पंचकोश जिज्ञासा समाधान (28-08-2024)
आज की कक्षा (28-08-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
रामरहस्योपनिषद् में आया है कि मंत्र जपने वालो को मातृका माला से मानसिक जप करना चाहिए वैष्णव पीठ का पूजन करके मंत्र की संख्या के बराबर लाख संख्या में जप करना चाहिए, का क्या अर्थ है
- मातृका माला = जिस माला से गायंत्री महामंत्र का जप कर रहे है, इसमें ॐ भूर्भवः स्वः मातृका के रूप में आया है
- यदि माला से जप करते है तो मानसिक जप करे व ॐ को साथ जोड़कर मंत्र का जप करे
- यदि हम जप घंडी से करते है तो यह हमारे Meditatation पर निर्भर करता है
- ध्यान में माला यदि छूट गया तो छूट जाने दे परन्तु उस दौरान ईश्वर से जो सम्पर्क बना है, वह बना रहे, वही महत्वपूर्ण है
- शुरुवात में तो मंत्रो का जप Counting से करे
- वैष्णव पीठ का अर्थ है कि जो भी उस मंत्र का देवता है, पहले उसका पूजन करें जैसे गायंत्री मंत्र का देवता सविता है तो उसी का पूजन करें
जब भी प्राणायाम करते है तो चंद्रमा का ध्यान करते है तो ठण्डा लगता है तथा सुर्य का ध्यान करते है तो गर्मी लगता है तो इसका क्या अर्थ है
- जैसे नाडी शोधन प्राणायाम किया जा रहा हो तथा L-L से श्वास लेकर चद्रमा का ध्यान करते है तो वहा मस्तिष्क में शांति / Coolness / चेतना का संचार होता है तथा निरोगता बढती है
- जब R-R लेते है व छोड़ते है तो वहा सुर्य नाडी के सक्रिय होने से गर्मी के स्थान पर उर्जा का संचार हो रहा है, वहा हम उर्जा का ध्यान करे
- हर Body Cell का एक Nucleus / Mind होता है तथा हर Body cell में चैतन्यता व उर्जा दोनो चाहिए
- ज्ञान शीतल होता है, जैसा सोचेगे वैसा महसूस करेंगे
- यदि सोचना शुरू कर दे कि चेतना का संचार हो रहा है तो उसमें चेतना महसूस करेंगे तथा यदि शरीर में उर्जा भर रहे है तो उसकी शक्ति बढ़ेगी
- विचार से ध्यान में हम माइक्रोकोर्डिया में उर्जा व Nucleus में ज्ञान भरते है तथा इसी से DNA तक में परिवर्तन आ जाते है
यदि हम सूर्य भेदी प्राणायाम करते समय शीतलता की भावना कर रहे हैं तो उसे समय शरीर की क्या स्थिति होगी
- यदि दाहिने से श्वास खींच रहे है तथा भाव शीतलता का कर रहे है तो भी उर्जा मिलेगा
- Energy केवल Hot में ही नही अपितु Cold में भी Energy है
- मणिपुर चक्र में अग्नि तत्व है परंतु उसका वास स्वाधिष्ठान में है (अग्नि का वास जल में है)
- उर्जा का हमेशा भाव करे चाहे cold Energy ही क्यो न हो
- प्राण संकल्प के आधार पर अपना Nature बदल देता है तथा दोनो लाभ एक साथ भी मिल सकते है
- जितना हमारे भीतर प्राण की शक्ति अधिक रहेगी उतना ही यह अधिक असर करेगा अन्यथा केवल फिल्म देखने भर जैसा लाभ मिलेगा
- प्राण को शक्तिशाली बनाने के लिए चरित्र एवं चिंतन को प्रखर करना जरूरी है
