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पंचकोश जिज्ञासा समाधान (22-08-2024)

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (22-08-2024)

आज की कक्षा (22-08-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-

योगशिखोपनिषद् में आया है कि मन ही कर्मो का उत्पादक है मन ही पाप में लिप्त होता है तथा मन जब उदासीन है तब वह पाप व पुण्य से रहित होता है, का क्या अर्थ है

  • मन का उदासीन होना = आत्मा में स्थित रहना
  • आत्मा उदासीन है, यहा उदास का अर्थ Sad नहीं है, Neutral है
  • आत्मा किसी से लिप्त नही होता, चिपकता नहीं है
  • केवल गुण ही गुणों में परिवर्तित होते है
  • मन upset हो सकता है, मन को कष्ट भी हो सकता है परन्तु आत्मा का यह स्वभाव नही है तथा आत्मभाव में रहेंगे तो प्रसन्नता ही होगी
  • Neutral केवल आत्मा है बाकि सब Charged Particle है

आत्मा वा रे मन्तव्यम् का आशय क्या आत्मानुशासन का पालन करना है कृप्या प्रकाश डाला जाए

  • आत्मा ही मनन करने योग्य है, मन्तव्य का यही अर्थ है, आत्मा महत्व करने योग्य व मनन चिंतन का विषय है, चर्चा का विषय है
  • आत्मा पर चिंतन का अर्थ है कि शरीर में आत्मा का स्थिति क्या है, आत्मा को कैसे परिष्कृत किया जाए व कैसे आत्मज्ञान पाया जाए तथा संसार व इंद्रियों को आत्मा के नियंत्रण में कैसे किया जाए
  • इस पर मनन चिंतन करने को मन्तव्य कहा है तथा मन्तव्य का अर्थ आत्मानुसन का पालन भी करना है व आत्मा को जाने व आत्मा का बौधत्व पाए , जैसे श्री कृष्ण ने गीता के दूसरे अध्याय में आत्मा के विषय में अनेक बाते बताई . . .
  • मन्तव्य = आत्मा को जाने व आत्मा का बौधत्व पाए .
  • हम कैसे कष्टों से दूर हो जाए, इसके लिए आत्मा का बौधत्व होना चाहिए, इन सारी चीजों पर मनन चिंतन व व्यवहार करना मन्तव्य कहलाएगा
  • शरीर नष्ट होने पर भी आत्मा नष्ट नही होती
  • आत्मा को केवल रट भर लेने से बात नही बनेगी
  • आत्मा का Misuse रोकना व Good use करना

अर्थववेद के पितृमेध सूक्त में आया है कि हे पिता ! जिन पुरातत मार्गी सै हमारे पूर्वज पितरगण गये है उन्ही से आप भी गमन करे, वहा स्वधारूप अमृतात्र से तृप्त होकर राजा यम और वरुण देवो के दर्शन करे

  • अग्निदेव की 2 शक्तियां हैं – स्वाहा और स्वधा
  • स्वाहा = देवताओ को
  • स्वधा = पितरो तक ले जाएगा आपकी श्रद्धा के अनुरूप -> स्वधा पदार्थ संज्ञक होता है
  • स्थूल चिंतन में उनकी चेतना वास करती है
  • पितृमेध यज्ञ में यह सब किया जाता हैं ताकि उनके चेतना का स्तर उपर उठे, केवल अपने घर परिवार तक ही सीमित न रहे
  • जो पूरे विश्व को अपना मानते हैं (वसुदेव कुटुम्बकम का भाव) वे दिव्य पितर कहलाते हैं
  • पितृमेध यज्ञ को यही तात्पर्य है कि हमारे पितर तृप्त हो तथा छोटे दायरे से बडे दायरे में जाए
  • यम का अर्थ है कि बार बार वे जन्म मरण की प्रक्रिया में इसलिए गए है, केवल स्थूल तक सीमित रहे
  • वरुण भी बंधन में बाधता है
  • जिन पर यम की कृपा हो गई वह जन्म मरण की प्रक्रिया से बाहर निकल जाता है तथा वरूण की कृपा से वह बंधन मुक्त हो जाता है

सौभाग्यलक्ष्मीपनिषद् में आया है कि श्री सुक्त की 15 ऋचाएं है, प्रथम तीन ऋचाओ का छन्द अनुष्टुप है, चौथी ऋचा का बृहति है, आगे की 2 ऋचाओं का त्रिष्टुप छन्द है, आगे की 7 से 14 ऋचाओं का अनुष्टुप छन्द है, 15 वी व शेष मन्त्रो का छन्द प्रस्तार पंक्ति है, प्रस्तार पंक्ति छन्द क्या है

