पंचकोश जिज्ञासा समाधान (21-08-2024)
आज की कक्षा (21-08-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
योगशिखोपनिषद् में आया है कि गुदा के पृष्ठ भाग में ईडा दण्ड के सदृश्य मेरुदण्ड विद्यमान है जो देह का आधार है, यह देह में स्थित देर्घास्थित तक व्याप्त है तथा इसे बह्य नाडी भी कहते है का क्या अर्थ है
- मेरूदण्ड = रीढ की हड्डी तथा इसका बनावट सरस्वती की वीणा की तरह है
- शीर्षासन में सिर व रीढ की हड्डी को देखने पर वीणा की भाति ही दिखाई देती है
- शरीर में बिजली की शक्ति कुण्डलिनी में विद्यमान है परन्तु वह मस्तिष्क वाले भाग से नियंत्रण होती है
- जिस प्रकार सरस्वती की वीणा में तार लगे रहते है उसी प्रकार रीढ़ की हड्डी में से ईडा पिंगला सुष्मना गांधारी हस्तजिवा . . अनेक नाड़िया निकलती है
- इसलिए रीड की हड्डी को वीणा की उपमा दी गई है तथा सारी स्वर लहरिया भी मेरुदंड से ही निकली है जो अंतरिक्ष में दौडती है, इसलिए सरस्वती की वीणा से तुलना किया गया है
प्रारम्भिक वैदिक काल में जब विधवा हुआ करती थी तो उसका विवाह पति के छोटे भाई से कर दिया जाता था तो दोनो के संतान को नियोग कहा जाता था तो उसके बारे में बताए
- विवाह होने के पश्चात उसे नियोग नहीं कहते, तो उसमें दूल्हा के छोटे भाई से शादी करवाना बुद्धिमानी ही हैं, छोटे भाई को देवर भी कहते है
- देवर -> जो वर का स्थान दे सके
- घर में ही सारी बात रह जाती है तथा आपस में आत्मीयता भी बनी रहती थी
- इनसे जो बच्चे होगे तो वह संतान नियोग नही कहलाती थी, नियोग तब कहलाएगी जब पति से बच्चे पैदा नहीं हो रहे हो तो घर की सहमति से बाहर का व्यक्ति नियुक्त किया जाए
- जैसे व्यास ऋषि को महाभारत में नियोग के द्वारा बुलाया गया था, Insemination के लिए -> धृतराष्ट्र, विदुर व पांडु सभी व्यास जी के द्वारा नियोग के द्वारा हुए थे
- तेजस्वी संतान उत्पन्न के लिए शुक्राणु तेजस्वी हो ताकि समाज में कोई अनगढ़ संतान जन्म न ले
- पहले लोगो के विचार सुलझे होते थे
- संतान का नाम माता पिता का ही पड़ेगा
- यह एक प्रकार प्राकृतिक गर्भाधान था परन्तु आजकल Artificial insemination अधिक उपयोग होता है
अर्थववेद के पितृमेध सूक्त में आया है कि त्वष्टा ( स्त्रष्टा ) अपनी पुत्री (प्रकृति) को वहन करते योग्य अथवा विवाहित करते है, (इस प्रक्रिया में) समस्त विश्व के प्राणी सम्मिलित होते है, यम की माता (सरण्यू) को जब सम्बन्ध हुआ, उस समय विवस्वान् (सूर्य) की महिमामयी पत्नी लुप्त हुई, का क्या अर्थ है
- विवाहित = आध्यात्मिक अर्थो में ले क्योंकि ये नाम व्यक्ति वाची नही है परन्तु अनादि काल से चले आ रहे है
- जैसे दृष्टि को कश्यप भी कहते है, कश्यप एक ऋषि भी है तो यहा ये सब गुण बोधक नाम होते है
- ये सब आध्यात्मिक शक्तियों से उत्पन्न कलाएं होती है
