पंचकोश जिज्ञासा समाधान (19-08-2024)
आज की कक्षा (19-08-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
योगशिखोपनिषद् में आया है कि मूलाधार त्रिकोण में स्थित द्वादश अगुंल की सुष्मना जो मूलार्ध में छिन्न होकर उत्पन्न, वह बह्म नाडी के नाम से कहा गया है
- सुष्मना के Centre में बह्म नाड़ी स्थित है
- कंद मूल (मूलाधार – स्वादिष्ठान – मणीपुर) सभी को मिलाकर द्वादश अंगुल होता है, सारा मिलाकर कही कही कुण्डलिनी भी कहा जाता है तथा बह्म नाड़ी वही से शुरू होती है
- बह्म नाड़ी को जगाने के लिए पहले ईडा व पिंगला नाड़ी की सफाई करके दोनो को बराबर कर ले फिर शांत भाव से Meditation करके शक्तिचालीनी की क्रिया द्वारा कुण्डलिनी शक्ति को उपर ले जाया जा सकता है
- द्वादश का अर्थ यहा नाभी कंद से है इसे कुण्डलिनी भी कहा जाता है
मनुष्य जो भी सोचता है तो इसी के अनुरूप ही जीवन में घटित होने लगता है, यह कैसे होता है तथा इसका क्या विज्ञान है तथा तारीफ करने पर यह चला कैसे जाता है
- जब जब हमारा मन शांत हो तब यह अधिक काम कप्ता है, मन से जो भी विचार निकला तो उसे Electro Magnetic Radiation कहते है
- विचार मे चुम्बत्कव होता है Bio Electro Magnetic Radiation, तो वह अपने जैसे विचारों से आकर्षित होकर एक भारी चुंबक बन जाता है
- समान विचारों में दोस्ती जल्दी हो जाती है, इसलिए एक जैसे विचार अंतरिक्ष में इक्कठा होकर एक फौज बना लेते है
– जब विचार को बार बार सोचकर Project किया जाता है तो वह घनीभूत हो जाता है तथा फिर वह Condense होकर परिणाम में Matter बन जाता है, इसलिए -ve Thought से हमें सदैव बचना चाहिए तथा + ve ही सोचे - तारीफ करने पर किसी पर Project करते है तो विचार ढेर सारे प्राण विद्युत लेकर जाता है
- विचारों की गति 22 लाख 65 हजार Miles प्रति सैकण्ड है
- इसलिए यदि हम पृथ्वी पर कही भी बैठे हो तथा शरीर की Anatomy की जानकरी रखे तो भी केवल Thought के माध्यम से प्राणीक हीलिंग कर सकते है, इसी के आधार पर Prayer सफल हो जाता है
सरस्वती रहस्योपनिषद् में शुद्ध सत्वगुण की प्रधानता से युक्त प्रकृति माया कहलाती है, सतोगुणी माया में प्रतिबिम्बित चैतन्य तत्व को ही बह्म नाम से जाना जाता है, माया की दो शक्तियां है विक्षेप व आवरण, का क्या अर्थ है
- आवरण -> खास orbit मे एक Layer बना लेना जैसे आत्मा पर Layer (5 कोशो का) बना लेना
- जब विक्षेपण होता है, एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ का बनना, तब उसके गुण अवस्था में परिवर्तन होने पर पूरा स्वरूप ही परिवर्तित हो जाता है, जैसे दुध से दही का बनना
- अवस्था बदलने से स्वभाव का बदलना आवरण कहलाता है
- चंचल मस्तिष्क / मन में स्वयं का सही स्वरूप नही दिखाई देता
- पानी को हिलाने से Image नही दिखेगा = यही अवस्था रजोगुणी अवस्था है
- शांत अवस्था = सतोगुणी
- माया = चिदरूपणी = ज्ञानात्मक उर्जा ही माया है = जो अपने रूप बदल सकता हो जैसे उर्जा
सरस्वती माता को कशमीरी देशवासी क्यों कहा गया है
- कशमीर = उपर = मस्तिष्क = जैसे हिमालय देश के नक्शे में उपर है
वांग्मय 13 में दृश्य जगत की समस्त हलचलों के बीच योग बाजीगरी काम कर रही है उसे आध्यात्म की भाषा में माया कहा गया है, इसी को कुण्डलिनी भी कहते है, साधना क्षेत्र मे आध्यात्म की भाषा में इसे माया व कुण्डलिनी कैसे कहते है