आध्यात्मोपनिषद् में आया है कि शरीर के अंदर स्थित हद्वय में वह शाशवत निवास करता है, . . . वह पृथ्वी के अंदर रहता है परंतु पृथ्वी उसे नहीं जानती, इसी प्रकार पांचों तत्वों व चारो अन्तकरण के बारे में भी यही आया है कि मन में वह निवास करता है परंतु मन उसे नहीं जानता,अव्यक्त जिसका शरीर है परन्तु अव्यक्त उसे नही जानता, अक्षर जिसमें संचारित होता है परंतु अक्षर इसे नहीं जानता, जो मृत्यु में संग्रहित करता है परंतु मृत्यु उसे नहीं जानती, यहां अव्यक्त अक्षर एवं मृत्यु का क्या अर्थ है
- अव्यक्त = मूल प्रकृति = इसमें तीनो गुण सत रज तम है, जब तीनो गुण एक समान हो तो उसे अव्यक्त कहेंगे, यदि सतो गुण प्रकृति में अधिक है तो वह सतोगुणी कहलाएगा
- ईश्वर सब में है तथा ईश्वर मै अनेको गुण है परंतु हम ईश्वर को अपनी परिभाषा में बांध देते हैं
- हमें ईश्वर को अव्यक्त रूप में जाना चाहिए
- ईश्वर किसी एक में है
- तीनो बराबर रहेंगे तो
- किसी एक परिभाषा में न बांधे
- जल के भीतर है परन्तु वह जल नहीं है
- ध्यान में जाने का एक तरीका बता रहे है कि उसके भीतर के भीतर जाते जाएगे तो मूल केंद्र ईश्वर तक पहुच जाएंगे
- मृत्यु = परिवर्तनशील , पदार्थ का होता है आत्मा का नहीं
बह्मविद्योपनिषद् यदि कोई मन से विषय भोगी विषयों में आसत्त रहने वाला हो, तब भी वह शास्त्र ज्ञान से देहान्तर के बाद शुभ गति को प्राप्त हो जाता है, पहले आया था कि शास्त्र ज्ञान के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति नही होती तो यहा विरोधाभास लग रहा है
- आध्यात्म (शास्त्र ज्ञान) भोग व योग दोनो देता है
- साधक का बौधिक / मानसिक धरातल कैसा है यह महत्वपूर्ण है यदि साधक स्थिरप्रज्ञ व राग द्वेष से मुक्त Mentality का हो, विषयों में रमण करती हुई इंद्रिया अपने control में हो तो वह भी आत्मा को पा लेगा
- विषय भोग कर्म फल की व्यवस्था में रुकावट नही डालते, वह साधक अपने ज्ञान के बल पर संसार का भोग भोगते हुए मोक्ष पा लेगा व आगे की गति में जाएगा
साधना के कम्र में एक गंभीरता ओढ़ लेते है बहुत कम बोलने की इच्छा होती है तो परिवार में एक Disturbance हो जाती है, उसे कैसे Handle करे
- यदि कम बोलने का मन कर रहा है तो दूसरों पर दया करने के लिए बोलिए, निष्ठुर न बने, बच्चों का मन बहलाने के लिए बच्चा बनिए, यही हमारी Duty भी है
- फूल को देखे, उसमें काटा भी लगा है तो भी वह फूल हमेशा मुस्कुराता रहता है
- यह गुण आ गया तो अब स्वयं को ईश्वर के करीब माने, जितना ज्ञान बढ़ता जाएगी उतनी ही मस्ती भी बढ़ती जाएंगी
- राग व वैराग से परे Neutral रहना है
अद्वैततारकोपनिषद् में आया है कि शरीर के भीतर बीच में सुष्मना नामक बह्म नाडी पूर्ण चंद्रमा की भांति प्रकाश युक्त है, वह मूलाधार से शुरू होकर बह्मरंध्र तक विद्यमान है, इस नाडी के बीच में कोटि कोटि विद्युत के सदृश्य तेजो – मयी . . . सूक्ष्म कुण्डलिनी शक्ति प्रख्यात है, . . उस शक्ति का मन के द्वारा दर्शन करने मात्र से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है, का क्या अर्थ है, यदि व्यक्ति कोई क्रिया नही भी करेगा और यदि केवल सोचता रहेगा तो क्या हो जाएंगा
