Panchkosh Meditation and Curiosity Solution
PANCHKOSH SADHNA – Navratri Sadhna Special Online Global Class – 15 Oct 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
SUBJECT: पंचकोश जागरण ध्यान & प्रश्नोत्तरी
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह (बाबूजी)
पंचकोश की पांच प्रकाश/ ज्योति/ अग्नि:-
१. अन्नमयकोश का प्रवेश द्वार – नाभि चक्र (मणिपुर चक्र/ सूर्य चक्र) – प्राणाग्नि (ओजस्),
२. प्राणमयकोश का प्रवेश द्वार – मूलाधार चक्र – जीवाग्नि (तेजस् – प्रतिभा),
३. मनोमयकोश का प्रवेश द्वार – आज्ञा चक्र (third eye – pituitary and pineal gland) प्रज्ञा ज्योति (योगाग्नि),
४. विज्ञानमयकोश का प्रवेश द्वार – अनाहत चक्र (हृदय चक्र) – दीप्ति ज्योति (आत्माग्नि – श्रद्धा – भक्ति, सौजन्यता, सहृदयता, आत्मवत्सर्वभूतेषु, वसुधैव कुटुंबकम्) व
५. आनंदमयकोश का प्रवेश द्वार – सहस्रार चक्र – मस्तिष्क मध्य (ब्रह्म रंध्र – reticular activating system) कांति ज्योति (ब्रह्माग्नि) का जागरण ।
वासनात्मक शान्ति – तृप्ति ।
तृष्णात्मक शान्ति – तुष्टि ।
अहंता की शान्ति – शान्ति ।
पूज्य गुरुदेव अपने शिष्यों (प्रज्ञा पुत्रों) से कहा कि आप भूमंडल में जहां भी रहें, किसी भी field में हों – जनमानस आपको एक अच्छे पिता की अच्छी संतान (समझदार, ईमानदार, जिम्मेदार व बहादुर) कहें ।
जिज्ञासा समाधान
मन से उपर बुद्धि और बुद्धि से भी उपर महत् तत्त्व हैं । मन के साथ पंच ज्ञानेन्द्रियां के संयोग से मनोमयकोश व बुद्धि के साथ पंच ज्ञानेन्द्रियां के संयोग से विज्ञानमयकोश बनता है । मनोमयकोश इच्छाशक्ति से संपन्न तो विज्ञानमयकोश ज्ञानशक्ति से संपन्न है । आनन्दमयकोश की समाधिवस्था में हम अपने मूल स्वरूप में आ जाते हैं । मनोमय कोश third eye (तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु), विज्ञानमयकोश की दिव्य दृष्टि (आत्मवत्सर्वभूतेषु / वसुधैव कुटुंबकम्) के रूप में समझा जा सकता है ।
कठोपनिषद्:-
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः ॥1-III-10॥ भावार्थ: इन्द्रियों की अपेक्षा उनके विषय श्रेष्ठ हैं और विषयों से मन श्रेष्ठ है । मन से बुद्धि श्रेष्ठ है और बुद्धि से भी वह महान आत्मा (महत) श्रेष्ठ है ॥
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः । पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः ॥1-III-11॥ भावार्थ: महत से परे अव्यक्त (मूलप्रकृति) है और अव्यक्त से भी परे और श्रेष्ठ पुरुष है । पुरुष से परे कुछ नहीं । वह पराकाष्ठा है । वही परम गति है ॥
यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि । ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ॥1-III-13॥ भावार्थ: बुद्धिमान वाक् को मन में विलीन करे । मन को ज्ञानात्मा अर्थात बुद्धि में लय करे । ज्ञानात्मा बुद्धि को महत् में विलीन करे और महत्तत्व को उस शान्त आत्मा में लीन करे ॥
शान्ति (ब्रह्मानन्दं परम सुखदं) हेतु ‘अद्वैत’ की साधना करनी होती है । ‘वासना, तृष्णा व अहंता’ शांत के उपरांत उद्विग्नता (स्वमेव) शांत ।
तन्मात्रा साधना से विषयासक्ति (शब्द, रुप, रस, गंध व स्पर्श) शांत (संतुलित) होती है । आहार में ऋतभोक्, हितभोक् व मितभोक् का ध्यान रखा जाए । मितभोक् एवं अच्छे digestion हेतु भोजन को खूब चबा-चबाकर खाएं । ईमानदारी पूर्वक अर्जित आहार लिया जाए । प्रसन्न मन से भोजन लिया जाए । अपनी शारीरिक पृष्ठभूमि व कार्यक्षेत्र का ध्यान रखते हुए लाभ देने वाले आहार को प्राथमिकता दी जा सकती है ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
No Comments