- त्वष्टा = सृष्टि को कहा जाता है
- यम = मृत्यु को नियंत्रण करने वाले देवता है
- लुप्त होना = स्थूल से सूक्ष्म होना भी समझ सकते है, अन्य अर्थ भी मिलेंगे क्योंकि पूरा वेद एक परा विज्ञान है केवल व्यक्तियो तक सीमित नहीं
- High Frequency की तरगें भी दिखती नही
- गुणबोधक चिंतन करेंगे तो भी अपने से और भी अधिक अर्थ निकल जाएगा
- समस्त प्राणी का सम्मिलित होना = सभी जड जगत सुर्य से ही उर्जा पाते है तो सब प्राणी जुडे रहते है
क्या परिस्थितयो के कारण चक्र स्वयं भी जागृत हो जाते कृपया प्रकाश डाला जाय
- यदि पिछले जन्म में कोई साधना किया गया होगा तो इस जन्म में वे साधनाएं परिस्थितियों के आधार पर जीवन में आएगी, परिस्थितियां एक चुंबकत्व पैदा करती है, तब उसका फल अचानक मिल जाता है
- जैसे पहले हम मंद बुद्धि के थे तथा पढ़ने में मन नहीं लगता था परन्तु 9th Class में एक ऐसी घटना घटी तथा मस्तिष्क में कुछ महसूस हुआ तथा अचानक एक बड़ा परिवर्तन जीवन में आया तथा स्कूल में 2nd Class का Math भी नही समझ आता था तब एक ही महीने में हम 10th Class के भी problem Solve करके Top रहने लगे
- परिस्थितियों के अनुरूप पूर्व जन्मो का संस्कार घटनाकम्र के अनुसार सामने आकर बड़ा परिवर्तन कर देता है तथा फिर जीवन में प्रगति तेज होती है
- Accident से भी कभी कभी बडा ज्ञान मिलता है
- दुघर्टनाएं बौधत्व भी देती है
सीतोपनिषद् में शक्ति स्वरूपणी सीता जी त्रिविध रूप वाली साक्षात शक्ति स्वरुपा है, क्रिया शक्ति – इच्छा शक्ति व ज्ञान शक्ति तीनो रूपो में प्रकट होती है, इच्छा शक्ति के तीन प्रकार -> श्री देवी, भू देवी व नीला देवी, अपने प्रभाव से सबका कल्याण करने वाली चंद्र सूर्य और अग्नि के रूप होती है, का क्या अर्थ है
- स्थूल तत्व में अग्नि तक आता है
- नीला = अनाहात से उपर वाला Area = कारण शरीर के लिए
- श्री देवी = सूक्ष्म शरीर के लिए
- सीता जी को यहा = आदिशक्ति / प्राणशक्ति के रूप मे लिया गया है तथा यही प्राण शक्ति इच्छा क्रिया और विचार के रूप में काम करता है
- यहां सीता जी को कथा कहानी के रूप में ना लेकर मूल प्रकृति के रूप में लिया है
वे सीता ही सुर्यादि समस्त गुणों को प्रकाशित करती है, काल की कलाएं, ऋतु, संवत्सर, अयन का क्या अर्थ है
- अयन = दक्षिणायन या उत्तरायण
- संवत्सर = एक एक वर्ष = Annual
- काल गणना छोटे छोटे रूप में भी बनाए जाते है
नारदपरिव्राजकोपनिषद् मे समस्त प्राणियों के अन्तः में विद्यमान अन्तरयामी आत्मा अपने स्वरूप का आनन्द मात्र उपयोग करने मे समर्थ है . . . अनुज्ञात्री, अनुज्ञय व अविकल्प आदि . . . वह परमात्मा ही ईश्वर के तृतीय पाद के रूप में जाने जाते है का क्या अर्थ है
- अनुज्ञात = जो जाना जा सकता है
- अनुज्ञात्री = जो जानने योग्य है