  • प्रस्तार पंक्ति = विस्तारित = विस्तृत रूप कोई पक्ति दो बार आ गया तो उसे प्रस्तार पंक्ति कहेंगे
  • पितरो का एक मंत्र भी प्रस्तार पंक्ति छन्द में आता है, श्री सुक्त के मंत्रो का भी वर्णन है

मन में ऐसा विचार आता है की पंचकोशी साधना की क्रिया योग में नियमितता लाना बहुत जरूरी है। परंतु यही मन उस क्रिया योग को करने की संकल्प शक्ति को कार्यान्वित नहीं होने देता। तो मन की इस चाल को कैसे मात दिया जाए और सत संकल्प को क्रियान्वित करने के लिए आवश्यक आत्मबल की अभिवृद्धि के लिए कौन सा क्रिया योग है।

  • पूज्य गुरुदेव से दीक्षा के समय में 3 संकल्प लिए गए थे
    1 . जप करेंगे
  1. नियमित स्वाध्याय करेंगे -> अणुव्रत ले बिना स्वाध्याय किए बिना खाना न खाए , अपने मनपसन्द विषय का चुनाव स्वाध्याय के लिए करे तो रस भी अधिक मिलेगा
  • प्रत्येक कोशो के एक एक Practical को अपने मन के अनुरूप चुन ले, सभी कोशो के Practical एक साथ (Like -> All Five in One, Four in One, Three in One, Two in One) अपनी इच्छानुसार कर सकते है
  • साधना को एक खेल की भाति खेले / करे
  • सबके साथ शुरूवाती दौर में ऐसा ही होता है, कुछ समय मन आनाकानी करता है फिर स्वाध्याय व Practical में आनन्द लेने लगेगा

क्या 6 कृतिकाओं को 6 चक्रो के रूप में तथा शिव के अंश को जीव के रूप में जाना जा सकता है

  • जाना जा सकता है उसको दिशा मिलेगी
  • कार्तिज्ञ को 6 कृतिकाओ ने पकाया था, प्रत्येक चक्रो में उधर्वगमन जरूरी होता है तब धीरे धीरे साधक में प्रतिभा विकसित हो जाएगी फिर धीरे धीरे होसला बढेगा, ज्ञान बढ़ेगा तथा भावनाएं भी परिष्कृत होती जाएगी
  • ये सभी गुण जब विकसित होंते जाएंगे तब कहेंगे कि कार्तिज्ञ मजबूत होने लगा

कार्तिज्ञ को 6 कृतिकाओं ने पकाया, का क्या अर्थ है

  • 6 चक्रो में उधर्वगमन के लिए काफी Heat की जरूरत होती है, पहले उन्हे दुध पिलाया जाता है
  • जैसे जब हम महामुद्रा, शक्तिचालीनी का अभ्यास करते है तथा आसन उपवास भी करते है तो उससे मूलाधार की अग्नि प्रज्जलित होती है
  • मूलाधार जगने को अर्थ है कि बच्चा दे दिया
  • बच्चा दे दिया तो अब उस बच्चों को दूध पिलाया जाएगा अर्थात अब हम उसका तन्मात्रा साधना में उसका प्रैक्टिकल करेंगे तो अब वह दुध पीकर पुष्ठ होने लगेगा तब उर्जा पचने लगी तो स्वादिष्ठान चक्र का लाभ मिलेगा तब फिर हम ज्ञानेंद्रियों का हम सदुपयोग करने लगेगे तथा आगे बढते रहेंगे तो इसी को कहा जाता है कि कृतिकाओं ने दुध पिलाया

छान्दग्योपनिषद् मे आया है कि ऋग्वेद व सामवेद उसी पुरुष का वर्णन करते है, इसलिए वह परमात्मा उदगीथ है, उस उथ का गान करने वाला उदगाथा कहलाता है, वह परम पुरुष उथ आदित्य से भी उंचे लोको व देवो का भी नियात है और देवों की कामनाओं का पूरक है यह उदगीथ की आधिदैविक उपासना का रूप है, का क्या अर्थ है तथा इस उपनिषद का निचोड़ क्या है

  • छान्दग्यो का अर्थ = ईश्वर से हर चीज आच्छादित है इसलिए उसका एक नाम छान्दोग्य भी पड़ गया
  • यदि हमें उस ईश्वर से जुडना है तो हमारी भावनाएं भी उच्च स्तर की होकर उससे जुड़ें
  • हमारी भावनाएं किसी के कल्याण से जुड़ी हुई हो
  • हम संगीत गाते है तो उसमें अपना प्राण घोले तथा कल्याण के भाव रखे, उसी को उदगीथ कहते है
  • उदगीथ = उद + गीथ
  • उद = उसकी चेतना Refine होकर उपर उठे
  • गीथ = गायन / वाचन / क्रिया / कलाप

