पंचकोश जिज्ञासा समाधान (20-08-2024)
आज की कक्षा (20-08-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
योगशिखोपनिषद् में आया है कि शरीर में स्थित प्राणाग्नि से ही नाद उत्पन्न होता है, शरीर में स्थित हड्डियों के मध्य में वड़वाग्नि स्थित है, का क्या अर्थ है
- वड़वाग्नि = स्वादिष्ठान चक्र की अग्नि, यह हड्डी के भीतर स्थित है
- वह जल तत्व का प्रतिनिधित्व करता है, जल के भीतर की अग्नि ही बड़वाग्नि है
- अग्नि का वास जल में होता है
- जैसे शंकराचार्य ने अपने कुण्डलिनी जागरण में भी लिखा है
- अग्नि मणीपुर में है परन्तु उसका वास स्वादिष्ठान में होता है
- पृथ्वी जल अग्नि मिलकर स्थूल शरीर बनाते हैं
अथर्ववेद के पितृमेध सूक्त में आया है कि हे पितृगण ! आप हमारी रक्षा के लिए पधारे, यज्ञशाला में दक्षिण की ओर घुटनों के बल विराजमान होकर यज्ञ में समर्पित हवियो को ग्रहण को, हमसे मानवीय भूलो के कारण जो अपरा
- पितृतीर्थ मुद्रा = हनुमान आसन में यजमान बैठता है तथा इस आसन में बैठा हमारे द्वारा दिए जाने वाले इस स्वधा संज्ञक अन्न को वे पितृ स्वीकार करे
- इस आसन में बैठने पर South Pole (मूलाधार) में Activeness / स्फूर्ति ले आता है
जब महा मुद्रा महा बंध लगाया जाता है तो गले में जलन होती है कृप्या प्रकाश डाला जाय
- महामुद्रा व महाबंध क्रियाओं में अधिक बल का प्रयोग न करे
- अक्सर ये समस्या नही होती परन्तु कंठ में यदि रुकावट / Blockage है तो क्रिया करने से पहले उज्जायी प्राणायाण में आवाज लेते हुए प्राण वायु को धारण करे
- सामान्य रूप से उज्जायी प्राणायाण करते समय हम आवाज नही करते परन्तु गले की समस्या के लिए अभी आवाज करते हुए उज्जायी प्राणायाम करे
सावित्रियोपनिषद् में सविता, सावित्री व अग्निदेव के बारे में आया है कि अग्निदेव सविता है, पृथ्वी सावित्री है । मन सविता है, वाकशक्ति सवित्री है । सावित्री महाशक्ति का प्रथम पाद भू -> तत्सवितुर्वरेण्यं , द्वितिय पाद भुवः -> भर्गो देवस्य धीमहि, तृतीय पाद स्वः -> धियो यो नः प्रचोदयात् है तो हम जानते है कि गायंत्री मंत्र के 12 अक्षर आध्यात्मिकी है 12 अक्षर भौतिकी है जबकि सावित्री शक्ति का रूप है तो गायंत्री मंत्र को भिन्न भिन्न रूपो में कैसे समझे
- अनेको Format से गायंत्री मंत्र को समझे
- तीन चरण = त्रिधा प्रकृति = स्थूल सूक्ष्म कारण रूप में उसे समझे
- जहा पंचधा प्रकृति आया है तो उसे 5 कोशो के रूप में समझे
- जहा तीन भाग में वर्णीकरण किया गया है -> तीन वेदो के रूप में समझे
- एक ही सत्य प्राण को अनेको तरीकों से समझा जा सकता है
- हमें उस सत्य को अनेको तरीको से समझने समझाने की कला आनी चाहिए
सविता पुरुष सावित्री स्त्री -> दोनो प्रजोत्पादन करते है, वे पुनः मृत्यु को नहीं प्राप्त करते . . तथा उन्हे अमृतत्व की प्राप्ति हो जाती है का क्या अर्थ है
