृष्टि है
- माता दयालु है, ममत्व की धनी है, जगत के अनुसार वह गढती भी है तथा मनुष्य को देवता भी बनाती है ->इस तरह से रचना शक्ति का महत्व जानना चाहिए
अर्थववेद के पितृमेध सूक्त -2 में आया है कि हे अग्ने, इस मृत आत्मा को पीड़ित किए बिना (अंत्येष्टि) संस्कार संपन्न करें, इस मृत आत्मा को छिन्न भिन्न न करें, है सर्वज्ञ देव ! जब आपकी ज्वालाएं इस देह को भस्मीभूत कर दें तभी इसे पितृगणो के समीप भेज दें, का क्या अर्थ है
- स्थूल व सूक्ष्म दोनो अर्थो में समझ सकते है
- पीडित किए बिना -> श्रेष्ठ मार्ग से आगे ले जाए
जीवन में कोई भी व्यक्ति चरित्र चिंतन से कितना भी खराब हो उसमे कुछ अच्छाईयां होती ही होती है, उनकी उन्ही अच्छाइयों को इक्कठा करके प्रार्थना की जाती है कि उसे श्रेष्ठ मार्ग से ले जाए तथा आगे की यात्रा सुखद हो व शांतिमय हो - विधिवत्त यज्ञ प्रक्रिया से मृत शरीर को जलाते है उस यज्ञ के प्रक्रिया से वातावरण सुंगधित रखते हुए व वेद मंत्रो से संस्कारित किया जाता है, क्योंकि इन्हीं परमाणुओं की सहायता से अन्य जीवों का शरीर बनेगा -> यदि यह न किया जाए तो एक कुकर्मी के मरने पर 1000 कुकर्मी जन्म लेंगे
-> वेद मंत्रों से अग्नि में संस्कारित करने के पीछे यही भाव था (स्थूल अर्थो में भाव) - पितरो के कर्मकाण्ड में कपाल क्रिया होता है, जब तक कपाल क्रिया पूर्ण नही होती तब तक मृत्यु नहीं मानी जाती, डाक्टर भी पहले केवल Heart Beat देखते थे परन्तु अब डॉक्टरों ने भी अपनी मान्यताओं को बदल दिया है
- अंतिम मृत्यु तब मानी जाती है जब मस्तिषक में से प्राण निकलेगा, सारे system बंद होने पर भी मस्तिष्क में व्यान व धनंजय प्राण रहता है, इस प्राण का काम शरीर को वायूभूत करना है
- इन प्राणों का मुख्य काम जब शरीर जीवित है तब शरीर की रक्षा करना तथा जब शरीर मृत्यु को प्राप्त हो गया है तब शरीर को पूर्ण रूप से वायुभूत कर देना है
- इसलिए जब कपाल क्रिया हो जाती है तथा जब सब वायुभूत हो गया तो मृतात्मा की शरीर से आसत्ती खत्म होती है
- इस क्रिया से पूर्व यदि उस मृतात्मा को ले भी जाएंगे तो भी उसे कष्ट होगा क्योंकि अभी वह शरीर भाव में ही स्वयं को पड़ा हुआ महसूस कर रहा है
- केवल प्राण के Charged Partical को ही EEG Machine मे देखा जा सकता है
- तांत्रिक हड्डियो से प्राण तत्व को खीचकर हड्डियो पर भोजन बनाकर खाते है, 4000 वर्षो तक प्राण हड्डियो में रहता है, इसलिए उस राख को जल में विसर्जित कर दिया जाता है
क्या कुंडलिनी के जांगते समय शरीर का तापमान बढ़ जाता हैं कृपया प्रकाश डाला जाय
- मणीपुर चक्र तक तापमान बढ़ सकता है
- उपर तक जाएगा तो तापमान cool होगा
- मस्तिष्क का कुंडलिनी जगेगा तो वह एकदम तेजस्वी शांतिमय व आनन्दमय होगा