- मन मे द्वारा सोचने को भी क्रिया कहते है, ध्यान भी मनोमय कोश की क्रिया / क्रियायोग है
- जप से अधिक शक्तिशाली ध्यान है
- उस कुण्डलिनी शक्ति में बहुत चमक है, इतना करोड़ो सुर्य भी उतना चमक नहीं दे सकते
- क्षण मात्र के लिए भी यदि वह चमक साधक को मिल जाए तो उतना चमक काफी है शरीर के तन्तुओं की सफाई के लिए -> उस आनन्द को वह व्यक्ति चलते फिरते या किसी भी समय स्मरण करता है तो बहुत आनन्द की प्राप्ति होती है तथा भीतर की सफाई भी होती है, यह अनुभव अपने आप में काफी बड़ी बात है परन्तु एक लंबे /गहरे Meditation से यह बात बनती है
- Meditation भी क्रिया योग है, यदि उसके साथ शक्तिचालीनी मुद्रा जोड दे तो मूलाधार से लेकर आज्ञा चक्र या बह्मरंध्र तक पहुंचा जाए
- यदि ईडा या पिंगला में Meditation हो तो वह चमक नही आती परन्तु सुष्मना में रहकर ध्यान करने पर कभी कभी यह घटना घटित होती है
- वो अनुभूति साधक को बचाता है तथा फिर साधक का मन ऐसे कार्यो में स्वत: ही नही लगता जिससे उसकी प्राण शक्ति कमजोर हो
- यह अवस्था एक बार आने के बाद फिर जब कभी उस स्थिति का सोचेगा, वह लाभान्वित होगा तथा उसके शरीर से भी एक तेज निकलता रहेगा तथा एक सुखद अनुभूति प्राप्त होगी
क्या अवचेतन मन की सफाई करते समय क्या केवल कुविचार ही ही समाप्त होते हैं कृप्या प्रकाश डाला जाय
- अवचेतन मन की सफाई में केवल कुविचार ही समाप्त होते है तथा अच्छे विचारों की जड़ें और भी मजबूत हो जाती है
- यहा केवल कचरों की ही सफाई होती है
- जैसे किसान जब खेती करता है तो उपयोगी फसलों के बीच में से अनुपयोगी खरपतवार को ही निकलता है, पूरा खेत साफ नही कर देता
- अवाछंनियतायो को / दुष्प्रवृतियों को ही हटाता है
- मन में लोभ, मोह,अहंकार, मद्य, देह/लोक वासना आदि 24 प्रकार की खामियां है
- ध्यान से / अध्यन से इस प्रकार की मान्यताएँ काफी Clean होती जाती है तथा अपने को Refined करता जाता है तथा उस साधक का विस्तार होता जाता है
भूमि पूजन के बाद वास्तु पूजन क्यों अनिवार्य है कृपया प्रकाश डाला जाय
- जब मकान बनाना था तो भूमि में पहले कोई कुसंस्कार पड़ा हो तो उस कुसंस्कार के प्रभाव को हटाने के लिए उसे भूमि पूजन से संस्कारित किया तथा जो निर्माण कार्य यहा होना है वह र्निविद्यन रूप से सम्पन्न हो
- जब मकान बन गया तो एक नए देवता आ जाएंगे जिन्हे गृह/वास्तु देवता कहेंगे तो पहले उनका पूजन किया जाता है ताकि बड़ो का सम्मान पहले हो तब हम इस नए घर में प्रवेश करते है
- यह श्रेष्ठता का अभिवर्धन करता है
- यह भावना की जाती है कि इस घर में जो भी रह रहे है तो उनके लिए गृह देवता अनुकूल हो, यदि कभी मकान गिर जाए या घर पर कुछ दुघर्टना हो जाए तो गृह देवता उन सबसे हमारा बचाव करते है, उनसे हमारा एक भावनात्मक संबंध बन जाता है
– ये दोनों (भूमि व वास्तु) अलग-अलग तत्व हैं जैसे गर्भ में पहले शरीर आता है, फिर बाद में उसकी जीवात्मा भी आ जाती है 🙏
No Comments