- सविता व सावित्री को एक कर दिया = शिव व शक्ति का मिलन = कुण्डलिनी व सहस्तार का मिलन -> उस अवस्था में हमें आत्म बौधत्व होगा, इसे आत्मसाक्षात्कार भी कहा जाता है
- जब आत्मा की अमरता का बोध होता है तो संसार से भैय समाप्त हो जाता है
- सिद्धिया भी मिल जाती है, रोग से मुक्ति हो जाती है, इसीलिए आत्म साक्षात्कार अति आवश्यक है
योगचूडामणीपनिषद् में प्राणायाम के विषय में आया है कि प्राणायाम में पूरक कुंभक व रेचक साथ साथ चलते है, द्वादश मात्रा युक्त प्राणायाम करना चाहिए, 24 मात्र युक्त प्राणायाम मध्यम कोटि का तथा 36 मात्रा युक्त प्राणायाम उत्तम कोटि का होता है, का क्या अर्थ है
- एक बार गायंत्री मंत्र बोलने के साथ खीचा जाएं
- फिर एक बार बोलते समय तक रोका जाए
- फिर एक बार छोडते समय तक रोका जाएं
- इस तरीके से यह 12 मात्रा का कहा जाएगा
- जब एक बार यह लयात्मक स्थिति मिल जाए तो फिर धीरे धीरे समय दुगना तिगना तक बढ़ाना चाहिए
- धीरे-धीरे अपनी क्षमता को बढ़ाना है
किसी के प्रति जब यह संकल्प करते है तो उसी समय घटित हो जाता है फिर जगह जगह पद का डींग हाकने से वह समाप्त हो जाता है, क्या अर्थ है
- इसमें एक अंहकार तत्व है वह Blast करता है, अहंकार [घमंड] उसे समाप्त कर देता है
- बुलबुला यदि बड़ा होता जा रहा हे तो वह फटेगा
- अहंकार यदि आत्मिकी वाला हो तो वह अंहकार Infinite Boundary वाला होता है तो वह नहीं फटेगा
- हमारी भूल रहती है कि हम जीवन में मिलने वाली किसी भी उपलब्धि को अपनी उपलब्धि समझ लेते हैं परंतु वास्तव में यह ईश्वर की उपलब्धि है
- उपलब्धिया मिलने पर अहंकार नही, विनम्रता आनी चाहिए
- एक बार नारद ने कहा कि हमने काम को जीत लिया तो पिता बह्मा ने समझाया कि काम को जीत लिया तो अच्छी बात है परन्तु उस का अहंकार नही आना चाहिए, जब आगे जाकर जब वे मोहित हो गए तब उनका यह अहंकार टूटा
- अपने भक्त को किसी भी बात का Ego नही रखना चाहिए विनम्रता रखनी चाहिए, Ego रखना भी है तो आत्मा का करे ताकि देवता बड़े बड़े कार्य हमें देंगे व आगे की यात्रा सुगम बनी रहेगी
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में आया है कि विराट प्रणव 16 मात्राओं से युक्त होता है, इस प्रणव को 36 प्रकार के तत्वो से भी परे कहा गया है . . . सभी ॐ से ही बना है . . . इस प्रकार एक बह्म अनेको प्रकार से विभिन्न स्वरूपों को प्राप्त कर लेता है, जब सभी की उत्पत्ति गायंत्री से हुई है तथा यहा आया है कि सभी की उत्पत्ति ॐ से हुई है तो सृष्टि की उत्पत्ति ॐ से हुई है या गायंत्री से
- ॐ को बीज माना जाए तो बीज से ही शांखाए पत्तिया फूल फल निकलकर वृक्ष का रूप बन जाएगा
- ॐ रूपी प्रणव से व्याहतिया उत्पन्न हुई फिर इन्ही व्याहृतियों से गायंत्री (प्राण) की उत्पत्ति हुई -> जैसे गायंत्री मंत्र तत्सवितुर्वरेण्यं से शुरू होता है, उसमें ॐ भूर्भुवः स्व: शामिल नही है, इसका अर्थ है कि अभी इच्छा हुई कि हम एक से अनेक बने, तब बीज से वृक्ष व वृक्ष से अनेक बीज बने
