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Pragyopnishad – 1

Pragyopnishad – 1

प्रज्ञोपनिषद् (प्रथम मण्डल)

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 04 June 2022 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT:  प्रज्ञोपनिषद् (प्रथम मण्डल)

Broadcasting: आ॰ अमन जी/ आ॰ अंकुर जी/ आ॰ नितिन जी

शिक्षक बैंच:
1. आ॰ निशी शर्मा (गाजियाबाद, उ॰ प्र॰)
2. आ॰ मीना शर्मा (नई दिल्ली)

(1st chapter) लोक कल्याण की जिज्ञासा प्रकरण (पृष्ठ सं॰ – १.१)

नारद जी – धर्म धारणा का प्रसार विस्तार करने का व्रत ।

अनास्था‘ का दौड़ होने की वजह से मानवता के पतन के 2 मुख्य कारण:-
1. अचिनत्य-चिन्तन (negative thoughts)
2. अनुपयुक्त आचरण (wrong deeds)

प्रज्ञावतार (बुद्धावतार का उत्तरार्ध) – मनुष्य के मनःस्थिति व परिस्थिति में भारी परिवर्तन/ रूपांतरण करने हेतु ।

प्रज्ञावतार के सहयोगी व्यक्तित्व:-
1. श्रद्धावान् (सद्भावना)
2. प्रज्ञावान् (सद्ज्ञान)
3.  निष्ठावान् (सत्कर्म)

(2nd chapter) अध्यात्म दर्शन प्रकरण (पृष्ठ सं॰ – १.१३)

मनुष्य शक्ति सुविधा संपन्न; ईश्वर ने हमें अपनी जीवन क्रम व गतिविधियों का चयन करने की इच्छानुसार छूट दी है ।

अंतःकरण की समीक्षा व उनका उत्थान (सुधार + निर्माण + प्रगति) ही आत्म विज्ञान है ।

मनुष्य की जो भी प्रगति अथवा दुर्गति दिखाई देती है वह स्वयं की ही संरचना है (गहणाकर्मणोगतिः) ।

(3rd chapter) अजस्र अनुदान उपलब्धि प्रकरण (पृष्ठ सं॰ – १.२२)

‘योग’ के तीन चरण:-
1. उपासना (approached) – parameter is उत्कृष्ट चिंतन ।
2. साधना (digested) – parameter is आदर्श चरित्र ।
3. अराधना (realised) – parameter is शालीन व्यवहार ।
उपरोक्त तीनों के अवगाहन से जीव में ईश्वर का अवतरण (समर्पण विलय विसर्जन) संभव बन पड़ता है ।

(4th chapter) संयम शीलता कर्तव्य परायणता प्रकरण (पृष्ठ सं॰ – १.३१)

चार संयम/ शक्ति:-
1. इन्द्रिय संयम/ शक्ति
2. समय संयम/ शक्ति 
3. विचार संयम/ शक्ति
4. साधन संयम/ शक्ति
प्रथम तीन ईश्वर प्रदत्त एवं साधन शक्ति तीनों का सम्मिलित प्रतिफल है जिसका उद्देश्य धरा पर स्वर्ग का अवतरण (वसुधैव कुटुंबकम्) है ।

कर्म मात्र श्रम नहीं उसके साथ उच्चस्तरीय मनोयोग का तन्मय समावेश होना चाहिए ।

(5th chapter) उदार भक्ति भावना प्रकरण (पृष्ठ सं॰ – १.४०)

त्रिधा प्रकृति की तरह चेतना जगत के प्रगति क्रम के 3 निर्धारणाएं/ विभूतियां:-
1. ज्ञान
2. कर्म
3. भक्ति

भक्ति (आत्मीयता/ निः स्वार्थ प्रेम/ परमार्थ/ सेवा) – आदर्शों से अटूट प्रेम है । जो वसुधैव कुटुंबकम् के रूप में परिलक्षित होता है ।

(6th chapter) सत्साहस प्रकरण (पृष्ठ सं॰ – १.४९)

संसार में अवांछनीयता (प्रतिकूलता/ संघर्ष) इसलिए है ताकि’ न्यायनिष्ठा’  (गहणाकर्मणोगतिः) के प्रति प्रेम रहे ।

