पंचकोश जिज्ञासा समाधान (29-08-2024)
आज की कक्षा (29-08-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
वेदान्तोपनिषद् में आया है कि प्राणायाम के पूरक में बह्मा, कुंभक में विष्णु व रेचक में रुद्र को जानना चाहिए, क्षर और अक्षर दोनो को शेष मानना चाहिए पूरक में 12 ओंकार, कुंभक में 16 ओंकार व रेचक में 10 ओंकार हो तो वह एक प्राणायाम कहलाता है, का क्या अर्थ है
- क्षर = जड जगत / भौतिक जगत, जो परिवर्तशील है / विनाशी है
- अक्षर = अविनाशी = चेतन = आत्मा
- दोनो का विनाश नहीं होता तथा दोनो ही शाश्वत है परन्तु क्षर परिवर्तनशील है,अक्षर अपरिवर्तनशील है
- ईश्वर दोनो में है साकार में व निराकार में
- प्राणायाम को आज के समय में अच्छा लगने तक पूरक करे, अच्छा लगने तक रोककर कुभंक करे व अच्छा लगने तक छोड़े (रेचक करे)
- पहले वातावरण स्वच्छ था तथा पहले साधक योग साधना में प्रखर थे तो कुंभक में अधिक समय तक रहते थे
- जैसे जैसे हम भी यदि स्वस्थ होते जाए तथा हमारी प्राणायाम की क्षमता बढ़ती जाए तो हमें भी अपने कुभंक के समय को बढ़ाते रहना चाहिए
- ॐकार = एक मात्रा = एक second मान ले
तन्मात्रा साधना को करने का क्या कोई कम्र (Sequence) भी होता है, कृप्या प्रकाश डाले
- हर क्षण कोई भी पल ऐसा नहीं गुजरता जब जागते समय हमारे दिमाग में ससांर का कोई बात नही आता
- हमारा मन किसी भी समय जिसके साथ जुड़ा है वह साधना का विषय है जैसे भोजन करते समय स्वाद के साथ मन का जुडाव
- साधना के ढ़ग से खेले व उसका आनन्द ले
- आनन्द के साथ यह भी देखे कि वह शरीर मन आत्मा के लिए उपयोगी है या नहीं, जब यह सोचेंगे तो धीरे धीरे command होता जाएगा, तब आनन्द बढ़ जाएगा
- हमें संसार का भरपूर आनन्द लेना है मगर उलझना नही है, जो हमारे सामने है तथा हमारा मन जिसके साथ जुड़ा है वह सभी तन्मात्राए है
- यदि साधना के रूप में तन्मात्रा साधना करने बैठे हैं, उसमे देखे कि सबसे अधिक Disturb चित्त चंचल कब होता है किससे होता हैं तो उसी को पहले पकाया जाए तथा उस तन्मात्रा / विषय से अपना आनन्द खंडित न हो, तभी कहा जाएगा कि तन्मात्रा सध रहा है
- सुख दुख की अनुभूति मन का विषय है, यदि दुख में हमारा मन प्रभावित हो रहा है तो हमारा मन अभी सधा नहीं, अब उस मन को तन्मात्रा साधना से पकाया जाता है
- जब हमारा मन विपरित परिस्थितियों में विचलित हुए बिना उन परिस्थितयों का भी आनन्द लेने लगे तथा हमारी मस्ती भी खण्डित न हो, तभी जाकर हम विज्ञानमय कोश में पहुंच पाएंगे
अर्थववेद के पितृमेध सूक्त -2 में आया है कि यम सोम का अभिषण करते है, आहुतियां वे यमदेव को समर्पित करते हैं सोम और हवियों से अलंकृत अग्निदेव को दूत बनाकर यज्ञदेव यम की ओर ही जाते हैं, का क्या अर्थ है
- अभिषण = यम सोम का सेवन करते है
- तृप्त होने की प्रक्रिया को अभिषण कहते है
- श्रद्धा ही यहा सोम है
- यम श्रद्धापूर्वक आहुति से ही तृप्त होते है
- श्रद्धा = सोम
- आहुति में स्वधा बोलेंगे तो पितरो की ओर यम की शक्ति जाएंगी
