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Pragyopnishad – 2 Mandal

Pragyopnishad – 2 Mandal

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 23 Jan 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: प्रज्ञोपनिषद् द्वितीय मण्डल

Broadcasting: आ॰ अमन जी

आ॰ डॉक्टर अर्चना राठौर जी

प्रज्ञोपनिषद् – द्वितीय मण्डल में सात अध्याय हैं। ‘ज्ञान-संगम’ इस भूमि की ऋषि युग की विशेषता रही है। मुनि मनीषियों का एक उत्तम ज्ञान संगम नैमिषारण्य क्षेत्र में हुआ। जिसमें विश्व के सभी मूर्धन्य प्रज्ञा पुरूष एकत्र हुए। सत्राध्यक्ष महाप्राज्ञ आश्वलायन ऋषि – प्रश्न‌ का अधिकार सभी को, समाधान सत्राध्यक्ष के द्वारा।

प्रथम अध्याय – देवमानव समीक्षा प्रकरण

ऋषि ऐतरेय – मनुष्य के तीन स्तरों का कारण क्या है जबकि ईश्वर ने सभी को समान रूप से सुविधाएं प्रदत्त की हैं?

ऋषि आश्वलायन – चेतना के विकास केेआधार पर मनुुुष्य के 3 स्तर:
1. नरपशु – व्यक्तिगत संकीर्ण स्वार्थ तक सीमित, पशु की भांति पेट प्रजनन तक सीमित।
2. नरपिशाच – असुर @ शोषक @ भक्षक। महत्वाकांक्षा अतिशय बढ़ी चढ़ी, दर्प व अहंकार वशीभूत व्यक्तित्व। कर्तव्यों से दूर, बस अधिकारों की चाह इन्हें कुकर्म व अपराध मार्ग में प्रवृत्त कर देती हैं।
3. देवमानव – सादा जीवन – उच्च विचार। वे व्यक्तित्व जिन्होंने स्वार्थ को परमार्थ में, कामनाओं को भावनाओं में, व्यष्टि मन को समष्टि में विलय – विसर्जित किया है।

देवमानव में रूपांतरण हेतु त्रिपदा गायत्री (ज्ञान, कर्म व भक्ति) की ‘उपासना, साधना व आराधना’: दुष्प्रवृत्ति-उन्मूलनाय (तप – आत्मशोधन) सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धनाय (योग – चिंतन, चरित्र व व्यवहार में आदर्शों का समावेश) आत्मकल्याणाय – लोककल्याणाय वातावरण परिष्कराये …।
महामानव बढ़ते हैं तो पशु सुधरते हैं व‌ पिशाच दबते हैं। मानव की पशुता या पैशाचिकता को किसी दबाव या उपदेश से दूर नहीं किया जा सकता। उसे श्रेष्ठता का सशक्त वातावरण ही ठीक करता है और यह महामानवों की संख्या बढ़ने से ही संभव होता है।