- एक ही शब्द के दो प्रार्यवाची नाम है
- कुंडलिनी एक ऐसी बिजली है जिसमें ऊर्जा व ज्ञान दोनों घुला हुआ है
- प्राण को ही कुण्डलिनी कहा जाता है, कुण्डलिनी से ही गायंत्री की उत्पत्ति हुई
- अव्यक्त की स्थिति मे वही कुण्डलिनी कहलाई
- गुरूदेव इसे अर्धनारीश्वर भी कहते है तथा आज के वैज्ञानिक इसे Quanta भी कहते है
- माया = जैसा दिख रहा है वैसा वास्तव में है नहीं
- उसका Dual Nature हैं -> वह Kinetic Energy भी है तथा स्थिर भी है
दो प्रकार की माया का क्या अर्थ है
- मायावी = कब बदल जाएगा जैसे प्रकृति का हर क्षण तेजी से बदल रहा, एक सैंकड़ का हजारवा हिस्सा भी आपस में भिन्न भिन्न है
- विशेषण के रूप में इसका उपयोग किया जा सकता है
- इसे स्थिर मानकर न चिपके, इसके पीछे ना दौडे क्योंकि जब तक इसे पकड़ेंगे तब तक इसका स्वरूप बदल चुका होगा
- हर क्षण बदलने के स्वभाव का है तो इसे बांधकर न रखे, हर पल समय अपने पास से गुजर रहा है तो उसका लाभ आत्मिक विकास करके उठाएं
अथर्ववेद के पितृमेध सुक्त में आया है कि विस्तृत पृथ्वी को पार करके अति दूरस्थ लोक में ले जाने वाले अनेक पितर जनों द्वारा चले गए मार्ग में जाने वाले विवस्वान के पुत्र राजा यम की हविष्यात्र समर्पित करते हुए अर्चना करें, का क्या अर्थ है
- पृथ्वी से दूर सौरमंडल में अनेक ग्रह है, इसे पार करके जाने को कहा
- विवस्वान = सुर्य
- यम उनके पुत्र है, दुखः नियंत्रक देवता है
- सुर्य के दिव्य तेज से हानिकारक कीटाणु नष्ट हो जाते है
- सविता की साधना करेंगे तो चेतना को दूर तक पहुंचा देगा
- सूर्य साधना से व्यक्ति आत्म साक्षात्कार कर सकता है इसी से ही कहा जाता है कि यह गायंत्री / सावित्री / सविता साधना बहुत दूर तक ले जाती है
Overpowering Emotions (प्रबल भावना) को संतुलित कैसे किया जाएं
- भावावेश = भावनाओ में रोए नही अपितु उन भावनाओँ से शक्ति ले
- भावनाओं पर नियंत्रण प्रज्ञा (तत्वज्ञान) से होता है
- भावनाएं संसार से जुड़ी है तथा भावनाओं में किसी ने कुछ कह दिया तो दूसरे व्यक्ति ने यदि आत्महत्या कर ली तो कह सकते है कि भावनाओं को दिशा नही दे पाया
- ज्ञान के आभाव मे
- प्रज्ञा से सब नियंत्रित किया जाता है तथा हम उन भावनाओं का सदुपयोग प्रज्ञा से कुछ बड़ा कार्य करने में करे
- मरना है तो बुद्धिमता के साथ मरो -> इसका अर्थ यह है कि मरने से पहले कुछ ऐसा कार्य कर जाओ कि आने वाली पीढ़ियां तुम्हें स्मरण करें
शीतला माता की प्राण प्रतिष्ठा में एक बार आपकी आखों में भी आसु आ गए थे तो आपने कहा था कि भावनाओं में बहना नही चाहिए तो आप भावुक कैसे हो गए तब आपने कहा कि दूसरो की भावनाओं के लिए ऐसा करना पडता है,यहा विरोधाभास प्रतीत होता है
- यदि कोई मर गया हो तो वहा आप हस नही सकते, जहा वाणी मौन हो जाती है तो वहा आंसू ही एक भाषा है,
- आंसू भी एक भाषा है जो दूसरे से थोड़ा Tuning करने मे मदद करती है
- आदर्श के पक्ष में रहते हुए आंसु आ सकते हैं तो आंसु हमें याद दिलाता है
- संसार से भावनाए जुडी होती है तो हमारे हृदय में दर्द होता है तथा वहा Heart Fail भी हो सकता है
- जहां आदर्श के पक्ष में बात होती है तो वहां हृदय वाले क्षेत्र में दर्द नहीं होता, Brain वाले क्षेत्र में खीचाव होता है तथा फिर उस कारण आसु आते है, यह उदार भावनाओं का परिचय देता है
