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पंचकोश जिज्ञासा समाधान (23-08-2024)

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (23-08-2024)

आज की कक्षा (23-08-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-

योगशिखोपनिषद् में आया है कि योगी को चाहिए कि वह वायु बिन्दु चक्र तथा चित्त के नियोजन का अभ्यास करें, इसमें से किसी एक के साथ समाधिगत हो जाने से वह अमृतत्व की प्राप्ति कर लेता है

  • वायु -> प्राणमय कोश पर नियंत्रण
  • बिंदु -> आनन्दमय कोश पर नियंत्रण
  • चित्त -> मनोमय व विज्ञानमय का विषय है
  • चक्र -> मूलाधार से सभी चक्रो को मिलाते हुए अन्त में बह्मरंध्र में मिल जाता है
  • चक्रो के जागरण की जानकारी योगकुण्डलिनी व योगचूडामणी उपनिषद् में दिया है कि यह कैसे करें
  • यदि पंचकोश जागरण की साधना करेंगे तो इसमें सब शामिल है और साधक इस पंचकोश साधना से भी सब पा लेगा -> एक एक क्रियाओं को मन लगाकर सिद्ध होने तक करे

अंगिरा, अथर्वा और भृगु आदि हमारे पितृगण अभी-अभी पधारे हैं वे सभी के सभी सोम के इच्छुक हैं उन पितृ गणो की कृपा दृष्टि हमें उपलब्ध हो, हम उनके अनुग्रह से कल्याणकारी मार्ग की ओर बढे का क्या आशय है तथा यहा केवल तीन ऋषियों का नाम ही पितरो के रूप में क्यो आया है

  • भृगु ऋषि पचंकोश योग साधना के बहुत बड़े ऋषि हुए है, पंचकोश योग साधना से व्यक्ति सभी पितरो को भी तृप्त कर लेगा व मुक्त योनि को चला जाएगा, गायंत्री महाविज्ञान में या भृगु वलि में इसका वर्णन मिलता है
  • अंगिरा ऋषि भी श्रेष्ट रहे है इन्होंने बिंदु साधना करके अपने वीर्य को पकाया व बहुत तेजस्वी बन गए थे
  • अर्थवा ऋषि षटचक्र व कुण्डलिनी जागरण के Expert थे
  • इन ऋषियों के ज्ञान विज्ञान का हम मनन चिंतन करें व प्रैक्टिकल करें
  • उदाहरण कुछ Seniors का या कुछ Leaders का ही दिया जाता है

मण्डलबाह्मणोपनिषद् के पंचम बाह्मण में आया है कि सविषय मन बंधन का कारण है व निर्विषय मन मुक्ति का कारण होता है, का क्या अर्थ है

  • विषया आसत्त = रात दिन विषयो के आसत्त मन जो केवल अधिक से अधिक संसार का सुख भोगने में लगा हुआ है = वह उठते बैठते केवल उसी का सपना देखता है व ताना बाना बुनता है तो उसका आत्मा बिल्कुल उपेक्षित हो गया = यही विषया आसक्त मन कहलाता है, यही पदार्थ के क्षणिक सुख के बंधन में है
  • र्निविषय मन -> विषय को भोगते हुए जो विषय से चिपके नहीं, योग साधना इसी के लिए किया जाता है, तन्मात्रा साधना इसी के लिए होता है ताकि हम र्निविषय हो सके

मिताहार का क्या अर्थ है

  • जो शरीर को set करे / शरीर के उपयुक्त हो तथा शरीर जिसे पचा सके, overdiet ना ले
  • हितभुक – ऋतभुक – मितभुक को मिताहार कहते है
  • हितभुक – वह सारा भजन जो शरीर मन और आत्मा के लिए फायदेमंद लगता हो
  • मितभुक – भोजन उतना ही ले जिसे शरीर पचा ले, आवश्यकता से अधिक लिया भोजन शरीर में विषाक्तता पैदा करेगा
  • ऋतभुक – स्व:उर्पाजित अन्न लेना, अपने परिश्रम की कमाई का अन्न लेना तथा मौसम के अनुरूप भोजन ग्रहण करना तथा ईश्वर का प्रसाद मानकर प्रसन्न मन से खाना, यह सब ऋत संज्ञक होता है
  • यह सब मिताहार में आता है
  • मित = मित्र / मितवा / जो शरीर मन आत्मा का मित्र हो