द्वितीय अध्याय – धर्म विवेचन प्रकरण

मनीषी मौद्गल्य – किन व्रतों को अपनाने से मनुष्य देवमानव/ महामानव बनते हैं।

ऋषि आश्वलायन – धर्म धारणा: धर्मो रक्षति रक्षित:। धर्म के तत्त्वदर्शी अनावश्यक क्रिया कृत्यों व परंपरागत मान्यताओं में नहीं उलझते वरन् स्वयं को आत्मबल संपन्न बनाकर प्रेरणापुंज बन जाते हैं। धर्म एक ही है – व्यक्तिगत कर्तव्य व सामाजिक उत्तरदायित्वों के आदर्शनिष्ठ निर्वहन। ‘उत्कृष्ट चिंतन + आदर्शवादी चरित्र + शालीन व्यवहार = त्रिवेणी संगम धर्म‘ है। क्षेत्र, समय, वर्ग के आधार पर जो धर्म-परंपरायें चलती हैं उसे ‘संप्रदाय’ कहते हैं।
हमें संप्रदाय व धर्म के अन्तर को समझना चाहिए। धर्मनिष्ठों ने धर्म के 10 प्रधान लक्षण बताए हैं जिन्हें 5 युग्मों में जाना जाता है ~ १. सत्य व विवेक, २. संयम व कर्तव्य, ३. अनुशासन व व्रत-धारण, ४. स्नेह-सौजन्य व पराक्रम & ५. सहकार व परमार्थ। योगशास्त्र में यह 5 यम व 5 नियम, जिन्हें अपनाने से 5 ज्ञानेन्द्रियां व 5 कर्मेन्द्रियां का संयम साधना है। इन्हें धारण करने के बाद 5 प्राण व 5 उपप्राणों की ‘पंचाग्नि विद्या‘ संपन्न होती हैं। इनसे ही पंचकोष अनावरण होता है। 5 रिद्धियां व 5 सिद्धियां इन्हीं 5 गुणों से जुड़ी है। यह 5 योग व 5 तप साधने
समय समय पर मनिषीगण इसलिए अवतरित होते हैं ताकि वे जनमानस में व्याप्त भ्रांतियां मिटा सके और उन्हें धर्म के सही तत्वदर्शन का पक्षधर बना सके।
धर्म प्रेमी – धर्म की विवेचना संग उसे अपने आचरण से प्रमाणित भी करें। केवल धर्म-चर्चा अथवा वाचालता पूर्ण उपदेश भार स्वरूप होते हैं। वचन और कर्म की भिन्नता रखने पर उपहास होता है, अविश्वास बढ़ता है। अतः मनसा वाचेण कर्मणा एकरूपता रखें। ‘ज्ञान, कर्म व भक्ति की ‘उपासना, साधना व आराधना’ कर उत्कृष्ट चिंतन, आदर्शवादी चरित्र व शालीन व्यवहार के धारक बन धर्म परायण बनें और धर्म का विस्तार करें।

तृतीय अध्याय – सत्य-विवेक प्रकरण

मुनि कौण्डिल्य – सत्य व विवेक की परस्पर क्या संगति है?

ऋषि आश्वलायन – सत्य का अर्थ है – ‘श्रेय’। सत्य तीन‌ आवरणों से ढका होता है – भ्रम, स्वार्थ व आग्रह।
‘भ्रम’ @ अज्ञान के अंतर्गत – जानकारी का अभाव, एकांगी जानकारी, गलतफहमियां, तत्काल आकर्षण आदि,
‘स्वार्थ’ (संकीर्णता) के अंतर्गत – उचित के जगह अपने पराये का भेदभाव, व्यापक हित की जगह सीमित का लाभ, दूसरे के श्रम आदि विभूति पर अपनी छाप डालना आदि एवं
‘आग्रह’ @ दुराग्रह के अंतर्गत – परंपरावश, अभ्यासवश, भयवश, प्रमादवश, अहंकारवश दूसरे का पक्ष ना देखना आदि प्रवृत्तियां आती हैं।
उपरोक्त सभी ‘सत्य’ से दूर करने वाली वृत्तियां हैं। ‘विवेक’ के अभ्यास से ही इनको भेद कर सत्य का बोध होता है। तर्क, तथ्य व प्रमाण की मदद से विवेकशीलता बढ़ाई जा सकती है। विवेक का अर्थ दूरदर्शिता भी होता है। क्षणिक लाभ अथवा व्यक्तिगत स्वार्थ की जगह स्वर्णिम भविष्य और समष्टिगत लाभ की दूरदृष्टि रखनी होती है। साधना, अनुशासन, व्यवस्था, तंत्र आदि सब विवेक के आधार पर ही विकसित हूए हैं।
वेदान्त का प्रथम सूत्र – “अथातो ब्रह्मजिज्ञासा” अब ब्रह्म की जिज्ञासा करते हैं। जिज्ञासा, नया जानने की इच्छा प्रत्येक प्रगति का आधार रही है। सत्य नारायण हैं असीमित, अपरीक्षित व अगोचर हैं। विवेकवान व्यक्ति जानने योग्य की खोज और वरण का क्रम सतत् बनाये रखते हैं।

चतुर्थ अध्याय – संयमशीलता – कर्तव्यपरायणता प्रकरण

ऋषि विद्रुथ – संयम और कर्तव्य का आपस में क्या संबंध है?