- इसमे आत्मा निर्मल होती है तथा भाव किसी विशेष क्षेत्र में कार्य करने के लिए और भी अधिक प्रखर बन जाता है
हम जानते है कि साधना में आगे बढने के लिए संयम में रहना तथा बह्मचर्य का पालन करना चाहिए तो यह बात जब हम लोगो को समझाते हैं तो वह यह कहते हैं कि पहले सारे ऋषि भी गृहस्थ आश्रम में रहकर जिम्मेदारी निभाते थे तो हम भी वही कर रहे है, उन्हे कैसे समझाएं
- गृहस्थ आश्रम में रहे परन्तु शोध का विषय क्या रखे, ऋषियो ने शोध का विषय आत्मिकी को रखा तो उसे संन्यास कहा जाता है
- घर में रहकर आत्मानुसंधान करेंगे तो संन्यासी ही कहलाएंगे
- घर मे ही रहकर उन्हे दिक्कत नहीं होती थी इसलिए बाहर जाने की आवश्यकता नही होती थी
गुरू जी कहते थे की तुम हमारा काम करो हम तुम्हारा काम करेंगे तो क्या इसका आशय यह है कि वर्ण आश्रम के अनुशासन का पालन करें कृपया प्रकाश डाला जाय
- गुरुदेव संस्कृति पुरुष थे – उन्होंने स्वस्थ शरीर स्वच्छ मन स्वच्छ समाज -> तीनो दिशाओं में हम यदि आगे बढ़ रहे है तो अच्छी बात है
- भक्त एक बार उनके पैर धोने चले गए तो गुरुदेव ने कहा कि हमें ठंड लग जाती है तथा यदि तुम्हें सेवा ही करनी है तो अपने घर में माता-पिता की सेवा करें, गुरुदेव चाहते थे कि हम में से हर कोई एक Divine Personality के रूप में Develope हो -> यही गुरुदेव का काम था
- अपनी संस्कृति को विकसित करने में जिन भी ऋषि परम्पराओं में यदि हम सहयोग कर सके तथा Cultral मेरुदण्ड जो टूट गया है, उसे फिर से बनाने में सहयोग करें, तब सभी ऋषियो का आर्शीवाद मिलेगा
- लोक सम्मान तो मिलेगा ही तथा साथ में हमें आत्मसंतोष भी मिलेगा कि हमने कोई बडा काम किया
- जो ज्ञानवान है वे ऋषि परम्परा को पुनः स्थापित करे, जो धनवान है वे समाज के पीडा निवारण में अपने धन को लगाएं
सबसे बडी सेवा क्या है
- आत्मसुधार संसार की सबसे बड़ी
- किसी की सलाह नही लेना है
- व्यक्ति यदि अपने आप को नहीं सुधरता तो उसके विचार अंतरिक्ष में जाकर अवरोध उत्पन्न करते हैं
- दूसरों को सुधारना तभी संभव है जब आदमी अपने आप को सुधारे रखें
- अपने अनुभव से दूसरो को समझाना / बताना पडता है
- अगर हम कोई गलत काम करते हैं तो अपने बच्चों को उसे गलत काम को करने से नहीं रोक सकते, वह मानेगा ही नहीं
- ऐसा व्यक्ति यदि दूसरों का रोग न भी ठीक कर सके तो भी स्वयं का रोग तो ठीक कर ही सकता है इससे भी समझ में एक अच्छा विचार जाएगा
- प्रत्येक व्यक्ति एक फूल है यदि एक भी व्यक्ति मुस्कुराता रहेंगा तो भी गार्डन ( समाज ) में शोभा बनी रहेगी
अभी पिछले प्रश्न के उत्तर में आया कि आत्मा निर्मल होती है।एक तरफ कहा जाता है कि आत्मा निरलेप होती है। कृप्या स्पष्ट करें
- निरलेप = आत्मा किसी भी तरह से विकृत नही होती या आत्मा लिप्त नही होती हैं
- गन्दगी उस आत्मा में प्रवेश नही करती
- आत्मा इतना सूक्ष्म व पवित्र है कि आत्मा को कोई किसी भी प्रकार से क्षति नहीं पहुंचा सकता, ना ही उसे गन्दा कर सकता है
- वह हमेशा शाश्वत पवित्र अवस्था में रहती हैं
- यह आत्मा सदैव शुद्ध व पवित्र रहती है तथा सत रज तम इसमें प्रवेश नही कर सकता 🙏
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