- स्वाहा
- पितरो की ओर
- प्राण को भी यम कहा जाता है, ध्यान में क्या सोचा जाता है, उसी के अनुरूप प्राण की शक्ति उधर्व या निम्न लोको में वहा जाती है
- अधोगामी प्राण = शरीर मन आत्मा के तेज को कम करेगा
- उधर्वगामी प्राण = शरीर मन आत्मा के तेज को बढ़ाएगा
- प्राण की गति दोनो तरफ होती है जिन पितरो को जडत्व (पदार्थ वादी लोलुप्ता) पसन्द है वे दक्षिण दिशा में गए तथा आत्मा के विकास में ध्यान ही नही दिए, यदि वे पितर आत्म साधना किए रहते तो उधर्वलोको में जाते
आध्यात्मोपनिषद् में स्वप्रकाशित स्वयंभू अधिष्ठा बह्माण्ड और पिण्डान का भी विष्ठा मात्र की भांति त्याग कर देना चाहिए
- विष्ठा = वर्जय पदार्थ = मल = विषाक्त = जहर
- अपने भीतर की विषाक्ता -> इससे दूर रहे
- बह्माण्ड = पंचतत्वो के उडती हुई परमाणुओं की धूल भर है
- पिण्ड = अपना शरीर, शरीर को कितना भी सजा ले परन्तु यह शाश्वत रहने वाला नहीं है, कहने का तात्पर्य केवल इतना भर है कि इस शरीर का ध्यान तो रखा जाए परन्तु अपना मुख्य उद्देश्य / यात्रा आत्मा को न भूला जाए
बह्मा से स्तम्भ पर्यन्त समस्त उपाधियां मिथ्या है, इसलिए सदा एक स्वरूप में अवस्थित रहने वाले अपने गुण आत्मा का ही सर्वत्र दर्शन करना चाहिए, का क्या अर्थ है
- बह्मा विष्णु शिव लोक -> सभी एक आयाम है
- बह्मा लोक (आनन्दमय कोश) भी एक आयाम है
- इसी प्रकार अन्य लोक भी परिवर्तशील है
- स्तम्भ पर्यन्त = जो शरीर हमारा आधार बना हुआ है, इन सभी लोको में हम जो भी देख रहे है, उसमें आसत्त न हो अपितु एक शाश्वत सत्य का खोज करे
- सत्य ही ईश्वर है, जो बदल रहा है वह सत्य नही है
- जो सत्य नही है तो इसका उपयोग केवल आनन्द के लिए किया जाए लेकिन उसे सत्य मानकर उसे बटोरने में पूरा जीवन बर्बाद न किया जाएं
- ये सभी पदार्थ / संसार जीवन यात्रा को सरल बनाने भर के लिए है, यह हमारे लिए कभी भी साध्य नही होना चाहिए
बह्मविद्योपनिषद् में आया है कि साधक को सदा ही कुण्डलिनी के पूर्व में अधोलिंग का, शिखा स्थान में पश्चिम लिंग का और भृकुटियों के मध्य में ज्योर्तिलिंग का ध्यान करना चाहिए, का क्या अर्थ है
- आज्ञा सहस्तार व मूलाधार तीनो चंक्रो में कुण्डलिनी की प्रखर / महत्वपूर्ण भूमिका है इसलिए तीनो केद्रो को मजबूत बनाए
- किसी को भी मज़बूत बनाने के लिए दुरुपयोग रोका जाए व सदुपयोग किया जाए
- नीचे काम वासना है तो काम वासना के दुरूपयोग को हटाया जाए व सदुपयोग किया जाए
- काम वासना का सदपयोग करेंगे तो हमारा स्वास्थ्य ठीक रहेगा
- आज्ञा चक्र के दुरुपयोग के रूप में, यदि हमारे Negative विचार होगे कई मानसिक रोग भी हमें हो सकते है, Good Use करेंगे तो मानसिक प्रखर बनेंगे व सहस्तार चक्र जागृत होगा तब भाव संवेदना के भी धनी बनेंगे
- कुण्डलिनी का जहर उगलना = काम उर्जा का Misuse होने के कारण कई तरह के Mental disease होगे व प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होने से शारीरिक रोग भी होगे
मारकेश निकल जाने पर क्या करे