- कुण्डलिनी स्वयं में शान्तिमयी है, आनन्दमयी है
- कुण्डलिनी नीचे उर्जा व पराकर्म के रूप में है, जैसे जैसे चक्रो में उपर उठती है तो वह शान्तिमय आनन्दमय व दिव्यता का भाव लाने वाली होती है
- दिव्य भावनाएं गर्म नही होती, सब Cool व शांतिमय होती है, सहस्तार चक्र को भुजंग कहा गया है तथा वह शांतिमय व आनन्दमय है
- जीवित वही है जिसका खून गर्म हो, मस्तिष्क ठंडा हो तथा हृदय नरम हो
- संत लोग बहुत करुण हो जाते है, विज्ञानमय कोश में जाते ही निष्ठुरता खत्म हो जाती है
- कुण्डलिनी जगने पर Fever की तरह तापमान नही बढ़ता अपितु वह उर्जा के रूप में बढ़ता है
- पहली बार जब हमें अनुभूति हुई तब मूलाधार से एक ही बार में कंपन मणीपुर चक्र तक गया था, काफी दिन वही रुका रहा फिर भावनाओं की गांठे खुलने पर वह विशुद्धि तक चली गई तब संसार एक प्लाज्मा से बना है, दिखने लगा था
- कुण्डलिनी जागरण की इस प्रक्रिया में सहृदयता बढ़ती गई
- पहले कोई गलत कार्य करता था तो क्रोध आ जाता था फिर बाद में बदमाशी करने वाले भी अच्छे लगने लगे तथा उनके प्रति दया भाव आने लगा, लगने लगा कि इन्हे अच्छा माहौल, वातावरण व संस्कार नहीं मिले, जब तत्वज्ञान विकसित होता जाता है तो Mind Cool होता जाता है
आध्यात्मोपनिषद् में जब ऐसी भावना हो जाती है कि मै अजर अमर हूँ और साधक आत्म स्वरूप में रहने लगता है तो प्रारब्ध कर्म की कल्पना कैसे हो सकती है, प्रारब्ध कर्म उसी समय सिद्ध होता है जब देह में आत्मभाव होता है परन्तु देह में आत्म भाव रखना क्लिष्ट नही है अस्तु देह के उपर आत्म बुद्धि का परित्याग करके प्रारब्ध कर्म का त्याग करना चाहिए का क्या भाव है
- क्रिया की पतिक्रिया पदार्थ जगत में होती है, संसार पंच भौतिक तत्वो (पदार्थो) से बना है
- कुछ पदार्थ दिखने वाले (भौतिक) तथा कुछ नही दिखने वाले भी पदार्थ (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) है
- जब हम आत्म भाव में रहते है कि ना मै शरीर हूँ और ना ही ये शरीर मेरा है, जब यही आत्म भाव दृढ़ / मजबूत हो जाएगा तब साधक शरीर के कष्ट भाव से परे हो जाएगा
- कर्म फल केवल शरीर तक ही सीमित रहता है, आत्मा को कर्म फल से कुछ लेना देना नही, कोई दुख उस आत्मा को दुखी नही करेगा
- प्रारब्ध यदि कष्ट नही पहुंचा पा रहा तो इसका अर्थ कि हम प्रारब्ध के प्रभाव से बाहर निकल गए
- आत्म भाव में रहने दुख कष्ट सहने की क्षमता बढ़ जाएंगी क्योंकि शरीर जब आपका है ही नही तो आत्मा का कष्ट कुछ नही बिगाड सकता, कष्ट की पहुंच केवल शरीर तक सीमित है
- मन के द्वारा कोई कार्य किए तथा मन के अनुरूप नही होता तब दुख होता है, मन तक ही कर्मो की पहुच है तथा मन जड तत्व है आत्मा से भिन्न है
क्या प्रणव ॐ जड़ तत्व है
