पंचकोश जिज्ञासा समाधान (30-08-2024)
आज की कक्षा (30-08-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
शिक्षोपनिषद् में आया है कि इस हृदयस्थ आकाश भाग में, वह मनोमय अमृतस्वरूप, प्रकाशस्वरूप परमपुरुष प्रतिष्ठित है, दोनों तालुओं के बीच जो यह स्तन के समान लटक रहा है, जहा रेशो का मूल भाग है, शीर्ष कपाल को भेदकर सुष्मना नाडी जाती है, वह (सहस्तरार या बह्मरंध्र) इन्द्रयोनि है, का क्या अर्थ है
- यहा लोलक / तालु चक्र के बारे में आया है
- तालु का उपर वाला सटा हुआ भाग Pitutary Gland है
- जहा से सिर शुरू होता है, तालु के नीचे का भाग सिर को छूता है
- विशुद्धी के उपर लोलक चक्र से मस्तिष्क वाले Area में प्रवेश द्वारा यहा बताया गया है
गांयत्री महाविज्ञान में गायंत्री साधना से शक्तिकोशो का उदभव में आया है कि कई व्यक्ति सोचते हैं कि हमारा उद्देश्य आत्म दर्शन और जीवन मुक्ति है, हमें गायंत्री की सूक्ष्म प्रकृति के चक्कर में पडने से क्या प्रयोजन है, हमें तो केवल ईश्वर की अराधना करनी चाहिए तथा के स्वरूप को जानना चाहिए . . . का क्या अर्थ है
- जैसे कठोपनिषद में पाच कोशों के विषय में आया है कि ये सब जड़ तत्वों से बने है
- जैसे Einestein ने कहा कि Particle Physics से ईश्वरीय सत्ता को नही जाना जा सकता है, क्योंकि उसकी कोई Boundary नहीं है, Boundary अगर नही रहा तो Atom का अस्तित्व भी नही रहेगा इसलिए Particle physics से Absolute Truth को नही जाना जा सकता परन्तु यम ने कहा कि हमने जाना है
- इसका अर्थ यह हुआ कि पचंकोश साधना से भी आत्म साक्षात्कार किया जा सकता है
- विज्ञानमय कोश में जाकर आत्मा को जाना जाता है तो इसका अर्थ है कि अपने भीतर भी खोजने की प्रक्रिया चलनी चाहिए, हम केवल भोग बुद्धि से इस्तेमाल करते हैं, गहराई में प्रवेश नहीं करते
- ईश्वर एकांगी नहीं है, ईश्वर संसार के कण-कण में घुला हुआ है
- यदि शरीर नहीं रहेगा तो जप व अन्य क्रियाएं भी नही कर सकते
- कहने का अर्थ केवल इतना है कि संसार में जितनी भी भौतिक पदार्थ / वस्तुए है वे संसार में आत्मा / ईश्वर को पाने के लिए सहयोगी भर है
- अपना शरीर भी स्वस्थ रहेगा तभी हम आत्मा को जान पाएंगे इसीलिए शरीर का भी अवहेलना नहीं कर सकते
- इसलिए वेद का आदेश है कि हमें पदार्थ विज्ञान और आध्यात्मिक विज्ञान दोनों को साथ लेकर चलना है, अकेले जाएंगे तो दोनो खडड् में गिरेंगे
अर्थववेद के पितृमेध सुक्त 2 में आया है कि हे ऋत्विजो ! यमराज के निमित्त घृतयुक्त खीर को हविरूप में समर्पित करें, वे हविष्यात्र को स्वीकार करके हमारे जीवन को संरक्षित करते हुए हमें शतायु प्रदान करें, का क्या अर्थ है
- गाय के दुध का सेवन करने से चित्त शुद्ध होता है
- पंचगव्य रूपी पंचामृत, पांचों शरीर के लिए है
- ये सब योग में मदद करते है, भोजन से शरीर पुष्ट होता है
- अन्न से मन बनता है, अन्न सात्विक हो तो मन सात्विक होगा, मन सात्विक होगा तो व्यक्ति सात्विक कर्म करेगा, सात्विक कर्म करेगा तो श्रद्धा उत्पन्न होगी, श्रद्धा उत्पन्न होगी तो सत्य ने पा लेगें
- यम का एक अर्थ मृत्य भी है, यदि हम अपने शरीर के अनुरूप Healthy Diet लेगे तो Long Life होगा और Long Life का होना ही यम का प्रसन्न होना है
Partical physics से आत्मा को नही पाया जा सकता तथा विद्या व अविद्या को साथ लेकर चलना है, ये सब विरोधाभासी प्रतीत होता है कृप्या यह बताए कि Partical Physics की पहुंच कहा तक है तथा इसे कहा तक साथ लेकर चलना पड़ेगा