अर्जुन कुरुक्षेत्र के युद्ध में माया व परिवार को लेकर सोचने लगे परन्तु इस युद्ध से पहले भी अर्जुन ने बहुत सारे युद्ध लड़े थे तब उनके मन में ऐसा विचार क्यों नहीं आया

  • पहले इसलिए विचार नही आया क्योंकि पहले गुरु सामने नही आए थे पितामाह सामने नही थे
  • फिर कुरुक्षेत्र के युद्ध में देखा कि सब अपने ही लोग है तो शास्त्र का ज्ञान बाधा बन रहा है कि गुरु तथा पितामह पूज्य है तब उनकी हत्या करने का पाप उसे सता रहा था
  • श्री कृष्ण ने अर्जुन को इसलिए भी ज्ञान दिया क्योंकि यदि आप न्यायपालिका हैं / राजा हैं तो सामने यदि किसी ने अधर्म के मार्ग पर चलकर गलत काम कर रहा हो तो वह अपना सगा संबंधी हो या पराया हो, हमे निष्पक्ष न्याय करना है तथा उसे दण्ड देना ही देना है, वहा मोह न करे तथा यह उचित भी नही है क्योंकि आत्मा मरती नहीं तथा आप अपनी Duty को न छोड़े

गुरुजन व पितामह तो विराट युद्व में भी अर्जुन के सामने थे तो विराट युद्ध में उसे मोह क्यों नहीं हुआ

  • वहा अर्जुन को श्राप मिला था जब वह नपुसंक बन गया था तो उसका प्रभाव भावनाओं पर होता है
  • विराट युद्ध व कुरुक्षेत्र युद्ध में थोडा अन्तर दिखा था क्योंकि विराट युद्ध में जान से मारने की बात नहीं आई थी
  • युद्ध मैं मारना तथा युद्ध में पछाड़ना दोनों अलग बातें हैं, मारने की बात कुरुक्षेत्र युद्ध में ही आई थी

सौभाग्यलक्ष्मीपनिषद् में नौवे चक्र के बारे में कहा गया है कि आकाश चक्र को नवम् चक्र कहा गया, इस चक्र में षोडश दलो से युक्त कमल उधर्व की ओर मुख किए हुए अवस्थित है उसके मध्य में कणिका 3 गुणो की जननी होने के कारण तीन शिखरों से युक्त, पर्वत के आकार के सदृश्य कही गई है, चक्र के बीच में उपर की ओर झुकी हुई शक्ति है, उसी को दृष्टि में रखकर ध्यान करे का क्या अर्थ है

  • यह नवम चक्र सब सहस्तार चक्र से जुडा हुआ है
  • झुकी हुई शक्ति = ईश्वरीय चेतना आत्मा के हित में काम करने के लिए झुकी हुई है
  • ईश्वर ने मनुष्य की रचना अपने सहयोगी के रूप में की ताकि सृष्टि का इतना बडा विस्तार संभाल सके
  • अपरा प्रकृति तीनो गुणो की जननी है और प्रकृति भी ईश्वर की शक्ति से ही उत्पन्न है, यहा रितम्बरा प्रज्ञा को ही तीनो गुणों की जननी कहा गया है
  • Absolute Truth का साक्षात्कार इस नवम चक्र के जागरण से ही होता है

पैगलोपनिषद् में आया है कि इशादृष्टित आवरण शक्ति से रजोगुण युक्त विशिष्ट शक्ति प्रकट होती है, इसे महत कहते है . . . महः तत्व के बाद हिरण्यगर्भ तथा हिरण्यगर्भ के बाद महः तत्व हुआ, का क्या अर्थ है

  • पैंगल ऋषि ने बताया कि बह्म से पहला Phase जो निकला तो उसे ईश्वर कहा गया व उसे अव्यक्त भी कहा गया, यह विशुद्ध सत तत्व प्रधान था
  • फिर उससे रजोगुण प्रधान वाला हिरण्यगर्भ हुआ है, इसी को यहा कुछ स्पष्ट व अस्पष्ट बताया गया
  • फिर उस के बाद विराट उत्पन्न हुआ तथा विराट में सत रज तम तीनों है
  • सत तत्व से मन और ज्ञानेंद्रियां बनी, रज से प्राण व कमेंद्रियां बनी तथा तम तत्व से पंचसूक्ष्मभूत व पंचमहाभूत -> ये सब विराट के अवक्षेपण से उत्पन्न हुए, प्रकाश का ही सब Condense स्वरूप है
  • सत रज तम के सब पदार्थ, प्रकाश से ही उत्पन्न हुए है
  • फिर पैगल ऋषि ने पाचों महाभूतो के Composition भी बताए
  • पंचकोश के वैज्ञानिक पक्ष के बारे में भी इसी में बताए है

