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Pragyopnishad – 2

Pragyopnishad – 2

प्रज्ञोपनिषद् (द्वितीय मण्डल)

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 23 July 2022 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT: प्रज्ञोपनिषद् (द्वितीय मण्डल)

Broadcasting: आ॰ अमन जी/ आ॰ अंकुर जी/ आ॰ नितिन जी

शिक्षक बैंच:
1. आ॰ आशीष गुप्ता जी (गोरखपुर, उ॰ प्र॰)
2. आ॰ किरण चावला जी (USA)

जीव भाव (वासना से मोह + तृष्णा से लोभ + अहंता से अहंकार) की परिधि को तोड़कर (समर्पण विलयन विसर्जन @ सायुज्यता से) शिव भाव में रूपांतरण संभव बन पड़ता है । 

1. देवमानव समीक्षा प्रकरण ~ मनुष्य के 3 स्तर:-
1. नरपशु (शरीर भरण पोषण प्रजनन तक सीमित
2. नरपिशाच (दुष्ट दुराचारी दुष्कर्मी)
3. महामानव/ देवमानव (उत्कृष्ट चिंतन + आदर्श चरित्र + शालीन व्यवहार @ आत्मकल्याण + लोककल्याण)
आदर्शवादी जीवन क्रम = आत्मकल्याण + लोककल्याण ।”

2. धर्म विवेचन प्रकरण ~ महामानव/ देवमानव बनने हेतु धर्म धारणा (उत्कृष्ट चिंतन+ आदर्श चरित्र + शालीन व्यवहार) अपनानी चाहिए । धर्मो रक्षति रक्षितः । धारणे इति धर्मः ।
धर्म’ एक है; ‘संप्रदाय’ भिन्न भिन्न हो सकते हैं ।
‘धर्म’ व्यक्तिगत कर्तव्यों और सामाजिक दायित्वों के आदर्श-निष्ठ निर्वाह को कहते हैं । धर्म के 10 लक्षण (5 युग्म) :-
1. सत्य + विवेक
2. संयम + कर्तव्य
3. अनुशासन + व्रतधारण
4. स्नेह सौजन्य + पराक्रम
5. सहकार + परमार्थ
इन्हें (धर्म के 10 लक्षणों को) अपनाने के बाद ही पाँच प्राण व पाँच उपप्राण की पंचाग्नि विद्या संपन्न होती है । योगी जन भी इन्हीं को अपनाकर पंचकोश अनावरण करते हैं । पाँच ऋद्धियां व पाँच सिद्धियां भी इन्हीं गुणों से जुड़ी हैं ।
‘कर्मफल’ की सुनिश्चितता के आधार पर ही यह विश्व व्यवस्था चल रही है ।
मनसा वाचा कर्मणा – एकरूपता ।

3. सत्य विवेक प्रकरण ~ यथार्थता ही सत्य है । ‘श्रेय’ भावना सत्य है । ‘कल्याण’ हेतु कहे गये हर एक वचन और कृत्य सत्य हैं ।
‘सत्य’ के प्रकाश तक पहुंचने में 3 अवरोध हैं:-
१. भ्रम
२. स्वार्थ
३. आग्रह
विवेक बुद्धि (approached + digested + realised) से इन तीन अवरोधों को दूर किया जा सकता है ।
सत्य व विवेक एक दूसरे से जुड़े हैं । विवेक का अवलंबन सत्य हेतु अनिवार्य है । मनुष्य को हंस की तरह नीर क्षीर विवेकी होना चाहिए और श्रेय का वरण करना चाहिए ।
सत्य‘ में यथार्थता व कल्याण दोनों का समन्वय होता है; अतः सत्य एकांगी नहीं होता है । @ सत्यं ब्रुयात् प्रियं ब्रुयात् ।

4. संयमशीलता – कर्तव्य – परायणता प्रकरण ~ मनुष्य (ईश्वर का वरिष्ठतम राजकुमार) को 4 संयम/ शक्ति जन्मजात मिली है:-
1. इन्द्रिय संयम/ शक्ति (संवर्धन हेतु इन्द्रिय शक्ति को व्यसनों में ना बर्बाद करना और इसे उपयोगी श्रम में लगाना ।
2. समय संयम/ शक्ति (प्रबंधन हेतु मस्त एवं व्यस्त)
3. विचार संयम/ शक्ति (संवर्धन हेतु अध्ययन मनन चिंतन निदिध्यासन @ स्वाध्याय)
4. साधन संयम/ शक्ति (संवर्धन हेतु ‘योग्यता + श्रम + मनोयोग’)
संयम‘ से उपरोक्त शक्तियों का क्षरण नहीं होता और ‘कर्त्तव्यपरायणता‘ से सदुपयोग संभव बन पड़ता है । संयम शक्ति व कर्तव्य एक दूसरे से जुड़े हैं ।
सार्वभौम नैतिक कर्तव्य:-
1. निरोगी काया
2. शांत व संतुलित मन
3. आदर्श चरित्र
कर्मयोग‘ को सर्वसुलभ सर्वमान्य और सर्वोपरि कल्याणकारी माना गया है ।