हमें बचपन से लगता है कि गुरुदेव बचपन से हमारी रक्षा करते आए हैं ऐसा अनुभव होता है

  • आप भाग्यशाली है जो गुरु के प्रति ऐसा भाव रखते है तो अब गुरु के प्रति आपका सर्मपण बढ़ जाना चाहिए
  • गुरु / ईश्वर के प्रति अपना समर्पण बढ़ाते हुए अपने त्याग व प्रतिभा का इसमें उपयोग करना चाहिए, इससे दूसरो को Motivation मिलेगा

समय क्या है, इसे कैसे समझा जाए, मन के विपरित क्रियाएं हो रही हो तो समय स्वतः ही लंबा लगने लगता है और जब मन की इच्छा के अनुरूप कार्य होता है तो समय जल्दी बीतने लगता है, ऐसा महसूस होता है और योगियों के लिए तो समय का कोई बंधन भी नहीं होता, इसे किस प्रकार समझा जाएं

  • यदि हम किसी में मन लगा देगे तन्मय हो जाएगे तो समय वहा रुक जाता है तथा पता नही लगता कि कितना समय निकल गया, वहा समय शून्य की अवस्था में चला जाता है
  • तन्मय होने पर समय निकल जाता है तथा उस अवस्था में लाभ भी मिलता है, गहराई भी अधिक मिलती है
  • दो घटनाओ के बीच में अवस्था परिवर्तन (फल के पकने की अवधि) को समय कहते है जैसे गर्भ में शुक्र से शिशु बनने की क्रिया (परिपक्व अवस्था) को समय कहते है
  • समाधि में समय शून्य हो जाता है क्योंकि वहा कोई घटना नही घटती और वह तन्मय हो गया है
  • श्री कृष्ण ने अर्जुन को जब 700 श्लोक सुनाए तो वहा समय / काल रुक गया था
  • इस दुनिया में ऐसा भी Dimension है जहा Time & Space शून्य / NIL है, ऐसा अनुभव हमने अपने Accident में किया कि हमारा एक Nano Second गुजरा था जबकि बाहर की घड़ी 20 Minute बीता दी तो उस अवस्था में व्यक्ति तन्मयता की स्थिति में वहा चला जाता है जहा मन लायक बाते होते लगती है तो वहा वह खो जाता है तथा समाधि की अवस्था में चला जाता है
  • वहा संसार का समय तीव्र गति से निकल जाता है
  • इस पर मनन चिंतन करने से नई नई चीजें मिलती जाएंगी
  • जहा हमारे मन लायक काम न हो तो वहा समय देर से बीतता है तथा एक एक पल भारी लगता है तो उस अवस्था में अपने भार को हटाना हो तो मन लायक स्वाध्याय कर ले तो फिर वहा Enjoy ले सकते है
  • इस प्रकार आनन्द लेने की भी एक कला होती है, यह कला जान लेंगे तो समय का भी सदुपयोग हो जाएगा तथा समय का कोई क्षण निरर्थक नहीं जाएगा

समय का रुक जाना व काल ने कहा कि मुझे भी सुनना है का क्या अर्थ है

  • आत्मिकी की अवस्था में संसार शून्य हो जाता है व संसार की शून्यता का बोध हो जाता है तब ऐसा लगता है कि मानो संसार में कोई घटना ही नहीं घट रही है, ऐसा साक्षात्कार होने लगता है
  • आत्मिकी की चर्चा में समय शून्य हो जाता है, समय केवल भौतिक जगत में होता है जहा गतिशीलता होती है परन्तु जहा गतिशीलता ही नहीं है वहा समय अपने आप मर गया समझना चाहिए

नारदपरिव्राजकोपनिषद् मे आया है कि उस एक नेयमी वाले तीन घरो से युक्त 16 सिरो से सयुक्त, 50 अरो से परिपूर्ण, 20 सहयोगी अरो से युक्त मोह रूपी एक नाभी से युक्त एक चक्र उन जिजासु जनो ने देखा, का क्या अर्थ है

  • हमें अपनी बुद्धि से इसे सोचना चाहिए
  • 50 वर्ण अक्षमालिको में मिलते हैं, इन्हीं से सारा संसार चलता है
  • 16 सिरो = 16 कलाओं के रूप में उसे ले
  • 20 सहयोगी अरो से युक्त -> कर्मेंद्रियां + ज्ञानेंद्रिया + मन बुद्धि चित्त अंहकार (मह तत्व) = ये सभी तत्वों की ही गणना है
  • प्रत्येक ऋषि अपने अनुरूप ही गणना करता है 🙏

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