- मुख्य स्रोत प्राण ही है, किसी ने कह दिया की बीज से वृक्ष बन फिर अन्य किसी ने कहा कि वृक्ष से बीज बना -> दोनों ही बातें एक है व सत्य है
- गायंत्री = वृक्ष है
ॐ से गायंत्री की उत्पत्ति समझ आती है परन्तु गायंत्री से ॐ की उत्पत्ति को कैसे समझेंगे
- जब गायंत्री सिमटने लगेगी तब ॐ में विलीन हो जाएगी, फिर ॐ अव्यक्त में व अव्यक्त बह्म में विलीन हो जाएगा, प्रतिप्रसवन की प्रक्रिया में सब बह्म में विलीन होता चला जाएगा
- जैसे प्राण से जब सृष्टि की रचना करनी है तो प्राण से ॐ का आवाज निकालेगे व वेद मंत्र बोलेंगे, तब प्राण की जरूरत पड़ेगी तब प्राण से ॐ की उत्पत्ति करेंगे
- ॐ का Practical करेंगे तो प्राण ही Practical करेगा, ॐ भी सर्वव्यापी है व प्राण भी सर्वव्यापी है
- एक शब्द बह्म (प्राण रूप) व दूसरा नाद बह्म (ॐ रूप) के रूप में आएगा
- एक ही सत्य को कहने के अनेक तरीके होते हैं
- यदि हमसे कोई कहे कि ॐकार का उच्चारण करें तो ॐ कहने के लिए प्राणिक ऊर्जा की आवश्यकता पड़ेगी तो कहेंगे कि गायंत्री से ॐ की उत्पत्ति हुई
- ॐ बैखरी के रूप में भी कहा जाता है तथा ॐ का परा व पश्यन्ति का स्वरूप भीतर वाला है
हम जानते है कि आत्मा का Ego रखना चाहिए, कभी कभी हमारा आत्मभाव वाला उत्तर बहुत अच्छा होता है तो उससे Ego में बंध जाते है तो हम अपने ही जाल में फंस जाते है तो ऐसी अवस्था में हम कैसे उभरेंगे
- कभी कोई ऐसा भी Senior व्यक्ति मिलेगा जो कहेगा कि आप बहुत बोलती है तो वहा Senior ब्रह्मा विष्णु महेश के समकक्ष आपको समझाएगा
- यह हमें स्वयं भी अनुभव करना चाहिए कि कौन सा बात कहा कहना है, फिर भी यदि कहना ही है तो केवल Motivation के लिए कहा जा सकता है तथा जरूरत पड़ने पर सही जवाब दिया जा सकता है
सामवेद में सोमलता या सोमपान, मदिरापान जैसा है या कोईऔषधि है, इसे स्पष्ट करे
- चारो वेदो में सोम शब्द आया है
- ऋग्वेद के अनुसार यदि कोई आत्मज्ञान की मस्ति में झूम रहा हो तो ऋग्वेद के अनुसार कहा जा सकता है कि वह सोमरस का पान कर रहा है
- निष्काम कर्म योग / अनासत्त कर्म योग यदि हम कर रहे है तथा आत्म शांति का अनुभव कर रहे है तो इसे यर्जुवेद का सोमरस कहा गया है
- ईश्वर के भक्ति में मग्न रहना / भाव संवेदना / आत्मीयता का भाव -> सामवेद का सोमरस है
- अर्थववेद का सोमरस = बह्मी व शंखपुष्पी औषधिया जो अर्थवा ऋषि ने बताई परन्तु सोमलता नामक जडी बूटी भी थी जो हिमालय में पाई जाती थी
- सोमलता को गिलोए भी कहा गया, यहीअमृता भी कही जाती है, मरणासन अवस्था में कुछ समय मृत्यु टाल देता है
- तुलसी ( तुलसी पंचांग ) को भी कही कही सोमलता कहा गया है
- सरस्वती पंचंक या इन सभी का मिश्रण -> ये सभी औषधिया भी अमृतत्व प्रदान करती है 🙏
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