आध्यात्मोपनिषद् में आया है कि सभी तत्वो के बारे में आया है कि वायु जिसका शरीर है जो वायु के भीतर संचरित होता है परन्तु वायु जिसे नही जानती . . . इसी प्रकार बुद्धि चित्त अहंकार के विषय में यही बात आई है तो बुद्धि से ही हम समझते हैं कि कहा ईश्वर है तथा कहा नही है तो फिर यहा ऐसा क्यों आया है कि बुद्धि के द्वारा उसे नही जाना जा सकता

  • मनुष्य की निर्णयात्मक शक्ति को बुद्धि कहते है
  • बुद्धि से हम संसार के लाभ व ईश्वर के प्रति मिलने वाले लाभ के बारे में निर्णय लेते है, आत्मिकी लाभ देखने के लिए विवेक दृष्टि / दूर दृष्टि चाहिए
  • मन में जिसका पलडा भारी होगा, बुद्धि उसी के अनुरूप निर्णय करेगा
  • बुद्धि की बहस को Observe करने वाला कौन है, अब लगता है की बुद्धि से परे भी हमारी सत्ता है क्योंकि हम देख रहे होते हैं कि हम क्या सोच रहे हैं
  • ज्ञान की कितनी भी गहराई में चाहे क्यों न जाए परंतु Observation की सत्ता बनी रहती है
  • प्रश्न है कि Observation की सत्ता किसकी है
    यही हमारा मूलस्वरूप है जो आकाश की भांति विराट है, यही आत्म तत्व भी है, इसलिए कहा गया की बुद्धि नहीं जानती कि हम किस की शक्ति से सोच रहे हैं
  • कोमा में गया व्यक्ति जो कुछ नही जानता उसका शरीर को चलाने वाला कौन है वह कोई और ही है
  • अहंकार का अर्थ Planning / आकृति / मान्यता बनाना है, यह तत्व कभी खत्म नही होता, केवल Refine होता है, इसलिए कहा कि अंहकार भी उसे नही जानता
  • प्राण में है परंतु प्राण भी उसे नहीं जानता
  • मृत्यु में भी वह है परंतु मृत्यु भी उसे नहीं जानती, मृत्यु का अर्थ यहां संसार में होने वाले परिवर्तन से है, किसकी शक्ति से वह परिवर्तन हो रहा है, वह ये नही जानता
  • आत्मा मरती नही, यह लगता है कि वह आत्मा सबसे बलवान है
  • शरीर पर मृत्यु पकड़ बना लेती है परंतु आत्मा तक जाती है तो मृत्यु भी चूर-चूर हो जाती है मृत्यु को भी वह आत्मा खा जाता है
  • इससे हम यह सोच सकते हैं कि हमारे शरीर के भीतर आत्म रूपी कितना शक्तिशाली बल है, उसे बल को जो जितना बढ़ाता गया वह अपने आप को उतना अधिक शक्तिशाली महसूस करेगा
  • प्रकृति का नियम है कि सत रज तम रूपी तरगों में बदलाव आता रहता है तो हम इन तरंगों का आनन्द ले तथा इसमें फसें नही
  • आत्मस्थिति में ही हम पाएंगे कि हम संसार का वह जीवन के प्रत्येक क्षण का आनंद ले रहे हैं

जीव का परमात्मा व संसार से स्वभाविक संबंध है तो फिर जीव परमात्मा से विमुख होकर संसार की ओर ही क्यो बैठा हुआ है