ऋषि आश्वलायन – भगवान ने हर व्यक्ति को विपूल विभूतियां प्रदान की हैं। वे स्थूल, सुक्ष्म व कारण शरीरों में – बीज रूप में प्रसुप्त स्थिति में पड़ी हैं। साधना के थोड़े प्रयत्न के साथ उन्हें जगाया, बढ़ाया, परिष्कृत किया जा सकता है।
रोग और दुःखों का कारण भगवान के ओर से किसी सामर्थ्य की कमी के कारण पैदा नहीं होते वरन् वे होते हैं ईश्वरीय प्रकृति द्वारा स्थापित मर्यादाओं के उल्लंघन से।
भगवान ने हर मनुष्य को ४ शक्ति जन्मजात स्तर पर प्रदान की हैं – १. इन्द्रिय शक्ति २. समय शक्ति, ३. विचार शक्ति व ४. साधन शक्ति। प्रथम तीन शक्तियां तन व मन में तथा चौथी शक्ति प्रकृति प्रदत्त संपदा के रूप में विपूल मात्रा में सर्वत्र विपूल परिमाण में भरी पड़ी हैं। इन्द्रिय शक्ति व विचार शक्ति का पोषण, परिशोधन व विकास मनुष्य के अधिकार में किंतु समय संपदा मनुष्य के अधिकार में नहीं, अर्थात् वे इसे घटा बढ़ा नहीं कर सकते, किंतु वह मिलती सबको है। हां, पर मनुष्य समय का मूल्य इन्द्रिय शक्ति व विचार शक्ति के संयोग की कुशलता अर्थात् पुरूषार्थ से ही पा सकता है @ योगः कर्मषु कौशलं। साधन शक्ति दैवी संपदा है। मनुष्य इसका रूपांतरण मात्र स्व इच्छानुसार कर सकता है।
जीभ और जननेन्द्रिय का चटोरापन अपनाकर लोग पेट व मस्तिष्क दोनों खराब करते हैं। इन्द्रिय शक्ति के सदुपयोग के २ सूत्र हैं – १. इन्द्रियों को व्यसनों से बचाना व २. उपयोगी श्रम में इन्हें लगाना। इन्द्रिय शक्ति को को पकड़ कर विशेष दिशा में लगाने का ‘पुरूषार्थ’ विचार शक्ति से ही संभव बन पड़ता है। योग्यता, श्रम व मनोयोग के संयोग से ही साधन बनते हैं, बढ़ते हैं।
उपरोक्त चारों संयमों में जो ढील अर्थात् असंयम बरतते हैं वे अपने आप को दीन, दरिद्र, असहाय व अभागा महसूस करते हैं। मनुष्य को स्वतंत्र चिंतन व कर्तृत्व क्षमता इसलिए प्रदान की गई है ताकि वो स्वयं भी बढ़े और सहयोगात्मक वातावरण बनाने हुए औरों को भी आगे बढ़ाये। अतः संयमित होकर शक्ति बचायें और उसे कर्तव्यपालन में प्रयुक्त करें।
वासना से – मोह, तृष्णा से – लोभ व अहंता से – अहंकार बढ़ते हैं। कर्तव्यपालन ही सबसे बड़ा गौरव है। कर्मयोग को सर्वसुलभ, सर्वमान्य व सर्वोपरि माना गया है।

आ॰ किरण चावला जी (USA)

सत्य का अनावरण विवेक के अभ्यास से संभव बन पड़ता है। संयम से हम कर्तव्यपरायण @ कर्मयोगी बनते हैं।

पंचम अध्याय – अनुशासन-अनुबंध प्रकरण

ऋषि उद्दालक – अनुशासन व अनुबंध में परस्पर क्या संबंध है?