- ॐ ईश्वरवाची है, परमात्मा को किसी न किसी नाम से पुकारते हैं तो वह नाम ॐ है
- ॐ = परमात्मा तथा परमात्मा जड़ नही है
- उच्चारित किया हुआ शब्द जड हो सकता है, परन्तु वह शब्द किसके लिए बोला गया वह महत्वपूर्ण है। जैसे आत्मा शब्द तो जड़ है परन्तु आत्मा स्वयं में जड़ नहीं है
मण्डलबाह्मणोपनिषद् में आया है अभ्यास के द्वारा वह विकाररहित त्रिगुणातीत आकाश रूप होता है, अत्यंत प्रगाढ प्रकाश युक्त . . . क्या यही पांचो कोश भी समझे जा सकते है
- ये सभी कोश आकाश है
- जो सर्वव्यापी ( प्राण मन भावनाएं ) है तो उसे आकाश कहेंगे
- ईश्वर सर्वव्यापी हैं तो हर जगह चेतना ही चेतना है, जड़ तत्व कही भी नहीं है
क्या तत्वज्ञान की प्राप्ति केवल उपनिषदों के मनन चिंतन व अध्यन से ही संभव है
- यहा किताब से कुछ लेना देना नहीं, यहा तत्वज्ञान मुख्य है
- तत्वज्ञान = संसार व अपने बारे में पूरी-पूरी तरह ठीक-ठीक जानकारी, चाहे जिस भी प्रकार मिले स्वयं के मनन चिंतन से या किताब से या सतसंग से
- किसी भी तरह से शुद्ध ज्ञान विकसित करना हैं -> किताब को नही सत्य ज्ञान को उपनिषद् कहते है
- सत्य की व्याख्या की नही जा सकती क्योंकि ईश्वर सत्य है व अनन्त है तो फिर अनन्त की व्याख्या कैसे करेंगे
- ईश्वर अव्याख्या है, वर्णणातीत है
- ऋषियो ने अन्त में नेति नेति कह दिया कि हम जो कहना चाह रहे थे वह कह नहीं पा रहे
- गायंत्री मत्रं में इसे तत कहा गया कोई नाम नही रखा गया वह तत कौन है, वह तत तुम (आत्मा) हो
हवन सामग्री को साकल्य क्यों कहा जाता है
- यह संस्कृत शब्द है
- जो भी वस्तुएं डाली जा रही है मुख्य रूप से वनौषधिया ही होती है, देवदार की लकडिया या समिधाए शाकल्य कहलाएगी
- घी को शाकल्प नही कहा जाएगा
- कपूर को भी नही – हवन सामग्री कहलाएगा
- हवन जब रोज करना है तब शाकल्य न मिले तब .
- जल में जल की आहुति दे
- अन्त मे कहा गया भावनाओं की अग्नि में भावनाओं की आहुति दे
- प्राणायाम को भी यज्ञ कहते है या ईश्वर को स्मरण करे वह भी यज्ञ के समान फलदायी है
कैसे समझेंगे कि कुंडलिनी शक्ति कहां तक जाग्रत हुई है
- पंचकोश के Chart को देखकर समझ सकते है यदि पंचकोश के क्रियायोग के वो लाभ जो बताए गए है, वे लाभ जितने अंशो में हमें मिलने लगे उतने अंशो में हमारी कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो चुकी है
भावनाओं से भावनाओं की आहुति देंगे तो ईश्वर भावनाओं से परे कैसे कहलाएंगे
- भगवान सर्वव्यापी है तो हमारी भावनाएं छोटी सी ना हो, केवल अपने घर से प्रेम करना मोह है
- जब अपनी भावनाओं की सीमा तोड़ देंगे तो वह उदार भक्ति भावना कहलाएगा
- मोह में आहुति नही डालना अपितु भावनाओं में भावनाओं की आहुति डालना है 🙏
No Comments