  • शरीर हमें इसलिए मिला है क्योंकि पहले पूर्वजन्म में वह संसार में कुछ जान रहा था परन्तु उसकी मृत्यु हो गई तो इच्छाएं व कामनाए आधी अधूरी रह गई तो यही कामनाएं फिर से पूर्नजन्म का कारण बनती है
  • दूसरी बात ईश्वर ने मनुष्य को शरीर दिया स्वयं को जानने के लिए व धरती को स्वर्ग बनाने के लिए तो
  • आत्मविस्मृति के कारण ही हमें कष्ट होता है
  • संसार के सभी दुखोः से स्थाई निवृति होना ही मोक्ष कहलाता है तो इस मनुष्य के शरीर मेंऐसे ऐसे उपकरण चक्र उपचक्र उपत्तिकाएं लगी हुई हैं, पंचकोश है  ताकि इनके माध्यम से वह स्वयं को जाने व आत्म साक्षात्कार करें
  • ईश्वर ने करोड़ो ब्रह्माण्ड बनाए तो उसे चलाने के लिए भी हमें यह शरीर मिला -> इसे कहते हैं धरती को स्वर्ग बनाना
  • गुरुदेव ने कठोपनिषद् के सुत्रो को सरल करके त्रिनचिकेता अग्नि के रूप में बताया
  • तीन अग्निया = उपासना साधना अराधना
  • ऋषियो ने जो ज्ञान दिया उसे हम भूल गए, उसे आज के युग में कल्याण के लिए कैसे लागु करे
  • मनुष्य जन्म का एक यह कारण भी था कि हम पितरो के ऋण को पूरा चुकाए तथा अपने को समाज के लिए उपयोगी बनाएं
  • यह सब भी इन्ही शरीर से संभव है

ईशावास्योपनिषद् में यह आया है कि जिस स्थिति में यह जान लेता है कि यह आत्म तत्व ही सभी भूतो के रूप में प्रकट हुआ है, उस एकत्व की अनुभूति की स्थिति में शोक अथवा मोह कहां टिक सकते हैं, ऐसी स्थिति में व्यक्ति शोक अथवा मोह से परे हो जाता है, क्या यही अवस्था आत्मबोध की अवस्था है या इससे आगे भी कोई अवस्था है तो जब यह अवस्था आती है तो इस अवस्था में हमें क्या ध्यान रखना हे व आगे कैसे बढ़ना है

  • जब यह पता लग जाएगा कि सभी एक ही प्रकाश से सब निकले है / बने है
  • शुरू मे जब ईश्वर ने प्रकाश बनाया तो उसके बाद यह सभी तत्व बनना शुरू हो गए
  • जब यह सब जान जाएगा तो घृणा का भाव समाप्त हो जाएगा सबने एक ईश्वर ही दिखाई पडने लगेगा, इस ज्ञान के अभाव में हमारे विचार केवल जिनके साथ मिलते हैं उन्हीं से हमारा तालमेल बनेगा, सभी के साथ नहीं
  • जब यह पता लग जाएगा कि सबमें एक ही ईश्वर पाठ कर रहा है तो उसमें उस समय एक अलग ही आनंद की अनुभूति होगी तथा वह शोक मोह से परे हो जाएगा -> शोक में मोह से परे हो जाना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है
  • सबमें एकत्व का दिखाई पड़ना -> तब व्यक्ति हर क्षण आनन्द व मस्ति में रहेगा तथा किसी चीज को पाने के प्रति मोह नहीं रहेगा
  • जब भीतर यह अवस्था आती जाएगी तो आत्मा तृप्त होती जाएंगी तथा भीतर एक स्पंदन व फुदकन सी महसूस होती रहती है
  • यही जीवन का अंतिम उद्देश्य है तब पुर्नजन्म नही होगा, यही स्थिति परमपद कहलाता है, यही बोध लंबे समय तक होते रहना चाहिए
  • यदि 5 मिनट तक भी ऐसी अवस्था आती है तो उसके लिए ईश्वर का धन्यवाद दें वह धीरे-धीरे इस अवस्था को समर्पण के भाव से सेवा करते हुए बढ़ते रहे
  • यही अभ्यास करते करते यह पता चलेगा कि एक मस्ति, एक आनन्द बढ़ता जा रहा है तथा भीतर ढूढ़ने पर क्रोध का पता ही नहीं चलेगा कि सारा क्रोध कहा चला गया
  • सारा क्रोध प्रेम में बदल चुका रहेगा, यह बहुत बड़ी उपलब्धि है तथा इसे साधारण नही समझा जाए

एक सप्ताह ते शीर्षासन में दोनो नाक बंद हो जा रहा हे कृपया प्रकाश डाले

  • ऐसी अवस्था में जब दोनो नाक बंद हो जाए तो वापस लौट आए तथा Recovery ले ले
  • सुर्यभेदन से या उज्जायी से भस्तिरिका से दोनो नाको की सफाई कर ली जाए
  • धीरे धीरे सास ले या एक अन्य तरीका भी है कि नाक से सांस ले तथा मुंह से छोड़ दें क्योंकि छोड़ते समय ही नाक से अधिक Blockage आता है
  • सास मुह से छोडने पर उष्णता भी कम होगी
  • यह बदलाव करके इसका Feedback बताएं 🙏

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