ऋषि आश्वलायन – सभ्यता – अनुशासन है तो संस्कृति – अनुबंध। अनुशासन – मर्यादा पालन को कहते हैं और अनुबंध – आत्मसंयम के लिए किये गये पुरूषार्थ @ आत्मानुशासन को। सभ्यता का व्यवहार सुसंस्कारिता के बल पर ही बन पड़ता है। जैसा अंतरंग होता है वैसा ही बहिरंग परिलक्षित होता है।
समाज की सुव्यवस्था का मूल आधार है – निर्धारित अनुशासनों का पूर्ण निष्ठा से निर्वाह। समाज समग्र रूप में एक अनुशासनबद्ध तंत्र है। सृष्टि व्यवस्था में सर्वत्र अनुशासन ही बरता जा रहा है। ग्रह, पिण्ड, पदार्थ, वनस्पति तथा सजीव – निर्जीव सभी सृष्टि की अनुशासन व्यवस्था में अनुबंधित हो अपनी सत्ता बनाये हुए हैं। जो अनुशासनहीन होते हैं अर्थात् अनुबंधों का पालन नहीं करते हैं वो खुद का नाश तथा औरों हेतु विपत्ति खड़ी करते हैं।
महामानवों की सबसे बड़ी विशेषता है कि औचित्य का वरण और निंदा प्रशंसा की परवाह किए बिना सही मार्ग पर चलते जाना। अनुशासन – दुसरों को दिख पड़ता है। पालन करने वाले की प्रशंसा व तोड़ने वाले की निन्दा होती हैं, जबकि अनुबंध – अंतरंग होता है। उसकी जानकारी स्वयं को होती है। अनुबंध – व्रत धारण को कहते हैं जिसमें श्रेष्ठ विचारों को अपनाना व कुविचारों को तिलांजलि देनी होती है। अनुशासन का पालन करने वाले ही अन्य को अनुशासन की शिक्षा दे सकते हैं।

षष्ठम अध्याय – सौजन्य-पराक्रम प्रकरण

ऋषि आरूणि – धर्म धारणा के चतुर्थ युग्म सौजन्य व पराक्रम में क्या संबंध है?

ऋषि आश्वलायन – धर्म को हम सत्कर्म कह सकते हैं। आत्मकल्याणाय व लोकल्याणाय कुछ प्रमुख क्षमतायें अनिवार्य रूप से अर्जित करनी होती हैं। जिनमें से एक है – स्नेह-सौजन्य व दूसरी है समग्र तत्परता। सज्जनता व कर्मठता के समन्वय को पराक्रम कहा जाता है।
सज्जनता से ही मनुष्य की शोभा बढ़ती है। व्यवहारिक अध्यात्म की शुरुआत सज्जनता से होती है। सज्जनता की शोभा सद्भावजन्य व्यवहार में है। प्रेम/ आत्मीयता के विस्तार से ही जीवन में सज्जनता का समावेश होता है। इस हेतु सुत्र – आत्मा वाऽरे ज्ञातव्यः। आत्मा वाऽरे श्रोतव्यः। आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः।
पराक्रम सौजन्य के साथ ही निभता है। सज्जनता कभी भी उद्धत उच्छृंखलता को प्रश्रय नहीं देती। सौम्य होना ठीक है किंतु अनीति सहकर नहीं।

असफलता यह दर्शाती है की सफलता का प्रयास पूर्ण मनोयोग, श्रमशीलता व योग्यता के साथ नहीं किया गया।
मनुष्य के कर्तव्य का निर्धारण उसका चिंतन करता है। अतः ‘मन’ को सद्विचारों से, स्वाध्याय से व सत्संग से कार्यरत रखना चाहिए। क्योंकि जो जैसा सोचता है – वैसा करता है और जैसा करता है – वैसा बन जाता है। साहस व विधेयात्मक दृष्टिकोण अध्यात्म का पहला पाठ है। चरित्र, चिंतन व व्यवहार के धनी बनें।

✍️ सन्त का अर्थ यह नहीं है कि अनीति को चुपचाप सहते रहें क्योंकि अन्याय करने वाले से बड़ा अन्याय सहने वाला साथ ही साथ वो सामर्थ्यवान व्यक्ति जो परंपरा के नाम पर उस अनीति का प्रतिकार ना कर मूक दर्शक की भांति देख रहा होता है। गुरुदेव ने कहा की हम अन्याय अनीति का प्रतिकार करेंगे, परंपराओं की जगह विवेक को महत्व दें। अनीतिगत सफलता से नीतिगत असफलता कहीं अच्छी है।

सप्तम अध्याय – सहकार-परमार्थ

ऋषि जरत्कारु – सहकार व परमार्थ का समन्वय कैसे होता है?