- Particle physics की पहुंच स्थूल आकाश तक है तथा उसके बाद उर्जा व अन्य Refined State जैसे मन, बुद्धि . . . शुरू हो जाते है
- इसका अर्थ यह है कि आकाश में या उससे उपर जाने पर पार्टिकल अपनी सत्ता खो देते हैं, वहा wave भी नही रहती , केवल शांति ही है।
इसमें अविद्या का क्या Role रहेगा
- शरीर को स्वस्थ बनाए रखने वाले पांचो तत्व अविद्या में आएंगे
- स्वर्ग बनाने के लिए भी विज्ञान की जरूरत पड रही है
- पांचो कोश Visible नही है परन्तु ईश्वर नें इसी शरीर से कार्य लेना है
- संसार में calculation वे लिए Computer की आवश्यता पड़ती है तथा computer को Handle करने के लिए मन की जरूरत पड़ती है
- विज्ञान हमें सुविधा व सुख प्रदान करता है तथा आध्यात्म हमें शान्ति प्रदान करता है
- जीवन में दोनो की ही आवश्यकता है
आध्यात्मोपनिषद् में वैराग्य का फल बोध है, ज्ञान का फल बरती हे और बरती का फल आत्मानन्द के अनुभव से प्राप्त शान्ति है, यहा बोध उपरती और शान्ति का क्या अर्थ है
- बौधत्व को पाने के लिए खुद के practical जरूरी है
- उपरति = साक्षी चैतन्य या स्थिरप्रज्ञ होकर जब हम कोई क्रिया कलाप करते हैं
- रति = क्रीडा करने को रति कहते है
- उपरति स्थिरप्रज्ञ होकर कर्म करने को कहते हैं
- आत्मा के दो मुख्य गुण शांतिमय और आनन्दमय है, जितने हम आत्मा के नजदीक जाते हैं तो व्यक्ति प्रफुल्लित रहता है वह शांति का अनुभव करता है
- योगी की ऐसी अवस्था होती है अथाह शान्ति व आनन्द वहा मिलता है तथा योगी यह जानता है कि प्रत्येक परिस्थिति में वह आनन्द कैसे पाया जाएं
- जैसे-जैसे यह गुण हमारे भीतर बढ़ता जाए तो समझना चाहिए कि हम आत्मा के करीब हैं, 24 घंटे जब ऐसी स्थिति में रहने लगा तो समझना चाहिए कि आत्म साक्षात्कार कर लिए
- उसी feeling / उसी बौधिक धरातल को आत्मा कहते है, चित्त जब अत्यंत शुद्ध हो जाए तो वही चित्त आत्मा में बदल जाता है
मायारूप उपाधि से युक्त जगत का कारण रूप सर्वगत आदि लक्षणों से युक्त परोक्ष रूप से सबल बह्म जो सत्यादि स्वरूप वाला है, वही तत् शब्द से विख्यात है, का क्या अर्थ है
- Super Conciousness – को तत कह दिया = परबह्म भी यही है
- माया = प्रकृति को वश में करने की ज्ञानयुक्त उर्जा = बह्म की बुद्धि = प्राण = नियंत्रण करने वाला प्राण शक्ति = अव्यक्त = रितम्बरा प्रज्ञा
जो आरती गाते है ॐ यम बह्म वेदा तवितो वदन्ति . . . इसका भाव क्या है
- उस बह्म को नमस्कार है, जिस बह्म के सारे गुणों का उपनिषद् में गुणगान किया जाता है
- उसी बह्म को प्रधान भी कहते है, पुरुष भी कहा जाता है तथा अन्य भी कई सारे उसके नाम है
- वह बह्म जो सभी कि उत्पत्ति का कारण है
- जिसके अन्त को / विस्तार को देवता व असुरों के द्वारा नही जाना जा सकता
- इस तरह मंत्र का अर्थ जानेगे तो श्रद्धा बढ़ जाता है तथा जब श्रद्धा बढेगी तभी भाव बनेगा
- भाव पूर्ण पूजा से अधिक फल मिलता है
- सारे वेद भी जिसकी स्तुति करते हैं
अनाहात चक्र का ध्यान कैसे करे
- अनाहात चक्र का ध्यान हृदय के सीध में किया जाता है, यह रीढ की हड्डी के बीच में बह्म नाड़ी में सूक्ष्म शरीर में चक्रो के रूप में स्थित है
- यह भावनाओं का केंद्र है
- Thorasic (T1 to T12) तक Nerve निकलकर एक जाल बनाए है, वही पर चक्र विद्यमान है, शरीर के जिस हिस्ते पर हम ध्यान करते है या जिस हिस्से के लिए हम प्राणायाम करते है तो वह उस हिस्से में विद्यमान चक्र को छूता है
- अनाहात चक्र के लिए हम हृदय के पास रीढ़ की हड्डी में सुर्य का ध्यान करेंगे