5. अनुशासन अनुबंध प्रकरण ~ श्रेष्ठता की समाजगत मर्यादाओं को ‘अनुशासन‘ कहते हैं । अनुशासन से व्यवस्था चलती है फलस्वरूप स्थिरता रहती है और प्रगति बनती है । ‘ईशानुशासनं‘ ईश्वरीय व्यवस्था अन्तर्गत ईश्वरीय पसारे संसार में सभी अनुशासन से बंधे हैं (गहणाकर्मणोगतिः) ।
अनुबंध‘ आत्मानुशासन (self-discipline) है जो अपनी ‘आकांक्षा +  विचारणा + क्रिया’ के प्रति बरता जाता है ।
अनुबंध व अनुशासन‘ के युग्म को अंतरंग परिष्कृत – बहिरंग सुव्यवस्थित से समझा जा सकता है ।
जीवन में ‘निंदा’ की जगह (कल्याणकारी भाव) ‘समीक्षा’ को प्राथमिकता दी जाए । काम क्रोध मद लोभ दंभ दुर्भाव द्वेष हरिये, शुद्ध बुद्ध निष्पाप हृदय मन को पवित्र कीजिए

6. सौजन्य पराक्रम प्रकरण ~ “सज्जनता + कर्मठता = पराक्रम” । @ एक हाथ में माला व दूसरे हाथ में भाला । @ शास्त्र व शस्त्र के धारक ।
‘सज्जन’ विनयशीलता, विवेकशीलता, सहिष्णुता व सहकारिता आदि के धारक होते हैं ।
पराक्रम, सौजन्य (सज्जनता) संग ही निभता है अतः इनमें अन्योनाश्रय संबंध है ।

7. सहकार परमार्थ प्रकरण ~ @ “आत्मवत् सर्वभूतेषु + वसुधैव कुटुंबकम्” ।
‘आत्मविकास’ उदार आत्मीयता, परमार्थ परायणता और व्यापक दृष्टिकोण अपनाये रहने में है (ससीम का रूपांतरण असीम में) । (भक्तियोग) भगवान तो सेवा में उदारता में विद्यमान हैं । आत्मसंतुष्टि, लोकसम्मान व दैवीय अनुग्रह सहज उपलब्ध होते हैं ।

धर्म‘ आचरण का विषय है; अतः इसे ‘कर्म‘ में परिणत किया जाता है ।
जानकारी‘ (theory – approached) जब ‘क्रिया‘ रूपी प्रयोगशाला से गुजरकर (practical – digested) ‘अनुभव‘ में परिणत (resultant – realised) होती है तो वह सार्थक कहीं जाती हैं । जिसे गुरूदेव ने हम सभी के समक्ष त्रिपदा गायत्री (सुक्ष्म शरीर हेतु ज्ञानयोग, स्थूल शरीर हेतु कर्मयोग व कारण शरीर हेतु भक्तियोग) की उपासना, साधना व अराधना रूपेण रखा है ।
हम जहां कहीं भी रहें (वर्णाश्रम) ‘धर्म’ को केवल चर्चा परिचर्चा का विषय ही ना रखा जाए प्रत्युत् ‘आचरण’ (कर्म) में लाया जाए । “धर्म धारणा = उत्कृष्ट चिंतन + आदर्श चरित्र + शालीन व्यवहार ।”

जिज्ञासा समाधान (श्री लाल बिहारी सिंह ‘बाबूजी’)

आ॰ किरण चावला जी और आ॰ आशीष गुप्ता जी संतस्वरूप आदर्श शिक्षक हैं । एक घंटे में बड़े विषय पर शानदार कक्षा लेने हेतु नमन आभार ।

(ध्यानात्मक) ‘योगाभ्यास’ क्रम में मस्तिष्क, गर्दन व रीढ़ की हड्डी एक सीध में होने से लाभ की मात्रा बढ़ जाती है । सुविधा योग का भी ध्यान रखा जा सकता है ।
ठंडे मस्तिष्क, प्रखर पुरूषार्थ एवं kind heart  से किये गये कार्य थकान का कारण नहीं बनते हैं । मनुष्य कार्य करने से नहीं थकता प्रत्युत् उसे भार समझ कर करने से थकता है । शारीरिक थकान से कहीं अधिक मानसिक व भावनात्मक थकावट ऊर्जा का क्षरण करती हैं । ‘कर्मयोग’ में ‘योग्यता + श्रम + मनोयोग’ का अद्भुत समन्वय होता है ।

खेचरी मुद्रा‘ में सुविधा योग के अनुसार जीभ को मोड़ें व ध्यानात्मक अभ्यास को विशेष प्राथमिकता दी जा सकती है ।

आत्मा‘ वर्णाश्रम जाति आदि से परे है । जहां कहीं भी अपनी भूमिका हो अपना best देवें, ‘कल्याण’ का माध्यम बनें ।

आत्मसुधार‘ संसार की सबसे बड़ी सेवा है । ‘आत्मनिर्माणी‘ ही ‘विश्वनिर्माणी‘ होते हैं । हम सुधरेंगे – युग सुधरेगा, हम बदलेंगे – युग बदलेगा

पंचकोश साधना‘ धर्म धारणा के 10 लक्षणों का application है ।

Concept, clear नहीं होने से ‘संशय’ उत्पन्न होती है । संशयहीन बुद्धि शुद्ध मानी जाती है । @ ज्ञानेन मुक्ति ।

क्रियायोग‘ में समय सीमा को ‘अच्छा लगने तक‘ रखा जाए । स्मरण रहे कि ‘अच्छा लगने तक’ में सजगता, सहजता, नियमितता, श्रम, मनोयोग व योग्यता आदि का समावेश है; इसमें आलस्य प्रमाद आदि का किंचित स्थान नहीं है ।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः ।।

Writer: Vishnu Anand

 

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