ऋषि आश्वलायन – जब प्राणि मात्र में अपना ही आपा दृष्टिगोचर होने लगता है तो व्यवहार में उदार परमार्थ परायणता एवं सहयोग सहकार की भावनाएं विकसित होने लगती हैं @ आत्मवत् सर्वभूतेषु। @ वसुधैव कुटुंबकम्
मनुष्य की प्रगति का सारा रहस्य उसकी सहकार भावना में सन्निहित है। सफलता का रहस्य साथ मिल जुल कर काम करने में है। सेना की संयुक्त शक्ति होती है। संगठित परिवार व समाज ही फलते फूलते हैं @ जहां सुमति वहां संपत्ति नाना। जहां कुमति वहां विपत्ति विधाना।।
व्यक्तिगत स्वार्थ हेतु दल बल नहीं बनाना चाहिए वरन् समष्टिगत हित की भावना से सहयोग – सहकार बनानी चाहिए। सज्जन संगठित हों क्योंकि सामूहिकता एक ऐसी शक्ति है जिससे सारे संसार को जीता जा सकता है।

✍️ आत्मा के स्वार्थ को परमार्थ कहते हैं। शरीरगत स्वार्थ बन्धन का कारण बनती है तो आत्मा का स्वार्थ अर्थात् परमार्थ मुक्ति का। सब कुछ यहीं है – मोको कहां ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में

प्रश्नोत्तरी सेशन विद् आ॰ किरण चावला दीदी

उपनिषद् हम शक्तिपीठ अथवा गायत्री संस्थान से आनलाईन खरीद सकते हैं।

देवमानव बनने हेतु धर्मधारणा @ व्रत-धारण अर्थात् धर्म के 10 लक्षण – 5 युग्मों का जीवन में समावेश करें।

हम दुसरों के साथ वह व्यवहार ना करें जो हमें स्वयं के लिए पसंद नहीं।

हम सुधरेंगे – युग सुधरेगा, हम बदलेंगे – युग बदलेगा।

प्रश्नोत्तरी सेशन विद् श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

आदरणीय अर्चना व किरण दीदी ने सात दिन के अध्याय को एक घंटे में स्व शिक्षण से सुबोध बनाया – आभार

हमने अन्नमयकोश साधना से – शरीर स्वस्थ, प्राणमयकोश साधना से – प्राण @ शक्ति बल पर नियंत्रण, संवर्धन व परिष्कृत (आत्मसुधार) किया।
प्रेरणापुंज बनने के बाद गिरे/ पिछड़े को उपर उठाना उन्हें साथ लेकर चलना और महामानवों की संख्या बढ़ाना अर्थात् मनुष्य में देवत्व का अवतरण व धरा पर स्वर्ग का अवतरण हमारा लक्ष्य होना चाहिए।

सत्य के अनावरण अर्थात् absolute truth के बोधत्व हेतु विवेक की साधना करनी होती है। संयम को हम व्यवहारिक जीवन में dutifulness (कर्तव्यपालन) के रूप में लें। श्रेष्ठ बनने हेतु जीवन में आदर्शों (अनुबंधों) का चिंतन-मनन (उपासना), जीवन में धारण – अनुशासन (साधना) व शालीन व्यवहार (अराधना) करनी होती हैं।

को हर ध्वनि में सुनने के लिए हमें नादयोग की साधना करनी होती हैं जिसे हम आनंदमय कोश‌ की साधना से समझें। परा – पश्यन्ति में, पश्यन्ति – मध्यमा में, मध्यमा – बैखरी में परिणत होती हैं। प्रैक्टिकल से यात्रा बढ़ती जाती है। थ्योरी व प्रैक्टिकल के समन्वित/ उभयपक्षीय प्रक्रिया को बनाए रखें।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

✍️ Writer: Vishnu Anand

 

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