स्मरण रहे विनम्रता, कायरता का पर्याय नहीं हो सकती एवं पराक्रम, उदण्डता का पर्याय नहीं बन सकता है । सौजन्य युक्त पराक्रम से बात बनती है । @ धर्मो रक्षति रक्षितः । 

(7th chapter) युगान्तरीय चेतना लीला सन्दोह प्रकरण (पृष्ठ सं॰ – १.५८)

विश्वव्यापी युगान्तकारी चेतना का अवतरण युग प्रवाह क्रम में भारी उलटफेर हेतु होता है । “परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।।4.8।।”

विश्वनिर्माण/ युगपरिवर्तन/ धरा पर स्वर्ग के अवतरण का प्रारंभ आत्म क्षेत्र से होता है (आत्मसुधार ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है) । आत्मनिर्माणी ही विश्वनिर्माणी होते हैं ।

जिज्ञासा समाधान (श्री लाल बिहारी सिंह ‘बाबूजी’)

आ॰ निशी शर्मा दीदी एवं आ॰ मीना शर्मा दीदी जी को प्रणाम एवं बहुत सारा आभार । सभी आत्मसाधक बहिनों से आग्रह है कि वे प्रज्ञोपनिषद् का स्वाध्याय करें और इसके शिक्षण/ प्रेरणा का अपनी शैली (भाषा) में जनसामान्य के बीच प्रसार करें ।

ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव मनोमयकोश तक ही है । अतः इसके अनावरण के बाद हम द्वन्द्व से मुक्त हो सकते हैं । गायत्री की 2 उच्चस्तरीय साधनाएं:-
1. गायत्री पंचकोशी साधना
2. कुण्डलिनी जागरण
दोनों के संगम से साधना को पूर्णता प्रदान की जा सकती है ।

बहिर्मुखी ‘इन्द्रियों’ को अंतर्मुखी (नियंत्रित) करने हेतु अंतःकरण चतुष्टय का आश्रय लेना चाहिए । परिष्कृत अंतःकरण के वश में इन्द्रियां ठीक वैसे ही होती हैं जैसे कुशल सारथी के वश में घोड़े । अतः हमें आत्मपरिष्कार का पुरूषार्थ अनिवार्य रूप से करना होता है । आत्मपरिष्कार के 4 चरण:-
1. आत्मसमीक्षा
2. आत्मसुधार
3. आत्मनिर्माण
4. आत्मप्रगति

उपासना‘  अर्थात् आदर्शों से प्रगाढ़ स्नेह । आदर्शों के समुच्चय को ईश्वर कहते हैं । अतः हम उपासना क्रम में जब ईश्वरीय गुणों का चिंतन मनन निदिध्यासन करते हैं तो वे हमारे जीवन में उत्कृष्ट चिंतन का समावेश करता है ।
‘साधना’ (digested) वह तप/ पराक्रम/ पुरूषार्थ है जिसमें हमें अपने दोष दुर्गुणों (जन्म जन्मान्तरों के संचित कुसंस्कारों) को भूंज डालना होता है @ गलाई । + योग (ढलाई) की प्रक्रिया में उत्कृष्ट चिंतन को (सत्) कर्म में परिणत होने का पुरूषार्थ करना होता है ।
अराधना (realised) परिपक्वता है जो निःस्वार्थ प्रेम (unconditional love/ support/ care)/ आत्मीयता (आत्मवत् सर्वभूतेषु)/ वसुधैव कुटुंबकम् के रूप में परिलक्षित होता है ।

जनसुधार/ लोककल्याण का नींव ‘आत्मीयता’ है । चलते फिरते शक्तिपीठ बनें । Action speaks louder than speech. बात थोपी ना जाए वरन् प्रेरणा प्रसारण से बात बनती है ।

नशे की लत छुड़ाने हेतु चिकित्सीय उपचार, चिंतन क्रम में सुधार, जीवनशैली में स्वाध्याय सत्संग श्रम मनोयोग का समावेश व ईश्वर प्राणिधान सहयोगी साबित हो सकते हैं ।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः ।।

Writer: Vishnu Anand

 

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