- मारकेश = अकालमृत्यु का संयोग निकल जाए तो डरे मत
- अकालमृत्यु को भी टाला जा सकता है
- महामृत्युजयं मंत्र का जप करे
- या केवल गायंत्री महामंत्र का जप करे, यह सबसे शक्तिशाली मंत्र है -> आयुम प्राणम प्रजाम कीर्तिम बह्मवर्चस . सब प्रदान करता है -> जब आयु मिल गई तो अकालमृत्यु का संयोग टल जाएगा व आयु क्षीण नहीं होगा
- गायंत्री मंत्र महामृत्युंजय मंत्र से भी शक्तिशाली है बस केवल श्रद्धा भाव होना चाहिए, निरन्तर जपने से आत्मा की अमरता का बोध होने लगेगा
- शरीर की क्षति होना है तो यदि हम ईश्वर का काम करने लगेगे तो ईश्वर शरीर की रक्षा करने लगेगे
- ईश्वर से दोस्ती कर ले तो कोई भय भी नही रहेगा
मेरे नाना जी को हर्निया का प्रॉब्लम हो रहा है उनके पेट में नाभि वाले एरिया में दर्द होता है इसके लिए क्या औषधि है तथा क्या इसके लिए ऑपरेशन की एकमात्र उपाय है
- निर्भर करता है कि अभी क्या Stage हे
- Expert ज्यादा अच्छा बताएंगे
- यदि हल्का फुलका है तो शक्तिचालीनी – महामुद्रा या सर्वांग आसन से भी ठीक हो जाएगा, परन्तु आसन से पूर्व उनकी उम्र का भी ध्यान रखना है, युवा रहते तो ये सब करके भी ठीक हो जाते
मैत्रियोपनिषद् में आया है कि आप ग्रहण करने वाले न बने, किसी तरह से ग्रहण करने योग्य विषय रूपी न बने, इस प्रकार की सभी कल्पनाओं का त्याग करके शेष जो कुछ भी रहे उसी में तन्मय रहे, दृष्टा – दृश्य व दर्शन को वासना के साथ ही त्याग करके जिसमें से दर्शन का सर्वप्रथम आभास होता है, उस आत्मा का ही तुम भजन करो, का क्या अर्थ है
- दृश्य दृष्टा व दर्शन पतंजलि योग दर्शन में भी आया है कि हमें दर्शन (तत्वज्ञान) में जीना है
- निरालंबोपनिषद में भी आया है कि ईश्वर निरालंब है, सार पर आधारित न हो, तत्व ज्ञान (दर्शन) पर आधारित हो
- किसी चीज को हम किस ढंग से देखें कि उसमें ईश्वर का स्वरूप हमें आनंदमयी दिखने लगे
- यह केवल ज्ञान का ही एक बौधिक धरातल हो सकता है, जो भी जीवन में दुख कष्ट आते हैं वह सिर्फ उस बिन्दु पर सोचने का तरीका भर है
- ज्ञान के द्वारा ही दुख कटता है, फिर वह कष्ट चाहे आध्यात्मिक हो, आधिदैविक हो या आधिभौतिक, सदैव तत्वज्ञान में रहो / चेतैन्य रहो / स्थिरप्रज्ञ रहो
- स्थिरप्रज्ञ के रूप में पहले दृश्य देखे फिर मन से उस दृश्य को गायब करते हुए आकाश रूप / आत्म रूप में भी देखे -> जब आत्मा का Meditation करते है तो शरीर के भीतर आत्मा देखते हुए, शरीर के भीतर चक्र व उपचक्र भी देख लेते हैं, उसे पांचों कोशो के रूप मे या 7 शरीर/Dimension के रूप में चमकते हुए देखे, यह तो केवल कला मात्र है
- ससांर में जीवो के अलग-अलग रूपो में ड्राईवर के रूप में एक मात्र आत्म सत्ता ही विद्यमान है -> इसी दृष्टि का हमें विकास करना है जिससे हम संसार को स्थूल रूप में देखते हुए संसार का आनंद भी लेंगे और आत्म रूप में देखते हुए संसार गायब भी रहेगा, इसी को तत्व दृष्टि कहेंगे 🙏
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