- अनुज्ञेय = जिसे हम जानना चाहते है
- आत्मा ही जानने योग्य है, उसका कोई दूसरा विकल्प नही है (अविकल्प)
- यदि पेट भरने की व्यवस्था हो जाए तो अपना सारा जीवन आत्मा को जानने में लगा देना चाहिए
- सभी योग साधनाओं का मुख्य लक्ष्य आत्म साक्षात्कार व परमात्मा का साक्षात्कार ही है
जप तप दोनो दो होकर भी एक है जप के बिना तप दिशाहीन हो जाता है, तप के बिना जप निष्प्राण हो जाता है, का क्या अर्थ है
- तप = संयमित -> विचार – इंद्रियों – स्वाद का संयम करे, संयम करेंगे तो शक्ति बढेगा
- संयम करने के बाद अब शब्द भी मंत्र हो जाएगा तथा मंत्र भी बोलेंगे तो वह फलेगा
- गुरु से हमें जो मंत्र मिला है उसका जप भी करना चाहिए और हमारा जीवन भी तपस्वी होना चाहिए
- संयम का अर्थ दुरुपयोग रोकना , सदुपयोग करना
जो मंत्रों के द्वारा कुंडलिनी जागरण करवाते है वो विधि सही है
- जिसकी जिनमें पकड हो, वो वही बताएगे, यदि लाभ मिल रहा है तो ठीक हैं अन्यथा बदलाव करना पड़ेगा
- केवल मंत्र जप करेंगे तो समय अधिक लगता है, यह पिपिलिका मार्ग कहलाता है, करोड़ो जप करेंगे तो सिद्धी मिलेगी
- जप के साथ तप भी करेगे, लोकसेवा भी करेंगे तथा आचरण भी ठीक रखेगें तो जल्दी सिद्धि मिलती है
- जप + तप + ध्यान + स्वाध्याय + सत्संग + संयम + सेवा -> सब मिलाकर करेंगे तो बहुत जल्दी ही लाभ मिलेगा
- एक से भी होगा परन्तु समय बहुत अधिक लगेगा
- श्रद्धा असली चीज है, श्रद्धा से ही ज्ञान की प्राप्ति होती है, शबरी की सेवा ही उसके चुम्बकव आया तथा उसने ईश्वर को पा लिया
- स्वर्ग का राज्य लोकसेवियो के लिए सुरक्षित रहता है, प्रज्ञोपनिषद् में आया है
- सेवा थी अपनाया जाए
- जल्दी चाहिए तो सभी को मिलाना आवश्यक है
जप से पूर्णता तक नही पहुंचा जा सकता तो विश्वामित्र ने करोडो जप से कैसे पाया, यहा विरोधाभास उत्पन्न होता है
- Time अधिक लगता है
- पंतजलि के योग दर्शन के अन्तिम अध्याय कैवल्य पाद में आया है कि 5 तरीके से सिद्धी मिलती है
- जन्म से (गुरुदेव के पूर्वजन्म के संस्कार ऐसे थे)
- औषधि से ( जैसे गुरुदेव ने जौ + छाछ का सेवन लंबे समय तक किया)
- मंत्र जप (गुरुदेव ने यह भी चरमसीमा का किया)
- तपस्या ( गुरुदेव तपोनिष्ट भी कहलाएं)
- समाधि (गुरुदेव ने कहा कि मैं लिखता भी हूं तो भी समाधि की अवस्था में लिखता हूं)
- गुरुदेव से भेंट करने के बाद एक बार ऐसा लगा कि वे समाधि की अवस्था में हिमालय से बोल रहे हैं
- गुरुदेव ने पांचो उपायो को चरम सीमा तक किया
- विश्वामित्र ने केवल तपस्या ही नही किया अपितु सेवा भी ही है, इंद्रियों का संयम भी किया था, लोकसेवा का कार्य किया -> मिश्र में उनके शिष्य ने 10000 शुद्रो को ब्राह्मण बनाया था
- किसी भी ऋषि की केवल जप से ही बात नही बनी थी 🙏
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