- पहले ध्यान करे कि फेफडा निरोग हो रहा है, 40 करोड वायु प्रकोष्ठ स्वस्थ हो रहे है, हृदय मजबूत हो रहा है तथा 200 वर्ष तक जीने की क्षमता उसमें आ गई है, वहा से निकलने वाली नस धननियो में कही कोलेस्ट्रोल नही है
- वहा से निकली प्राण विद्युत से आस पास के अंगो को निरोग बनाना चाहिए क्योंकि हृदय भावनाओं का केन्द्र है तो उस Area से निकलने वाले भावना रूपी प्रकाश को दीप्ति कहते है तो यहा से हम कण कण में दीप्ति, रोम रोम में दीप्ति, नस नस में दीप्ति का ध्यान करे तथा यही प्रकाश बाहर निकलकर सीधा मह तत्व तक जाता है
- फिर अपने प्रेम के दायरे को बढ़ाया जाए (सम्पूर्ण विश्व से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तक), तो सब (वृक्ष वनस्पतियां / पेड पौधे / जीव जन्तु) अपने लगेंगे
- तब निष्ठुर व्यक्ति भी संवेदनशील होकर Kind Hearted होता जाएगा, क्रोध तो दूर से ही प्रणाम करेगा
एडी में दर्द के लिए कौन सा आसन या प्राणायाम करे
- पहले Joint Movement फिर गति संचालन करके प्रज्ञा योग करे
- अपने खान पान में शाक सब्जी अधिक प्रयोग करे व वात बढ़ाने वाला भोजन न ले
- पानी का अधिक सेवन अपने शरीर के अनुसार करे
- जप व ध्यान भी करे
- कफ के रूप में कचरे फंसे हो तो सुर्यभेदी प्राणायाम भी उसे हटा देगा
- अर्थवा योग सेंटर Online join करे
स्वाध्याय व शास्त्र अध्यन में क्या अन्तर है
- स्वाध्याय = self study = स्वंय (आत्मा) का अध्यन = आत्मा की जानकारी देने वाले उपनिषद् का अध्यन
- स्व = आत्मा को जानने वाले साहित्य का अध्यन करे व स्वयं की आत्मसमीक्षा करे कि हम कहा है, इस अन्तर को पूरा करने में हम दैनिक दिनचर्या में क्या कर सकते है तथा फिर Practical में लग जाए तो उस तरह करेगे तो अब यह स्वाध्याय कहलाएंगा
- शास्त्र अध्यन – 6 दर्शन ये सभी शास्त्र कहलाते है, यह हमें संसार की जानकारी देते है
- स्वाध्याय में स्वयं (आत्मा) अध्यन करके Practical करना स्वाध्याय कहलाता है
- सांख्य दर्शन, योग दर्शन, वैशेषिक दर्शन, मीमांसा दर्शन , वेदान्त दर्शन ->यह 6 दर्शन हमें शास्त्र बताता है -> संसार के सभी घटको में तत्वज्ञान की जानकारी प्रदान करते है कि यह संसार कैसे बना है
- अपरा प्रकृति को शास्त्र कहते है और परा प्रकृति को स्व (आत्मा) कहते है
- दोनो का हमें ध्यान रखना है, शरीर में दोनो का वास है, संसार में रहने के लिए जीवन जीने की कला भी आनी चाहिए कि क्या खाए पीए, यह सब हमें शास्त्र बताएगा तथा आत्मा को कैसे शुद्ध करे यह हम स्वाध्याय से जानेंगे, पांचों कोशों (आत्मा के आवरणो) को हम आत्मा में ही ले सकते है
अन्तः क्या है परिष्कृत अतःकरण, चरित्र आहार व्यवहार वाले मनुष्य जप, पाठ और स्वर साधना के द्वारा विश्व कल्याण करते है कृपया प्रकाश डाले
- परिष्कृत आत्मा वाले जो मन बुद्धि चित्त अंहकार Refine कर लिए है तो वे आध्यात्मिक जीवन शैली अपने लिए भी अपनाते है तथा विश्व कल्याण भी करते है
- ऐसे व्यक्ति ही लोक सेवा में संसार को भगवान का उद्यान समझकर के अपने को ईश्वर का प्रतिनिधी मानकर इसे भी सुन्दर बनाते है, वे हर समय यह देखते है कि हम घर – परिवार – समाज – राष्ट्र – विश्व – प्रकृति के लिए हम किस प्रकार उपयोगी हो सकते है, जब अपना मन शुद्ध हो जाता है तो वह ईश्वर के मन से जुड़ जाता है, ईश्वर ऐसे निष्छल पवित्र मन वाली वरिष्ठ आत्माओ को अपने कार्यो को कराने का माध्यम बना लेते है तथा क्रिया कलाप करते हैं तथा दूसरो के लिए आदर्श प्रस्तुत करते हैं 🙏
No Comments